बाजार में एक नया चलन पैदा हो गया है लकड़ी से बनी कुर्सी, पेपर, लकड़ी के बने अन्य सामानों पर ग्रीन लेबल चस्पा होता है जो यह बताता है कि यह प्रॉडक्ट डीफॉरिस्टेशन यानी जंगल की कटाई से नहीं जुड़ा हुआ है। पर्यावरण के प्रति सजगता को लेकर बड़ी संख्या में लोग इन समानों की लेबल के आधार पर खरीदारी भी कर रहे हैं। प्रकृति की सुरक्षा के नाम पर बने इन उत्पादों की खरीदारी का बाजार में एक बड़ा वर्ग बन गया है जिस वजह से बहुत सारी कंपनियां इस प्रतिस्पर्था में शामिल हो रही हैं। इन कंपनियों का दावा हैं कि वे पर्यावरण की सुरक्षा के लिहाज से अपने सामान बनाती है लेकिन एक नई जांच में यह बात सामने आई है कि दुनियाभर में बहुत सी कंपनियां हैं जो फारेस्ट बेस्ड प्रोडक्ट बनाती है वे पर्यावरण के नियमों की अवहेलना करती है। पर्यावरण के अनुरूप पैमानों पर खरा उतरने के लिए कंपनियां अवैध लॉगिंग करती है।
इंटरनैशनल कंसोर्टियम ऑफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) समेत 39 मीडिया पार्टनर के द्वारा की गई जांच के अनुसार ऑडिटर और तथाकथित सर्टिफिकेशन जंगलों की कटाई से जुड़े प्रोडक्ट, संघर्ष क्षेत्रों (कॉनफिल्क्ट जोन) में प्रवेश, और अन्य खामियों को किनारे कर उत्पादों को मान्य करते हैं। ऐसे प्रमाण दुनियाभर के बाजारों में नौकाओं में सागौन डेक, हाई फर्नीचर और अन्य उत्पादों को बाजार में प्रचार करने में मदद करते हैं।
आईसीआईजे की नई जांच “डिफॉरिस्टेशन इंक” से पता चलता है कि कैसे कंपनियां गलत ऑडिट का इस्तेमाल कर लेबर लॉ, मानवाधिकार, पर्यावरणीय मानकों का उल्लघंन कर गलत तरीके से उत्पादों का प्रचार-प्रसार का काम करती हैं। शेयर धारकों के साथ-साथ ग्राहकों को भी गलत जानकारी देती है। यह नुकसान भयानक और लंबे समय तक चलने वाला हो सकता है।
27 देश और नौ महीने लंबी जांच
नौ महीने लंबी जांच के दौरान 27 देशों के पत्रकारों ने दुनिया भर में लकड़ी काटने वालों का पता लगाया, सैकड़ों स्टेकहोल्डर्स से बात की और कई भाषाओं में सैकड़ो दस्तावेजों का विश्लेषण किया गया। क्रॉस बॉर्डर जांच में पत्रकारों ने पश्चिमी कनाडा में स्थानीय जंगल को काटने के सबूत को इकठ्ठा करने का काम किया। उन्होंने रोमानिया के हरे-भरे जंगलों की अवैध कटाई के विनाशकारी अवैध रास्ते का भी अनुसरण किया। इस जांच में उन्होंने फोर्ट लॉडरडेल, एम्स्टर्डम और पेरिस में बोट शो में कीमती याच का निरीक्षण किया और भारत में सागौन के व्यापारियों के गोदामों का भी दौरा किया। इतना ही नहीं जांचकर्ता टीम ने फिनलैंड, दक्षिण कोरिया और इंडोनेशिया में वनों की कटाई को पकड़ने के लिए ड्रोन तक का इस्तेमाल किया।
आईसीआईजे ने अपनी जांच में पाया है कि बहुत सी कंपनियां खुद को सस्टेनबल फॉरस्टरी घोषित किया है जो उनके स्वयं के दावों और स्वैच्छिक मानकों से बहुत कम है। रिपोर्ट में उदाहरण के तौर पर बताया गया है कि अमेजन में काम करने वाली ब्राजील की एक लकड़ी प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनी पर 1998 के बाद से 37 बार कानूनी दस्तावेजों के बगैर, लकड़ी के स्टोरेज़ और ट्रांसपोर्ट के लिए जुर्माना लगने के बावजूद उसे प्रमाणित किया गया।
आईसीआईजे ने कम से कम 50 देशों में कंपनियों से संबंधित निरीक्षण रिकॉर्ड, पर्यावरण उल्लंघन डेटा और कोर्ट फाइलिंग की जांच की। विश्लेषण में 48 ऑडिटिंग फर्मों की पहचान की गई जो सस्टेनेबल घोषित थी और जिन पर कानूनों के उल्लंघनों के आरोप लगे थे। इन कंपनियों पर देश के जंगलों में प्रवेश करने, झूठे परमिट का इस्तेमाल करने और अवैध रूप से काटी गई लकड़ियों के आयात के उल्लंघनों का आरोप लगाया गया।
डीफॉरिस्टेशन इंक की जांच मे पाया गया है कि भारत में जंगल क्षेत्र की कहानियां बड़े स्तर पर वनों की कटाई और अवैध कटाई तक ही सीमित नहीं है बल्कि आधिकारिक तौर पर जगंल की स्थिति में पारदर्शिता की भी भारी कमी है।
डिफॉरिस्टेशन इंक की जांच में पाया गया कि 1998 के बाद से फारेस्ट प्रोडक्ट इंडस्ट्री में 340 से अधिक प्रमाणित कंपनियों पर स्थानीय समुदाय, पर्यावरण ग्रुप और सरकारी एंजेसियों द्वारा पर्यावरण विरोधी काम या अन्य गलत कामों का आरोप लगाया गया। उन फर्मों में से लगभग 50 के पास सस्टेनबलिटी सर्टिफिकेट थे जिस समय उन्हें सरकारी एजेंसी द्वारा जुर्माना या दोषी ठहराया गया था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस तरह के मामले लगभग कम गिने जाते हैं क्योंकि पर्यावरण के विरूद्ध अपराध के कई सरकारी डेटाबेस जिम्मेदार कंपनियों की पहचान नहीं करते हैं।
व्यापार और अकल्पनीय नकुसान
इस जांच में पाया गया है कि अलग-अलग जगहों पर कंपनियां दशकों से पर्यावरण के नियमों की अवेहलना कर रही हैं। ये कंपनियां अवैध तरीके से ग्रीन लेबल बनाए हुए है। कंपनियां झूठे परमिट के नाम पर अवैध कटाई कर रही है इस वजह से न केवल जंगल क्षेत्र कम हो रहा है बल्कि दुर्लभ पेड़ और जंगली जानवरों के प्राकृतिक आवास भी खत्म किया जाता है। इतना ही नहीं इनसे जानवरों की प्रजातियों पर भी असर पड़ रहा है। बावजूद सबके ऑडिटिंग फर्म्स में कंपनियों की नियमों की अवहेलना करने वाली जांच नहीं हो रही है और इन कंपनियों का ग्रीन लेबल बना हुआ है। बाजार में नियमों की अवहेलना कर कंपनियां उपभोक्ताओं को गुमराह कर मुनाफा कमा रही है।
भारतीय फर्मों पर पर्यावरण से जुड़ी छानकारी छिपाने का आरोप
इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ख़बर के अनुसार डीफॉरस्टेशन इंक की जांच मे पाया गया है कि भारत में जंगल क्षेत्र की कहानियां बड़े स्तर पर वनों की कटाई और अवैध कटाई तक ही सीमित नहीं है बल्कि आधिकारिक तौर पर जगंल की स्थिति में पारदर्शिता की भी भारी कमी है। इस ख़बर के मुताबिक़ फॉरेस्ट कवर डेटा के एक हिस्से को एक्सेस और क्रॉस चैक से यह भी मालूम हुआ कि सरकार ने 1980 के दशक के बाद से मीडिया के साथ साझा करने से इनकार कर दिया है। ख़बर के अनुसार पिछले 10 वर्षों में 1,611 वर्ग किमी के जंगलों को गैर-वन उद्देश्यों के लिए डायवर्ट कर दिया है जिसमें बुनियादी ढांचा और औद्योगिक परियोजनाएं शामिल है।
डाउन टू अर्थ में प्रकाशित ख़बर के अनुसार 10 ट्रिलियन डॉलर से अधिक की संयुक्त संपत्ति वाले वैश्विक निवेशकों के गठबंधन ने 22 भारतीय कंपनियों पर जलवायु संकट, पानी की कमी और जंगलों की कटाई के प्रभाव को छिपाने का आरोप लगाया है। इस लिस्ट में भारती एयरटेल, आईटीसी और कोल इंडिया जैसे नाम शामिल हैं। ख़बर के अनुसार दावा किया गया है कि लिस्ट में शामिल कंपनियों ने अपनी सस्टेनबिलिटी रिपोर्ट में मानक पर्यावरण डेटा का इस्तेमाल नहीं करती है जो किसी भी तरह की तुलना को प्रतिबंध करता है।
जंगलों की महत्वता
जंगलों की कटाई जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धरती पर पेड़ों की कम संख्या प्राकृतिक आपदों को और अधिक विनाशकारी बना देती है। एक आकंलन के अनुसार जमीन का प्रयोग और वनों की कटाई 12-20 प्रतिशत वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। यूएन फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन के अनुसार 1990 से 2020 के बीच 420 मिलियन हेक्टेयर जंगल क्षेत्र खत्म हो चुका है।
नौ महीने लंबी जांच के दौरान 27 देशों के पत्रकारों ने दुनिया भर में लकड़ी काटने वालों का पता लगाया, सैकड़ों स्टेकहोल्डर्स से बात की और कई भाषाओं में सैकड़ो दस्तावेजों का विश्लेषण किया गया।
कंपनियां जानकारी देने में विफल
कई तरह की रिपोर्ट और जांच ये बात साफ कर चुकी है कि व्यापार के इन तौर-तरीकों के वजह से पर्यावरण पूरी तरह प्रभावित हो रहा है। कंपनियां नियमों की अवहेलना करके गलत तरीके से ब्रॉड बनाकर उपभोक्ताओं को अपना सामान बेच रही है। साल 2019 में सीडीपी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर जंगलों पर ज्यादा प्रभाव करने वाली 1500 कंपनियों में से 70 फीसदी उनके असर से जुड़ा डेटा देने में असफल रही। डॉमिनोज़, मोंडेलेज़, नेक्स्ट और स्पोर्ट्स डायरेक्ट जैसे प्रमुख ब्रांड उन 70 फीसदी में शामिल हैं जिन्होंने 2018 में भी खुलासा नहीं किया था। इस जांच में कंपनियों से वनो की कटाई से जुड़ी चार वस्तुओं का खुलासा करने के लिए कहा गया था जिसमें इमारती लकड़ी, ताड़ का तेल, मवेशी और सोया शामिल थी। ठीक इसी तरह द मनी ट्रीज नाम की एक अन्य रिपोर्ट में पाया गया कि जंगलों पर कॉर्पोरेट सेक्टर की पारदर्शिता जलवायु परिवर्तन और जल सुरक्षा जैसे अन्य पर्यावरणीय मुद्दों से पीछे है।