समाजख़बर घर के काम के बोझ के कारण 50% भारतीय महिलाएं दिन में एक बार भी घर से बाहर नहीं निकलतीं: स्टडी

घर के काम के बोझ के कारण 50% भारतीय महिलाएं दिन में एक बार भी घर से बाहर नहीं निकलतीं: स्टडी

इस शोध के परिणामों की ओट में हम इस तथ्य को नकार नहीं सकते हैं कि घरेलू काम में लगी महिलाओं का चार दीवारी की चकाचौंध बनाया जाना परिवार के सदस्यों की पितृसत्तात्मक मानसिकता का ही नतीजा है। घर के कामकाज की पितृसत्तात्मक प्रकृति इन महिलाओं के प्रतिदिन हो रहे शोषण को जारी रखने का काम करती है।

जब बात अवैतनिक घरेलू काम की आती है तो यह विषय महिलाओं से जुड़े अन्य मुद्दों की तरह आज भी उपेक्षित नज़र आता है। हमें घरेलू कामों में लगी महिलाओं को किसी न्यूज़ पेपर में तलाशने की ज़रूरत नहीं है। हर दिन सुबह से शाम घर के अनगिनत कामों में घंटों लगीं इन महिलाओं को हम अपने आस-पास ही देखते हैं, अपने घरों में। इनके घरेलू काम का न तो कोई आर्थिक मूल्य है और न ही पहचान। हम अपने घरों की महिलाओं का परिचय देते हुए बड़ी ही सहजता से अंग्रेज़ी में दोटूक कह देते हैं कि वे हाउसवाइफ या होममेकर हैं। यह शब्द इसमें निहित शोषण की परतों को एक औपचारिक रूप दे देता है। 

होममेकर जिनकी कोई आर्थिक हैसियत नहीं है। इस आर्थिक हैसियत के अभाव और महिलाओं के अवैतनिक घरेलू श्रम पर हुए एक शोध में कई ज़रूरी तथ्य सामने आए हैं। यह शोध जर्नल साइंस डायरेक्ट में पिछले महीने फरवरी में प्रकाशित हुआ है। इसका शीर्षक ‘जेंडर गैप इन मोबिलिटी आउटसाइड होम इन अर्बन इंडिया’ है। यह सर्वे मुख्य रूप से भारत में महिलाओं के घर पर रहने, उनका अपने घरों के परिवेश के भीतर बने रहने और सामाजिक और शैक्षिक अनुभवों और रोजगार से अलग होने की स्पष्ट घटना को उज़ागर करता है।

शोधकर्ता राहुल गोयल दिल्ली के आईआईटी में परिवहन अनुसंधान के अंतर्गत सहायक प्रोफेसर हैं। इन्होंने साल 2019 में नैशनल सैंपल सर्वे द्वारा किए गए ‘टाइम यूज सर्वे‘ के डेटा का इस्तेमाल किया है। साल 2019 के ‘टाइम यूज सर्वे’ की बात करें तो इसमें शहरी और ग्रामीण भारत में रहनेवाले पुरुषों और महिलाओं द्वारा समय के उपयोग का अध्ययन किया गया था। सर्वे बताता है कि जहां महिलाएं प्रतिदिन औसतन 7 घंटे घर के सदस्यों के अवैतनिक घरेलू काम और देखभाल से जुड़ी सेवाओं पर लगाती हैं, वहीं पुरुष मुश्किल से 3 घंटे इस पर खर्च करते हैं।

क्या कहता है नया अध्ययन

काम के बोझ तले महिलाओं की स्थिति को बयां करता यह अध्ययन बताता है कि सर्वे में शामिल 53% महिलाएं दिन में एकबार भी घर से बाहर कदम नहीं रखती हैं। वहीं, महिलाओं की तुलना में 87 फीसदी पुरुष हर दिन एक बार तो ज़रूर घर से बाहर निकलते हैं। स्टडी में महिलाओं को अपने घरों के खूंटे से बंधे रहने और उनकी इस आवाजाही को प्रभावित करने के कारण बताए गए। इन कारणों में बच्चों की देखभाल करने और घरेलू जिम्मेदारियां संभालने, प्रचलित सांस्कृतिक मानदंड प्रमुख हैं। नौकरियों की खराब पहुंच भी घर से बाहर कदम न रखने के कारणों में से हैं।

काम के बोझ तले महिलाओं की स्थिति को बयां करता यह अध्ययन बताता है कि सर्वे में शामिल 53% महिलाएं दिन में एकबार भी घर से बाहर कदम नहीं रखती हैं। वहीं, महिलाओं की तुलना में 87 फीसदी पुरुष हर दिन एक बार तो ज़रूर घर से बाहर निकलते हैं।

अध्ययन में यह भी बताया गया है कि 78% से अधिक महिलाओं को किराने की दुकान तक जाने के लिए अपने घर के पुरुष सदस्य से अनुमति की ज़रूरत होती है। एक लड़की का समाजीकरण एक लड़के की तुलना में अलग होता है जहां हम कह सकते हैं की लड़कियों को घर से बाहर जाने नहीं दिए जाने जैसे रूढ़िवादी अभ्यास शामिल हैं। शोध के एक परिणाम के अनुसार, लड़कियों के किशोरावस्था (10-19 साल की उम्र) में लड़कों की तुलना में बाहर जाने की संभावना कम होती है। जब महिलाएं अधेड़ उम्र में पहुंचती हैं तो उनकी आवाजाही की इस गतिशीलता में मामूली बढ़त देखी जाती है।

चूंकि महिलाएं मुख्य रूप से अपने घरों को संभालने जैसी ज़िम्मेदारियों के बीच फंसी हुई होती हैं, इससे समाज के परिवहन, काम और शैक्षिक स्थानों पर पुरुषों का अनुपातहीन तौर से कब्जा हो जाता है। इसके नतीजतन, इन स्थानों को पुरुषों की जरूरतों को पूरा करने और महिलाओं की गतिशीलता को और बाधित करने के लिए तैयार किया जाने लगता है। उनकी यह परिस्थिति असमानताओं से जुड़ी आलोचना करने के अवसर को सीमित कर देती है। जिन महिलाओं को अपने घरों से बाहर यात्रा करने की अधिक आज़ादी होती है, समाज में उनका शिक्षा प्राप्त करने, बाहर निकलकर काम करने और अपने सामाजिक नेटवर्क विकसित करने की अधिक संभावना होती है।

इस पेपर में पिछले कुछ हुए शोध के परिणामों का भी जिक्र किया गया है। एक शोध के मुताबिक बताया, भारत में ज़्यादातर परिवार की प्रकृति ‘पितृस्थानीय’ है।‘पितृस्थानीय’ शादी हो जाने के बाद की ऐसी प्रथा है जिसमें पत्नी, पति के घर जाकर रहने लगती है। यह प्रथा उनके घरों से बाहर निकल कर सार्वजनिक व्यवस्था से जुड़ने के अवसरों को पूरी तरह ख़त्म कर देती है। खासकर ग्रामीण भारत में, जब एक महिला अपनी सास के साथ रहती है तो उसकी गतिशीलता और घर के बाहर सामाजिक संबंध बनाने की उसकी क्षमता नकारात्मक रूप से प्रभावित होने लगती है। अन्य महिला सदस्यों की तुलना में, घर से बाहर की आवाजाही या गतिशीलता की आज़ादी की कमी इन घरों की बहुओं में ज़्यादा दिखाई देती है।

जब महिलाएं घर से बाहर निकलेंगी तो संभावना है कि वे अपने विचारों का इस्तेमाल करने में सक्षम होंगी। इसलिए पितृसत्ता अपने घरों की महिलाओं को अपनी ऐसी संपत्ति बना लेती है जिसका कोई मूल्य नहीं है।

भारत में गतिशीलता दर में एक बड़ी लैंगिक असमानता आमतौर पर दुनिया के अधिकांश हिस्सों में नहीं देखी जाती है। जैसे लंदन के इससे जुड़े एक शोध में कोई लैंगिक अंतर नहीं पाया। फ्रांस के शोध में औरतें आदमियों की तुलना में अधिक बहार निकलती हैं। दक्षिण एशिया, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका जैसे देश विश्व में सबसे अधिक लैंगिक असमानता वाले समाजों में से हैं, जहां विश्व के बाकी हिस्सों की तुलना में महिलाओं की बाहर निकलकर काम करने की भागीदारी दर कम है।

इस शोध के परिणामों की ओट में हम इस तथ्य को नकार नहीं सकते हैं कि घरेलू काम में लगी महिलाओं का चार दीवारी की चकाचौंध बनाया जाना परिवार के सदस्यों की पितृसत्तात्मक मानसिकता का ही नतीजा है। घर के कामकाज की पितृसत्तात्मक प्रकृति इन महिलाओं के प्रतिदिन हो रहे शोषण को जारी रखने का काम करती है। जब महिलाएं घर से बाहर निकलेंगी तो संभावना है कि वे अपने विचारों का इस्तेमाल करने में सक्षम होंगी। इसलिए पितृसत्ता अपने घरों की महिलाओं को अपनी ऐसी संपत्ति बना लेती है जिसका कोई मूल्य नहीं है। यही सोच इन महिलाओं के अस्तित्व को न तो सम्मान के नज़रिये से नवाजती है, न ही आर्थिक हैसियत देती करती है और न ही कोई सप्ताहिक डे ऑफ।


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