इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत यौन उत्पीड़न, गैरबराबरी, बाज़ारीकरण और बदलते लोकरंग में होली का त्योहार

यौन उत्पीड़न, गैरबराबरी, बाज़ारीकरण और बदलते लोकरंग में होली का त्योहार

मैं यहां अभी गंवई और देहात इलाकों की बात कर रही हूं, जो कितनी तेजी से सब बदला। आज आप होली के किसी उत्सव या ऐसे कहीं होली खेलते लोगों को देखिए हिंसा और कुंठा का अजीब सा माहौल है। डीजे पर अश्लील गाने बज रहे हैं। लोग नशे में धुत उन्हीं पर नाच रहे हैं। कोई संवेदनशील मन गीत को थोड़ा ध्यान से सुने तो मन भर जाता है क्योंकि सारे के सारे गीत बेहद स्त्रीद्वेषी हैं।

उत्तर भारत में खासकर गाँव-देहात इलाकों में होली पर्व को लेकर एक अलग तरह का उत्साह होता है। यहां के मिथकों से लेकर लोकगीतों तक में वह उल्लास दर्ज है जहां फागुन का यह पूरा माह मदनोत्सव के रूप में देखा जाता है। होली के पर्व को अगर प्राचीन काल से चले आ रहे मिथकों की दृष्टि से न देखें तो होली ही नहीं दीवाली भी दोनों कृषि से जुड़े त्योहार हैं। कार्तिक महीने में दीवाली और फागुन महीने में होली दोनों फसलों के पकने के त्योहार हैं। इन दोनों पर्वों के महीनों में रवि और ख़रीफ़ की फसलें पककर तैयार हो जाती हैं।

कॄषि और मजदूरी से जुड़ा समाज का यह वर्ग जो सालभर गरीबी, अभाव, दुख से मुरझाया रहता है त्योहार के दिन थोड़ा सा खिल जाता है। जीवन की जद्दोजहद में उलझे वे तमाम चेहरे जो अभाव से हमेशा त्रस्त होते हैं, जीवनयापन के कठिन बोझ से जो थके निराश होते हैं रंग के इस त्योहार में कुछ चटक दिखते हैं। एक मेहनतकश समाज के वे तमाम चेहरे जो बुझे-बुझे होते हैं उनमें यह त्योहार उत्साह का संचार करता है। गाँव में ढोलक की थाप पर गाए जाते फगुआ गीत रोज़मर्रा की चिंताओं को थोड़ा सा भुलावा देते हैं।

लेकिन बीते दो-तीन दशक में यह पूरा गंवई वातावरण बदल सा गया है। ऐसा नहीं था कि गांवों में पहले बहुत सौहार्दपूर्ण वातावरण था लेकिन एक सामूहिकता थी जो इन बीते कुछ सालों में एकदम से नष्ट हो गई है। होली दीवाली अब बाज़ार और स्थानीय राजनीति की निर्मम खेमेबाज़ी और चमक-दमक में ढल गई है। गाँवों में त्योहार मनाने की जो परंपरा सामूहिक चलन में थी अब संस्थागत हो गई है। सौहार्द का जो एक ज़िम्मेदाराना वातावरण टेढ़े-मेढ़े ही सही चलता था अब बिल्कुल नहीं दिखता। आज धर्म और संस्कृति के हर रूप पर बाजार ने कब्जा कर लिया है तो हमें पीछे जाकर ध्यान से देखना होगा कि किस तरह सादगी और सामूहिकता से कभी त्यौहार मनाए जाते थे। आखिर हमारे देखते-देखते ऐसा क्या हो गया कि सारे पर्व उत्सव बाजार से संचालित और संस्थागत हो गए।

समाज में पर्व और उत्सव के नाम पर हो रहे अन्याय और हिंसा के पीछे कहीं न कहीं सदियों से चली आ रही स्त्रीद्वेषी मानसिकता है। सिर्फ स्त्रिद्वेषी ही क्या आप गाँव में होली के कुछ गीतों की तह में जाएंगे तो जातीय द्वेष, रंगभेद और नस्लभेद भी भरा पड़ा है।

मैं यहां अभी गंवई और देहात इलाकों की बात कर रही हूं, जो कितनी तेजी से सब बदला। आज आप होली के किसी उत्सव या ऐसे कहीं होली खेलते लोगों को देखिए हिंसा और कुंठा का अजीब सा माहौल है। डीजे पर अश्लील गाने बज रहे हैं। लोग नशे में धुत उन्हीं पर नाच रहे हैं। कोई संवेदनशील मन गीत को थोड़ा ध्यान से सुने तो मन भर जाता है क्योंकि सारे के सारे गीत बेहद स्त्रीद्वेषी हैं। दुख इतना ही नहीं है कि पर्व और उत्सव को मनाने का रिवाज बदलकर बाजार से संचालित हो रहा है या किसी तरह के पुराने चलन से मोह हो। आज विकास और बाजार की आड़ में समाज भ्रमित दिशा में चल पड़ा है जहां सामाजिकता के सारे मानक जाति, धर्म, वर्ग और ताकत पर आधारित हो गए हैं।

ऐसा नहीं था कि लोक पहले बहुत लोकतांत्रिक था लेकिन कुछ संवेदनशील और मानवीय ज़रूर था। मैं जिस गाँव में रहती हूं यहीं की बात है। पहले गाँव की एक बजुर्ग दलित महिला थीं। वह हर साल सुबह ही होली खेलने घर -घर जातीं और एक मिट्टी की गगरी में मिट्टी घोलकर रखतीं और सब पर डालतीं। कोई फाग या कबीरा गाकर पुरुषों को संबोधित करतीं। लेकिन कुछ ही सालों में सब बदल गया हर पुरवे की अलग होली जलने लगी। फिर उनका आपस का ही व्यवहार नहीं चल। सब सवर्णों के घर अलग-अलग होली होने लगी। फिर जल्दी ही लोग नौकरी रोज़गार के लिए दिल्ली, मुंबई, सूरत आदि चले गए और होली पर आना भी छूट गया। जो बचे रह गए लोग थे उनके पास जाति ,धर्म और वर्ग की खाइयां थीं जिससे वे कभी निकल न सकें। अब तो यह हाल है गाँव का कि पड़ोस के घर से अक्सर गाँव में आना-जाना नहीं तो होली क्या खेलेंगे साथ में।

मैं लोकगीतों और खासकर होली के लोकगीतों में देखती हूं तो इसी तरह की भावनाएं दर्ज हैं। जहां पति नहीं है तो भाभी के साथ देवर जबरदस्ती रंग खेलने के बहाने यौन उत्पीड़न करता है। ससुर जो है वह देवर बन गया है और ननदोई है गीत में जो भद्दे मज़ाक आदि करता है। कुछ इसी तरह के लोकगीत हैं होली में जहां स्त्री का गहना कहीं फंस जाता है और मदद के लिए आया पुरुष यौन उत्पीड़न करता है।

एक समाज जो पहले से ही बंटा हुआ था उसे इन दशकों में और बांट दिया गया है। इतना कि गाँव में अब त्योहार भी सूने लगते हैं। कुछ लोग डीजे और आर्केस्ट्रा जैसी चीजों से शोर-शराबा करते हैं नहीं तो होली के सौहार्द के नाम पर यहां कुछ नहीं बचा बल्कि तमाम तरह की नशाखोरी ,यौन शोषण और यौन उत्पीड़न की घटनाएं होती रहती हैं। आज यहां होली का पूरा परिदृश्य राजनीति और धार्मिक या जातिगत आधार पर बनता है। इसे महज खेमेबंदी और स्थानीय गुटबाजी में सीमित कर दिया गया है। संस्कृतिकरण और धार्मिक गौरव के नाम पर एक भेदभाव और गैरबराबरी के समाज को जो पहले कुरीतियों को ढो रहा उसे और ज्यादा पीछे धकेला जा रहा है।

इस बार होली और अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस एक ही दिन पड़ा। जैसा कि हमारे यहां का वातावरण है, होली के दिन महिलाओं और लड़कियों का घर से निकलना ही दूभर है तो महिला दिवस उस दिन यहां क्या ही मनाया जाता। यह एक विडंबना है किसी देश के लिए कि एक दिन कोई स्त्री घर से न निकले और उसी दिन पुरुष तमाम तरह के हुडदंग और बद्तमीज़ी कर लेते हैं। यूं तो होली रंग का पर्व है खुशी और उल्लास व्यक्त करने का लेकिन हर साल इस दिन देशभर से यौन शोषण और उत्पीड़न की खबरें आ रही हैं।

सोशल मीडिया के माध्यम से भी तमाम खबरें और वीडियो आएजिसमें महिलाओं और लड़कियों से यौन शोषण करते लोग साफ नज़र आ रहे हैं। एक त्योहार जो सौहार्द और उल्लास का पर्व माना जाता है उसे ‘बुरा न मानो होली है’ के भड़काऊ नारों से कितना भयावह बना दिया गया है। जब हम थोड़ा पीछे जाकर इन मनोवृत्तयों को पलटकर देखेंगे तो पाएंगें कि ये मनबढ़ई आज की नहीं है सदियों पुरानी परंपरा और सोच इसकी पोषक रही हैं।

एक समाज जो पहले से ही बंटा हुआ था उसे इन दशकों में और बांट दिया गया है। इतना कि गाँव में अब त्योहार भी सूने लगते हैं। कुछ लोग डीजे और आर्केस्ट्रा जैसी चीजों से शोर-शराबा करते हैं नहीं तो होली के सौहार्द के नाम पर यहां कुछ नहीं बचा बल्कि तमाम तरह की नशाखोरी ,यौन शोषण और यौन उत्पीड़न की घटनाएं होती रहती हैं।

मैं लोकगीतों और खासकर होली के लोकगीतों में देखती हूं तो इसी तरह की भावनाएं दर्ज हैं। जहां पति नहीं है तो भाभी के साथ देवर जबरदस्ती रंग खेलने के बहाने यौन उत्पीड़न करता है। ससुर जो है वह देवर बन गया है और ननदोई है गीत में जो भद्दे मज़ाक आदि करता है। कुछ इसी तरह के लोकगीत हैं होली में जहां स्त्री का गहना कहीं फंस जाता है और मदद के लिए आया पुरुष यौन उत्पीड़न करता है। यह तो हो गया लोक में मिले कुछ गीत लेकिन एक दशक में होली के भोजपुरी गीत तो अश्लीलता की सारी सीमाएं तोड़ चुके हैं वे इतने गंदे और हिंसक होते हैं कि संवेदनशील जन उन्हें नहीं सुन सकते हैं। 

समाज में पर्व और उत्सव के नाम पर हो रहे अन्याय और हिंसा के पीछे कहीं न कहीं सदियों से चली आ रही स्त्रीद्वेषी मानसिकता है। सिर्फ स्त्रिद्वेषी ही क्या आप गाँव में होली के कुछ गीतों की तह में जाएंगे तो जातीय द्वेष, रंगभेद और नस्लभेद भी भरा पड़ा है। हर साल होली में अपराध की बहुत सारी खबरें खासकर स्त्री यौन अपराध की आती हैं तो ध्यान जाता है कि मेल-मिलाप का त्योहार जिसे कहा जाता है वह दिन किस तरह कितनी स्त्रियों के लिए तकलीफ़ का दिन बन जाता है। आज जब यह कहा जा रहा है कि समाज स्त्रियों को लेकर काफी बदल गया है तो स्त्री यौन हिंसा की इसतरह की इतनी घटनाएं कहां से आ रही हैं।


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