इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत डीजे और ऑर्केस्ट्रा के अश्लील गीतों में लहालोट पूरब का सामंती लोक- समाज

डीजे और ऑर्केस्ट्रा के अश्लील गीतों में लहालोट पूरब का सामंती लोक- समाज

आप जब इन गीतों को ध्यान से सुनेंगे तो पाएंगे सारे के सारे गीत स्त्री हिंसा और स्त्रीद्वेष से भरे हैं। वह समाज जो मूल रूप से पहले ही इस तरह की अमानवीयता और भेदभाव से निर्मित था वह अब इन गीतों के माध्यम से और उन्माद की तरफ जाता है।

गांवों में ये ब्याह शादियों का दिन हैं खूब शोर शराबे और उत्सव गीत के दिन। डीजे पर खूब अश्लील गाने बजेंगे, शादियों में ऑर्केस्ट्रा का नाच आएगा। ऑर्केस्ट्रा में शामिल ये लड़कियां अलग-अलग इलाकों से आती हैं लेकिन जहां ये नाचती हैं वह जगह उनके लिए यातना ही होती है। किसी भी संवेदनशील मन के लिए समाज के ऐसे दृश्य पीड़ादायक होते हैं। इतने अश्लील गानों पर नाचना, इतने भद्दे इशारों पर हंसना, पुरुषों की गलीच हरकत को सहना एक उत्पीड़न ही है। स्त्री को एक प्रोडक्ट समझने वाला यह मर्दवादी समाज शायद कभी इतना संवेदनशील और जहीन हो सकता है। डीजे और ऑर्केस्ट्रा नाच में बजते गीत इस समाज में स्त्रियों के प्रति इस पितृसत्तात्मक समाज की अपनी फैंटसी को बताता है कि वे स्त्रियों को लेकर अपने भीतर क्या सोचते हैं।

कभी यहां परंपरा थी कि शादी में गाँव के ही कुछ लोग होते थे जिनका यह काम और व्यवसाय हुआ करता था। उनके पास कुछ वाद्ययंत्र होते थे जिससे बहुत अधिक शोर नहीं होता था। यही बाजे गाँव की हर शादी में बजते थे। ये बाजेवाले गाँव की होते और बारात की विदाई के समय घर की स्त्रियां बाजे पर अपना लोकनृत्य करती जो बिल्कुल सादा होता था और नाचने के बाद वे बाजे वालों को कुछ रुपये नेग में देतीं। कम रुपये होने पर बाजे वाले रूठ जाते, स्त्रियां मनुहार करके रुपये पकड़ातीं, वह एक सुंदर दृष्य होता। तब बाज़ार का इतना दखल नहीं था। विवाह उत्सव के सब काम सादे और सामूहिक थे।

उत्सवों और पर्वों को लेकर पहले अवध के लोक में, लोगों के बीच सहभागिता वाला संबंध था। वह संबंध सुविधा और सहूलियत का था। फिर बाज़ार बहुत तेजी से गाँवों में पहुंचा और सामूहिकता का वह समाज टूट गया। कुछ सालों से यहां बहुत तेज़ी एक बदलाव हुआ। अब यहां कोई ब्याह ऐसा नहीं होता जहां डीजे पर अश्लील गीत न बजते हो और शोर इतना अधिक कि लगता है कि कान के पर्दे फट जाएं। ध्वनि प्रदूषण के लिए पूरब के गाँव और शहर दोनों ही बहुत ही ढीठ हैं। डीजे पर बजते अश्लील गा ने पर तो यह समाज लहालोट रहता है।जन्म का उत्सव हो या शादी ब्याह कितने गीत गवनई खो गए। अब हर मौक़े पर डीजे पे फ़िल्मी गाने और भोजपुरी गीत ही अवध में बजते हैं। अब न किसी मांगलिक अवसर पर सामूहिकता दिखती है न वह त्योहारों पर पहले वाला उल्लास। एक अजीब तरह का समाज बनता जा रहा है।

यह बात एकदम सच है कि ये सारे गीत स्त्री से यौन हिंसा करने के उन्माद से भरे होते हैं और बाज़ार इसी उन्माद को परोस कर भुना रहा है। कहीं न कहीं समाज में इसकी लोकप्रियता का कारण यही कि दमित यौन इच्छाओं को इन गीतों में शरण मिलती है।

वैसे अगर इस पूरे ढांचे का गहराई से अध्ययन किया जाए तो ये कोई अचरज की बात नहीं कि कैसे इतने अश्लील गीत समाज में अपनी जगह बना रहे हैं। जिस समाज में स्त्री को परदे में रखा जाता है। जहां स्त्रियों की आज़ादी को लेकर यह समाज एक जिद्दी सोच में पोषित होता रहता है। जिस तरह यहां की पूरी व्यवस्था मर्दवादी है तो उस समाज में इतनी स्त्रियों की देह पर आधारित इतने अश्लील गीत ज़रूर रचे जा सकते हैं। 

इसे अश्लील कहते हुए मैं सोचती हूं कि आखिर अश्लील क्या होता है! मानवीय मूल्यों पर कौन सा व्यवहार अश्लील है! मैं समझती हूं जो प्राकृतिक नहीं है, वही अश्लील है। जिसमें हिंसा है क्रूरता है वही अश्लील है। आप जब इन गीतों को ध्यान से सुनेंगे तो पाएंगे सारे के सारे गीत स्त्री हिंसा और स्त्रीद्वेष से भरे हैं। वह समाज जो मूल रूप से पहले ही इस तरह की अमानवीयता और भेदभाव से निर्मित था वह अब इन गीतों के माध्यम से और उन्माद की तरफ जाता है। अब कुछ लोग कहते हैं कि किस भाषा में अश्लील गीत नहीं तो यह बात असंगत लगती है जबकि मैंने जितना देखा जाना मुझे और भाषाओं में इतने अश्लील गीत नहीं दिखे। एक बहस यह कि पूरब के लोकगीतों में जो गाली गीत की परंपरा थी वह एक वर्जित को उघाड़ने की क्षणिक इच्छा थी या कुण्ठाओं स्फुटन भी कह सकते हैं। इसमें यह होता कि सेक्सुअल डिज़ायर जिसे हम सबके सामने नहीं कह सकते उसे गाली गीत के माध्यम से कहा जाता था। स्त्री पुरुष के आदिम संबंध को उलटा-पलटा जाता था। लेकिन ये सब चीजों के लिए भी एक मौका होता और उसमें कई तरह की संवेदना होती जिसे दर्शाया जाता। 

स्त्री को एक प्रोडक्ट समझने वाला यह मर्दवादी समाज शायद कभी इतना संवेदनशील और जहीन हो सकता है। डीजे और ऑर्केस्ट्रा नाच में बजते गीत इस समाज में स्त्रियों के प्रति इस पितृसत्तात्मक समाज की अपनी फैंटसी को बताता है कि वे स्त्रियों को लेकर अपने भीतर क्या सोचते हैं।

लेकिन आखिर क्या कारण है कि बाज़ार ने सिर्फ एक ही भावना को कैप्चर कर लिया और उसका एक अपना बहुत बड़ा फलक बना लिया। लोक के गाली गीतों में सब सुंदर था ऐसा नहीं है हो सकता है। शुरुआत में वहां समानता रही हो लेकिन कालांतर में गाली गीत महज पुरुष लिप्साओं का उन्मादी बखान दिखता है। मुझे नहीं लगता कि कोई चेतना शील स्त्री उसे बेहतर कह सकती है। हां यह खूब देखा है कि पुरुष समाज शादी-ब्याह में स्त्री द्वारा गाए जाते इन गाली गीतों को खूब मगन होकर सुनता है। इस तरह तो फिर स्त्रियां पुरुषों के मनोरंजन का साधन ही बनती हैं।

गाँव में विवाह आदि कार्यक्रमों में मनोरंजन के नाम पर चल रहे ऑर्केस्ट्रा में अश्लीलता की हद तक उत्तेजक नृत्य और फूहड़ गानों पर डांसरों के साथ उसी अंदाज में ठुमके लगाते युवक भी दिखते हैं। गाँव में अब ये बहुत ही विद्रूप स्थिति बनती जा रही है। यहां छोटे-बड़े और बूढ़ों के बीच कुछ लोग नृत्य के दौरान बेहद फूहड़ हरकतें करते नजर आते हैं। ये गीत बेहद फूहड़, जुगुप्सापरक और अश्लील गीत होते हैं। छिटपुट विरोध होता है लेकिन एक से एक भद्दे गाने बनते रहते हैं, बजते रहते हैं। सुनते हुए जैसे मन में ये संताप उठता है कि क्या किसी भी तरह इन पर रोक नहीं लग सकती कम से कम सार्वजनिक जगहों पर तो जरूर लगनी चाहिए।

बदलापुर इंटर कॉलेज में पढ़ती रितिका रोष से कहती हैं, “जो लोग अश्लील भोजपुरी गीत गाते हैं या लिखते हैं उन पर भी उत्पीड़न और बलात्कार को बढ़ावा देने का केस होना चाहिए। हम लड़कियां जब ऑटो या रिक्शे में बैठते हैं तो चालक अश्लील गीत लगाकर हमें घूरते रहते हैं।” वहीं, फर्स्ट ईयर की विभा कहती हैं, “अब तो हद ही हो गई है। इन अश्लील गीतों के उन्माद में गांव और कस्बाई इलाकों में उत्पीड़न आदि को बढ़ावा मिलता है  और कहीं-कहीं मामला इससे भी आगे बढ़ जाता है।”

इन गीतों की लोकप्रियता को लेकर कॉलेज जाती लड़कियों से बातचीत करने पर पता चलता है कि कि उन्हें इन गीतों के समाज में बजने से दिक्कत है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ती प्राची कहती हैं, “आजकल शादी हो या कोई भी समारोह हो उसमे डीजे होना जैसे एक जरूरी चीज़ बन गया हो। डीजे पर जो अश्लील गाने बजते हैं उसका केंद्र सिर्फ स्त्रियां होती हैं और जो लोग अपने को तथाकथिक सभ्य होने के पैमाने पर खरा बताते हैं वह भी इन अश्लील गानों पर नाचते नहीं थकते। स्त्रियां उनके लिए मजे की चीज़ होती है उन्हें देखकर लगता है कि स्त्रियों को सम्मान और मनुष्य होने का दर्जा देना उनके सभ्य होने की श्रेणी में नहीं आता।”

यह बात एकदम सच है कि ये सारे गीत स्त्री से यौन हिंसा करने के उन्माद से भरे होते हैं और बाज़ार इसी उन्माद को परोस कर भुना रहा है। कहीं न कहीं समाज में इसकी लोकप्रियता का कारण यही कि दमित यौन इच्छाओं को इन गीतों में शरण मिलती है। आखिर क्या कारण है कि दिन-ब-दिन इन गीतों में अश्लीलता बढ़ती जा रही है जहां स्त्री सिर्फ और सिर्फ वस्तु है जिसे पुरुष अपनी इच्छा से उपयोग करते हैं।

इन अश्लील गीतों की लोकप्रियता पर सवाल पूछे जाने पर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से इतिहास विषय से परास्नातक करती साक्षी कहती हैं कि भोजपुरी गीतों का समाज द्वारा इतना सुना जाना इस समाज की मानसिकता में छुपी यौन कुंठा और स्त्रियों के लिए यौन हिंसात्मक सोच को उजागर करता है। आखिर ये गीत इतने क्यों बजते हैं, समाज द्वारा इसे इतना सुना जाना समाज के लोगों छिपे इस व्यवहार का प्रमाण है। सभ्यता और संस्कारों की दुहाई देना वाला समाज अश्लील गाने सुनने से परहेज नहीं करता है। इस समाज में प्रेम किया जाना अश्लील माना जाता है। लड़का और लड़की का बात बात करना अश्लील माना जाता है। परिवार के सामने अपनी साथी को प्रेम करना या फिर अपने बच्चे के सामने अपनी साथी को प्रेम करना यहां यह सब कुछ अश्लील है। आखिर ये समाज इतना दोहरेपन से क्यों बना है।


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