समाजकैंपस विदेशोंं में जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ बन रहे नियमों के बीच बात भारतीय कैंपस में मौजूद जातिवाद की

विदेशोंं में जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ बन रहे नियमों के बीच बात भारतीय कैंपस में मौजूद जातिवाद की

एम्स, आईआईटी, जेएनयू, डीयू, बीएचयू जैसे देश के बड़े संस्थानों पर भी जातिगत भेदभाव के आरोप लगते रहे और यह भेदभाव की प्रक्रिया सिर्फ छात्रों पर आकर खत्म नहीं हो जाती है। इन कैंपसों में प्रोफेसरों को भी इस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

पहली घटना- अमृतसर के श्री गुरु रामदास मेडिकल कॉलेज में इंटर्नशिप कर रही एक महिला डॉक्टर की 9 मार्च की रात को आत्महत्या से मौत हो गई। द क्विंट की रिपोर्ट के अनुसार मृतक के परिवारवालों ने आरोप लगाया है कि कॉलेज में उसके साथ जातिगत भेदभाव होता था, उसे अपमानित किया जाता था और डॉक्टर न बनने देने की धमकियां भी दी जाती थीं। इसकी शिकायत प्रिंसिपल को कई बार की गई थी पर कभी भी कोई कार्रवाई नहीं हुई।

दूसरी घटना- बीते 6 मार्च को तेलंगाना के एक आवासीय स्कूल में कक्षा सातवीं की एक दलित विद्यार्थी की आत्महत्या से मौत हो गई। द न्यूज़मिनट की रिपोर्ट के मुताबिक मृतका के परिवारवालों ने स्कूल प्रशासन पर आरोप लगाया कि वे उनकी बेटी को प्रताड़ित करते थे।

तीसरी घटना- बीते महीने 12 फरवरी देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान आईआईटी मुंबई के छात्र दर्शन सोलंकी की परिसर में ही आत्महत्या से मौत हो गई। दर्शन केमिकल इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष के छात्र थे और मूल रूप से अहमदाबाद के रहनेवाले थे। कैंपस के कुछ छात्रों का कहना है कि दलित छात्र दर्शन के साथ कथित तौर पर जातिगत भेदभाव किया जा रहा था। कैंपस के कुछ संगठनों और छात्र के परिवारजनों की मांग पर जांच के लिए एक 12 सदस्यों की समिति का गठन किया गया था। इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर अनुसार, इस समिति ने छात्र के साथ जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के आरोपों को ख़ारिज किया और जांच पैनल ने छात्र के ‘बिगड़ते शैक्षणिक प्रदर्शन’ को एक संभावित कारण माना। ख़बर के मुताबिक दर्शन के पिता रमेशभाई ने कहा, “वह केवल एक विषय में असफल रहा था और यह आत्महत्या का कोई कारण नहीं है।”

जब आप अपनी स्कूल की पढ़ाई खत्म करके पहली दफ़ा कॉलेज पहुंचेंगे तो कुछ इस तरह के सवालों से आपका सामना ज़रूर हुआ होगा। कितने नंबर पर एडमिशन मिला? किस कैटेगरी से हो? तुम्हारा तो रिज़र्वेशन था कम पैसे लगे होंगे? तुम्हारा तो कम नंबर पर ही हो जाता है। कोई उन नंबरों के आधार पर आपकी जाति जानना चाहेगा या फिर कोई रिज़र्वेशन से आने का ताना देगा। ये सिर्फ़ सवाल नहीं हैं वास्तव में ये वंचित समुदाय से आनेवाले विद्यार्थियों के सामने अपना प्रभुत्व दिखाने और उन्हें कमज़ोर सिद्ध करने की सदियों से चली आ रही जातिवादी सोच है। इन सवालों को यूनिवर्सिटीज़ में एक सामान्य बात मानी जाती है। जबकि ये सवाल वंचित तबकों से आनेवाले विद्यार्थियों को मानसिक रूप से आहत करते हैं। इस असमानता और गैर-समावेशी माहौल की वजह से ही कई विद्यार्थियों की मौत आत्महत्या से होती है जिसे हम सांस्थानिक हत्या कह सकते हैं।

संस्थानों को इस बात की समझ विकसित करनी होगी दलति, आदिवासी, बहुजन तबकों से आनेवाले ये छात्र इन शिक्षण संस्थानों तक पहुंचनेवाली पहली पीढ़िया हैं। अगर इन पहली पीढ़ियों के अनुभव इतने असहज और उत्पीड़न भरे होंगे तो आगे आने वालों के लिए रास्ते खुद बंद हो जाएंगे। 

अक्सर विश्वविद्यालयों में छोटे गाँव कस्बों से आनेवाले विद्यार्थियों को न केवल उनकी जाति, क्षेत्रीयता बल्कि उनके पहनावे के आधार पर बल्कि उनकी भाषा के आधार पर भी कमतर होने का आभास करवाया जाता है क्योंकि वे कैंपस में मौजूद विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से बेहतर अंग्रेज़ी नहीं बोल पाते या क्षेत्रीय भाषा का भाव उनमें अधिक होता है। लेकिन 21वीं शताब्दीं में भी हम इन राजनीतिक और सामाजिक आदर्शों की खाई को नहीं भर सके हैं। एम्स, आईआईटी, जेएनयू, डीयू, बीएचयू जैसे देश के बड़े संस्थानों पर भी जातिगत भेदभाव के आरोप लगते रहे हैं। इससे जुड़े मामले सामने आते रहे हैं और यह भेदभाव की प्रक्रिया सिर्फ विद्यार्थियों पर आकर खत्म नहीं हो जाती है। इन कैंपसों में प्रोफेसरों को भी इस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अकादमिक संस्थानों में हर साल कितने ही ऐसे मामले हमारे सामने आते हैं जहां विद्यार्थियों के साथ जातिगत भेदभाव, जाति आधारित व्यंग्य, मानसिक उत्पीड़न और संस्थागत हत्या हुई।

शिक्षण संस्थानों में इस तरह की घटनाएं लगातार हो रही है। यह हमारे पूरे सिस्टम पर एक प्रश्नचिह्न है। इस तरह की घटनाओं और शिक्षा व्यवस्था पर बोलते हुए बीते महीने देश के मुख्य मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, अब समय आ गया है कि शिक्षा का एक ऐसा मॉडल तैयार किया जाए जिसमें उत्कृष्टता की बजाय सहानुभूति हो।” टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, मुख्य न्यायधीश ने आईआईटी मुंबई में दलित छात्र और नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी ओडिशा के आदिवासी छात्र की आत्महत्या से हुई मौत पर बात करते हुए कहा, “मेरा दिल इन छात्रों के परिवारजनों के लिए चिंतित है, लेकिन मैं यह भी सोच रहा हूं कि हमारे संस्थान कहां गलत हो रहे हैं।” 

उन्होंने कहा, “ये संख्या केवल आंकड़े नहीं हैं। ये कभी-कभी सदियों के संघर्ष की कहानी होती है, मेरा मानना है कि अगर इस समस्या का समाधान करना चाहते हैं तो पहला कदम समस्या को स्वीकार करना और पहचानना है। देश के सबसे वरिष्ठ शिक्षाविदों में से एक पूर्व यूजीसी चेयरपर्सन प्रोफेसर सुखदेव थोराट कहते हैं कि अगर विशेष परिस्थितियों  में आत्महत्या करने वाले लगभग सभी दलित और आदिवासी हैं, तो यह एक पैटर्न दिखाता है जिस पर हमें सवाल उठाना चाहिए।” 

संस्थागत भेदभाव पर थोराट समिति की रिपोर्ट

साल 2007 में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में दलित आदिवासी छात्रों के साथ भेदभाव को लेकर प्रोफेसर सुखदेव थोराट की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था जिसने विस्तृत अध्ययन के बाद 2011 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में एम्स के लगभग 72 फीसदी दलित और आदिवासी विद्यार्थियों ने किसी न किसी तरह का जातिगत भेदभाव का सामना किया था। 85 फीसदी छात्रों ने मौखिक और प्रायोगिक परीक्षाओं में भेदभाव होने की बाद कबूल की। आधे से ज़्यादा छात्रों ने कहा कि वो प्रोफ़ेसरों से बातचीत करने में सहज महसूस नहीं करते क्योंकि प्रोफ़ेसर उनके प्रति उदासीन रहते हैं। एक तिहाई छात्रों ने ऐसा महसूस किया कि जाति की वजह से उनकी अनदेखी होती है।

थोराट समिति की सिफारिशें

इस समिति ने उच्च शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव के प्रति संवेदनशील होने और भेदभाव मिटाने के लिए सिफारिशें की थीं। इन सिफारिशों को आज भी पूरी तरह से लागू नहीं किया जा रहा है। 

  • समिति ने सिफारिश कि संस्थानों में एससी/एसटी छात्रों के लिए विशेष कोचिंग या रेमेडियल क्लासेज़ की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे वे अपनी लैग्वेज स्किल्स एवं अन्य एकेडमिक सुधार कर सकें।
  • छात्रों और शिक्षकों के बीच संबंधों को सुधारने के लिए विशेष कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए औपचारिक शेड्यूल की व्यवस्था की जानी चाहिए। 
  • कक्षा में भेदभाव पर अंकुश लगाने के लिए कक्षा प्रतिनिधियों की संख्या दो की जाए जिसमें एक एससी/एसटी समुदाय से हो। 
  • गवर्निंग बॉडी को छात्रों, शिक्षकों और रेसिडेंट्स की एक संयुक्त कमेटी बनानी चाहिए, जो कैंपस और निजी मेसो में सामाजिक विभाजन की समस्या को खत्म करने पर ध्यान दें। 
  • एससी/एसटी और ओबीसी स्टूडेंट्स से जुड़े मुद्दों को निपटाने के लिए ‘इक्वल अपॉर्चुनिटी ऑफिसर’ के रूप में एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की जाए। इसी की निगरानी में रेमेडियल कक्षाएं चलाई जाएं। 
  • इसी कार्यालय के तहत एससी/एसटी स्टूडेंट्स की शिकायतों और अन्य समस्याओं का निवारण किया जाए। 
  • छात्रों से जुड़े मसलों को हल करने के लिए बनने वाली सभी कमेटियों में एससी/एसटी छात्रों को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाए। 
  • शिक्षकों की नियुक्तियों के मामले में आरक्षण के प्रावधानों का पालन किया जाए। 
  •  स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा आरक्षण के लागू किए जाने की सीधी निगरानी की जानी चाहिए।

ये सिफारिशें नियमों के तौर पर अधूरे तरीके से संस्थानों में काम कर रही हैं। ज़रूरत है सरकार और अदालतें इन नियमों को कानूनी रूप से संस्थानों में लागू करें और हर संस्थान इन सिफारिशों की अनिवार्यता को समझें। 

अन्य देशों में जातिगत भेदभाव को खत्म करने की पहल

जाति के आधार पर होने वाला भेदभाव का व्यवहार भारतीयों का सिर्फ देश तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह यूरोप, अमेरिका जैसे देशों में भी पहुंच गया है। बड़ी संख्या भारतीय विद्यार्थी विदेशों में पढ़ने जाते हैं और वहां भी दलित छात्रों को जाति के आधार पर कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसी दिशा में अमेरिका और कनाडा के कुछ हिस्सों में हाल ही में जाति के आधार पर होनेवाले भेदभाव को खत्म करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। अमेरिका का सिएटल शहर अमेरिका का पहला ऐसा शहर है बना जहां पर जातिगत भेदभाव अब एक अपराध है। शहर की काउंसिल में पार्षद द्वारा लाए गए प्रस्ताव के तहत शहर में रोज़गार, यातायात, आवास और दुकानों पर होनेवाले जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगा दिया।

इसी तरह बीते शुक्रवार को टोरंटो के डिस्ट्रिक स्कूल बोर्ड ने स्कूलों में जाति आधारित भेदभाव को स्वीकार करने वाला शहर का पहला स्कूली बोर्ड बन गया है। स्कूल बोर्ड में इस विषय पर एक प्रस्ताव लाया गया जो बाद में पारित हो गया। ठीक इसी तरह पिछले साल जनवरी में अमेरिका की कैलिफॉर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी ने जातिगत भेदभाव को एक समस्या के रूप में माना और इस पर प्रतिबंध लगाया। विदेशी की कई अन्य संस्थानों में जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए इस तरह की नीतियां अपनाई गई। 

भले ही आपने यह सुना होगा कि अब असमानता खत्म हो गई, सब समान है। लेकिन बड़े शहरों, सस्थानों और तो और विदेशी संस्थानों में जातिगत भेदभाव की बातें हमारे सामने आती रहती हैं। हमें सोचना होगा ये मानसिकता आज भी कैसे कायम है? क्यों हमारे सामने निरंतर ऐसे मामले आते हैं जहां कोई विद्यार्थी अलगाव में है तो कोई मानसिक पीड़ा सह रहा है। संस्थानों को इस बात की समझ विकसित करनी होगी दलति, आदिवासी, बहुजन तबकों से आनेवाले ये छात्र इन शिक्षण संस्थानों तक पहुंचनेवाली पहली पीढ़िया हैं। अगर इन पहली पीढ़ियों के अनुभव इतने असहज और उत्पीड़न भरे होंगे तो आगे आने वालों के लिए रास्ते खुद बंद हो जाएंगे। 


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