हमारे घरों में तो आज भी यही बताया जाता है कि बच्चे ‘भगवान’ की कृपा से पैदा होते हैं या परयिां तोहफे में उन्हें देकर जाती हैं। ऐसे रूढ़िवादी माहौल में सेक्स एजुकेशन की बात पर हमेशा चुप्पी का माहौल होता है। जिस मुद्दे पर खुलकर कभी बात न की जाए पर वह आपकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा हो तो आप कहीं न कहीं से तो उसके बारे में जानने की कोशिश करेंगे ही! पॉर्न वीडियोज़, सस्ती मैगज़ीन, दोस्तों की बताई गई उल-जलूल बातें, इंटरनेट और भी न जाने क्या-क्या।
हाल ही में जारी हुई यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट बताती है कि सेक्स एजुकेशन को लेकर दुनिया के केवल 20 फीसदी देशों में कानून मौजूद हैं। वहीं केवल 39 फीसदी देशों में इसे लेकर राष्ट्रीय नीतियां बनाई गई हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि 68 फीसदी देशों में प्राइमरी शिक्षा में अनिवार्य है जबकि सेकंडरी शिक्षा में केवल 76 फीसदी देशों में ही इसे अनिवार्य रूप से शामिल किया गया है।
सेक्सु एजुकेशन से जुड़े टैबू की वजह से ही हमारे देश में कॉम्प्रहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन को हमेशा ही सिलेबस से दूर रखा गया है जबकि यह मुद्दा मैथ्स, साइंस, सोशल साइंस जितना ही अहम है। सबसे बड़ी दिक्कत है कि हमारे समाज ने सेक्स एजुकेशन को सिर्फ सेक्स यानि इंटरकोर्स तक सीमित कर दिया है जो कि पूरी तरह ग़लत है। इस लेख में हम बात कर रहे हैं कि क्या होता है कॉम्प्रहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन और क्यों इस पर बात करना ज़रूरी है।
कॉम्प्रहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन आखिर है क्या?
सेक्स हमारे समाज में एक शर्म और टैबू से जुड़ा मुद्दा है। इसलिए जब बात इससे जुड़ी जानकारियों की आती है तो ज़ाहिर वे भी छिपकर ही जुटाई जाती हैं। बहुत हद तक मुमकिन है कि ये जानकारियां आधी-अधूरी या गलत हो। लेकिन इनकी ज़रूरत सभी को पड़ती है, सबके मन में इससे जुड़े बहुत सारे सवाल होते हैं। यहां ज़रूरी हो जाता है सेक्स एजुकेशन।
आसान शब्दों में कहें तो कॉम्प्रहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन का मतलब है जहां आप क्वॉलिटी लर्निंग और टीचिंग के ज़रिये अपने सेक्सुअल एंड रिप्रोडक्टिव यानि यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों के बारे में जानते हैं। सेक्स एजुकेशन का मतलब सिर्फ इंटरकोर्स तक सीमित नहीं है। इसमें सेक्सुअल एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ एंड राइट्स, सेक्सुअलिटी, जेंडर, मानवाधिकार, सेक्सुअल और जेंडर बेस्ड वॉयलेंस, कंसेंट, बॉडी अटॉनमी यानि आपके शरीर से जुड़े अधिकार,मानव शरीर का विकास जैसे अहम मुद्दे शामिल होते हैं।
कॉम्प्रहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन ज़रूरी क्यों है?
प्यूबर्टी के दौरान जब हमारे शरीर में बदलाव होते हैं तो दिमाग में एक साथ कितने सारे सवाल आते हैं न!प्यूबिक हेयर क्यों आ रहे, पीरियड्स क्यों शुरू हो गए, इरेक्शन क्यों हो रहा, क्यों अचानक से हम ‘बड़े’ लगने लगे हैं! लेकिन क्या इन सवालों का हमें कभी भी सही जवाब दिया गया है। ऐसे ही हज़ारों सवालों के लिए तो ज़रूरी है कॉम्प्रहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन।
जब भी बात स्कूलों में सेक्स एजुकेशन की आती है तो भारतीय पेरंट्स की एक ही प्रतिक्रिया होती है अब स्कूलों में बच्चों को ऐसी अश्लील बातें पढ़ाई जाएंगी!जब प्यूबर्टी 12-13 साल की उम्र में ही शुरू हो जाती है तो सेक्स एजुकेशन भी बच्चों को जितनी जल्दी दिया जाए ये उनके सेक्सुअल और रिप्रोडक्टिव हेल्थ के लिए उतना ही अच्छा रहेगा। उन्हें अपने शरीर में हो रहे बदलावों के बारे में सही जवाब मिलेंगे।
सेक्स एजुकेशन का मतलब सिर्फ इंटरकोर्स तक सीमित नहीं है। इसमें सेक्सुअल एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ एंड राइट्स, सेक्सुअलिटी, जेंडर, मानवाधिकार, सेक्सुअल और जेंडर बेस्ड वॉयलेंस, कंसेंट, बॉडी अटॉनमी यानि आपके शरीर से जुड़े अधिकार,मानव शरीर का विकास जैसे अहम मुद्दे शामिल होते हैं।
सेक्स एजुकेशन न मिलने के कारण ही तो युवा, किशोर अलग-अलग ज़रिये से गलत जानकारियां इकट्ठा करने लग जाते हैं, जिसे सही करनेवाला भी कोई नहीं होता। सही वक़्त पर अगर सेक्स एजुकेशन मिले तो यह लोगों के बीच सेक्स, सेक्सुअलटी, जेंडर आदि को लेकर एक स्वस्थ्य सोच और नज़रिया पनपेगा, इन मुद्दों पर जागरूरकता बढ़ेगी। वे अपने शरीर, जेंडर, सेक्सुअलिटी को लेकर एक सही और जागरूक फ़ैसला ले पाएंगे, उसके साथ सहज हो पाएंगे। वे जान पाएंगे कि कैसे ये सब उनके स्वास्थ्य से जुड़ा एक अहम मुद्दा है। रिसर्च बताती है कि समावेशी सेक्स एजुकेशन युवाओं को एक संवेदनशील, सामाजिक अडल्ट्स बनने में मदद करता है।
भारत में सेक्स एजुकेशन क्यों बेहद ज़रूरी है?
नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक भारत में 27 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से पहले ही हो जाती है और फिर ये लड़कियां छोटी उम्र में ही माँ भी बन जाती हैं। क्या आप जानते हैं कि दुनियाभर में होनेवाली 11 फीसदी टीनएज प्रेग्नेंसी भारत में होती है। एक सर्वे के मुताबिक 71 परसेंट लड़कियों को पीरियड्स आने के पहले ये तक नहीं पता होता कि पीरियड्स होते क्या हैं। एक और स्टडी बताती है कि भारत में ज्यादातर लोगों का पहला सेक्स हमेशा असुरक्षित ही होता है।
ये सिर्फ 2 आंकड़े हैं, जो इस बात पर ज़ोर डालते हैं कि भारत को सेक्स एजुकेशन की कितनी ज़रूरत है। प्रेग्नेंसी, पीरियड्स, प्यूबर्टी इन सारी बातों को हमेशा ही हमारा समाज शर्मिंदगी से जोड़ता आया है लेकिन यही शर्मिंदगी आगे चलकर इन गंभीर आंकड़ों में बदल जाती है। हमारा रूढ़िवादी समाज इन्हें स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा मानने से हमेशा ही इनकार करता आया है।
इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री की एक स्टडी से पता चला है कि भारत में अधिकतर पेरेंट्स और टीचर्स अपने बच्चों के साथ सेक्सुअल हेल्थ और सेक्सुअलटी के बारे में कुछ भी चर्चा नहीं करते हैं। वे हिचकिचाते हैं, क्योंकि उनके पास भी अक्सर इस पर बात करने के लिए सही रिसोर्स और तरीका नहीं होता। यही सोच हमारे घरों से होती हुई, स्कूल, कॉलेजों और यहां तक कि सरकार तक पहुंच जाती है तभी तो भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री रह चुके डॉ हर्षवर्धन तक ने कहा था भारत के स्कूलों को सेक्स एजुकेशन बैन कर देना चाहिए बाद में उन्होंने सफाई दी थी कि उन्हें बस दिक्कत वल्गैरिटी से है! सेक्स एजुकेशन को लेकर ये चुप्पी, शर्म और दकियानूसी सोच सेक्स एजुकेशन की राह में सबसे बड़ी रुकावट है।
बात जब हम सेक्स एजुकेशन की करते हैं तो इसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ स्कूल या शिक्षण संस्थानों की नहीं होती। इसमें पेरेंट्स, समुदाय, सरकार सभी की एक अहम भूमिका होती है। सेक्स एजुकेशन से जुड़ी ज़रूरी ऑनलाइन और ऑफलाइन रिसोर्सेज़ की ज़रूरत होती है। इस पर लगातार बात करने की ज़रूरत होती है एक सुरक्षित माहौल में।
सेक्स एजुकेशन के आस-पास एक समावेशी करिकुलम बनाने की ज़रूरत है जो अधिक से अधिक लोगों की पहुंच में हो। साथ ही ज़रूरत है कि हम इस सोच से बाहर निकलें कि क्या इन मुद्दों पर बात न करने या चीज़ों को छिपाने से क्या लोग सेक्स, सेक्सुअलिटी और अपने शरीर से जुड़ी चीज़ों के बारे में जानना छोड़ देंगे? तो बेहतर तो यही होगा कि वे ये सारी जानकारियां एक भरोसेमंद सोर्स से प्राप्त करें!