समाजखेल व्हीलचेयर बास्केटबॉल ने कैसे बदली साक्षी चौहान की ज़िंदगी

व्हीलचेयर बास्केटबॉल ने कैसे बदली साक्षी चौहान की ज़िंदगी

साक्षी चौहान एक व्हीलचेयर बास्केटबॉल खिलाड़ी हैं। वह उत्तराखंड के ऋषिकेष की रहने वाली हैं। अपने करियर की शुरुआती समय में ही वे कई उपलब्धियां अपने नाम कर चुकी हैं। वे नैशनल बास्केटबॉल व्हीलचेयर चैंपियनशिप 2019 और एशिया ओशियाना चैंपियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं।

साक्षी चौहान एक व्हीलचेयर बास्केटबॉल खिलाड़ी हैं। वह उत्तराखंड के ऋषिकेश की रहने वाली हैं। अपने करियर की शुरुआत में ही वह कई उपलब्धियां अपने नाम कर चुकी हैं। वह नैशनल बास्केटबॉल व्हीलचेयर चैंपियनशिप 2019 और एशिया ओशियाना चैंपियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। नौ साल की उम्र में एक सड़क दुर्घटना में साक्षी ने अपना पैरा गंवा दिया था जिसके बाद से वह व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने लगी थी।

साक्षी को खुद यह बात स्वीकार करने में एक लंबा समय लगा कि वह पर्सन विद डिसेबिलिटी की श्रेणी में आती हैं। इस बात को स्वीकार करने में स्पोर्ट्स ने उनके लिए एक बड़ी भूमिका निभाई है। वर्तमान में साक्षी एनसीपीईडीपी (नैशनल सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ इम्पलॉयमेंट फॉर डिसेब्लड पीपल) में एक फेलोशिप भी कर रही हैं। यह संस्था विकलांग लोगों के लिए काम करती है। साक्षी बीते कुछ समय से चोटिल हैं जिस वजह से खेल से दूर हैं। लेकिन जल्दी ही वह अपनी वापसी की उम्मीद रखती हैं। एक व्हीलचेयर बास्केटबॉल चैंपियन बनने से लेकर विकलांग लोगों के खेल और अन्य मुद्दों पर फेमिनिज़म इन इंडिया ने साक्षी चौहान से बात की।

फेमिनिज़म इन इंडियाः आपको कब लगा कि आपको स्पोर्ट्स में जाना है? यह सफर कब शुरू हुआ?

साक्षी चौहानः बचपन से ही मुझे खेलने का बहुत शौक था। मैं एक एक्टिव स्टूडेंट थी। सिर्फ पढ़ाई ही नहीं बल्कि खेल और हर चीज़ में आगे रहती थी। लेकिन ऐक्सीडेंट के बाद मेरा खेलना बिल्कुल बंद हो गया। इस घटना के बाद में बहुत अलग-थलग महसूस करती थी किसी से ज्यादा घुलती-मिलती नहीं थी।

फिर कॉलेज के बाद मैं किसी से मिली। वह महाराष्ट्र की टीम के लिए खेलते थे। उन्होंने मुझे कहा कि साक्षी तुम खेलना क्यों नहीं शुरू करती। ऐसा होता है न कि आप जो चीज़ ढूंढ रहे थे और वह आपको मिल जाए तो मेरे लिए यह मुलाकात बस ऐसी ही थी। फिर मैंने उनसे पूछा कि ये कैसे होगा, कहां से शुरू करना होगा। इस तरह से खेलों में मेरा सफ़र शुरू हुआ और यहीं से मैं डिसेबिलिटी ग्रुप से जुड़ी।

फेमिनिज़म इन इंडियाः अपने खेल की ट्रेनिंग के बारे में कुछ बताइए। आपने शॉटपुट और जैवलीन में भी मेडल जीता है, इसके बारे में कुछ बताइए। 

साक्षी चौहानः जैसे ही मैं पर्सन विद डिसेबिलिटी के ग्रुप से जुड़ी तो बहुत सारे लोगों से मिली। इससे पहले मैं किसी भी पर्सन विद डिसेबिलिटी के संपर्क में नहीं थी। मैं ऐसे इलाके से आती थी जहां मुझे लगता था कि यहां में अकेली इंसान हूं जो विकलांग है। जैसे ही मैंने बास्केटबॉल खेलना शुरू किया मेरा विकलांग लोगों के साथ फ्रेंड सर्कल भी बढ़ता रहा। मैं ज्यादा लोगों को जानने लगी। तब मैंने पहला नैशनल खेला तो मैं बहुत नयी थी जिसको ज्यादा कुछ आता नहीं था लेकिन नैशनल खेलने के बाद मेरे वहां पर कुछ कॉन्ट्रेक्ट बने तो उन्होंने फोन किया कि स्टेट इवेंट शुरू होने वाले है चलो खेलकर आते है तो वहां मैंने जैवलीन और शॉटपुट भी ट्राई किया और मैं खुशकिस्मत थी कि मुझे मेडल भी मिले। लेकिन बॉस्केटबाल से ही मैंने शुरू किया था और आगे भी उसी में ही रहूंगी।  

अपने एक्सीडेंट के बाद मैं लंबे समय तक अपनी विकलांगता को स्वीकार ही नहीं कर पाई कि मैं विकलांग हूं। मैं अपनी विकलांगता को छिपाती थी।

फेमिनिज़म इन इंडियाः पहला टूर्नामेंट खेलते समय आपको कैसा महसूस हुआ था। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के आयोजन को लेकर आपके कैसे अनुभव रहे।

साक्षी चौहानः दरअसल पहली बार जब खेलने की शुरुआत हुई थी तो मैं खेल को लेकर ज्यादा सीरियस भी नहीं थी। बस मुझे लगता कि खेलना है लेकिन वो कंपीटिशन की तरह नहीं था। मैं अपनी जगह से बाहर निकलना चाहती थी तो मुझे ऐसा लगा कि खेलेंगे, मस्ती करेंगे। बचपन में जैेसे होता है ना कि आपके लिए खेल केवल मस्ती होती है आप उसे किसी प्रतियोगिता की तरह नहीं लेते तो मेरे लिए भी वहीं था। उस समय नैशनल तमिलनाडु में हो रहे थे, मुझे लगा था कि वहां जाने को मिलेगा। खेल के साथ-साथ घूमने को भी मिलेगा। उत्तराखंड की कोई टीम नहीं थी तो मैं हरियाणा की तरफ से खेल रही थी। लेकिन हरियाणा से नहीं होने की वजह से मेरी उनके साथ कोई प्रैक्टिस नहीं हो पाई थी। मैं अपनी टीम को सीधे नैशनल में मिली थी। पहला मैच हुआ, दूसरा हुआ और टीम हार गई। पूरे नैशनल से हम बाहर हो गए और मैं सोचती की अब क्या करना है चले चार दिन घूमेंगे तो ये मेरा खेलों को लेकर उस समय मेरा रवैया था। लेकिन बाद के उन चार दिनों में मैंने बहुत सारे मैच देखें। इसके बाद फिर होता है ना कि आप बहुत अच्छे खिलाड़ियों को देखते हो, उनको व्हीलचेयर यूज करते हुए देखते हो तो आपको बहुत अच्छा महसूस होता है। मैं सोचती हूं कि मैं भी यहां हूं और मेरा मकसद केवल घूमना है।

जब मैंने वहां आखिरी दिन तमिलनाडु और महाराष्ट्र के बीच फाइनल मैच देखा था तो उसके बाद सबकुछ बदल गया। इस मैच में महाराष्ट्र जीता और तमिलनाडु हारा लेकिन वहां जो जीता वे लोग रो रहे थे और जो हारे वे भी रो रहे थे। मैं कहती हूं कि उस सीन ने मुझे बदल दिया। फिर मुझे एहसास हुआ कि ये लोगों के लिए खेल कितना महत्व रखता है और मैं क्या सोच रही हूं। लोगों में इतनी ज्यादा खेल भावना है। वे भावनात्मक रूप से अपने खेल से कितने जुड़े हुए हैं। लोग सालों साल प्रैक्टिस करते हैं और उसके बाद मैं खुद से कहती कि मैं बहुत ही ध्यान देकर खेलूंगी। इस साल भले ही मैंने कुछ नहीं जीता है लेकिन अगली बार पूरी तैयारी के साथ खेलूंगी और कुछ न कुछ तो मेडल लेकर ज़रूर आऊंगी। ये सब सोचकर मैं वापस घर आई थी। एक तरह से मेरी खेलों में मेरा सफ़र अब शुरू हुआ था और मैंने तय कर लिया था कि मुझे कुछ करना है। यह मेरा पहला अनुभव था।

इसके बाद मेरा एक प्रैक्टिस कैंप के लिए चयन होता है। वहां मेरे कोच ने मेरे अंदर कोई खूबी देखी होगी और उन्होंने कैंप के आखिरी दिन मुझसे कहा कि साक्षी आप महाराष्ट्र के लिए खेलेंगी क्या। महाराष्ट्र की टीम सबसे बेहतर टीम थी तो मुझे फिर क्या ही चाहिए था। मैंने सोचा था कि मेरा भी नाम होगा और वो मुझे मिला कि मैं खुद ही महाराष्ट्र की टीम का हिस्सा बनी। उसके बाद मैंने सीरियस होकर खेलना शुरू किया। टीम के साथ प्रैक्टिस के लिए मैं मुंबई आ गई। वहां सबकुछ बहुत अच्छा था। सारे कोच बहुत मदद करते थे, सारे खिलाड़ी भी एक-दूसरे का बहुत ख्याल रखते थे। हम अगले नैशनल के लिए गए और इसमें हमने गोल्ड मेडल जीता। हां जब मुझे महसूस हुआ कि हां मैंने कुछ किया है पिछली बार मैं सिर्फ घूमने के मकसद से बेफ्रिकी में आ गई थी और इस बार मैं अपने खेल को लेकर बहुत गंभीर थी।

नैशनल ट्राफी के साथ साक्षी चौहान

इसके बाद क्या आता है कि महाराष्ट्र की टीम तो पहले सी ही सबसे बेहतर थी और उसमें आपका क्या योगदान है मुझे ऐसा लगा। लेकिन बाद में मेरा चयन भारत की टीम में हुआ। यहां पूरे देश के खिलाड़ियों को मिलाकर एक टीम बननी थी और उसमें मेरा नाम होना, फिर लगा कि हाँ मैंने कुछ किया है। मैं अपने देश के लिए खेल रही हूं। दूसरे देशों में जाकर अपनी देश के नाम से खेलना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। साल 2021 में मुझे पहले बार देश की तरफ से प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। आप विदेश में जाकर दुनिया के बेहतरीन खिलाड़ियों के साथ खेलते हैं उनके साथ मुकाबला करते है तो सच में बहुत अच्छा लगता है। सारे देशों के झंड़ों में अपने देश का झंड़ा ढूढ़ते हो और आपका राष्ट्रीय गीत बजता है तो उस वक्त जो महसूस होता है उसे शब्दों में कहना भी मुश्किल है। दरअसल जब हम देश में होते हैं तो ये सब महसूस नहीं होता है लेकिन जब बाहर जाते है तो अपनी चीजों का महत्व समझ में आता है। 

अगर सुविधाओं को लेकर बात करें तो नैशनल लेवल पर ही तो पहली चुनौती तो पहुंच (एक्सेसबिलिटी) और सहजता का लेकर आती है क्योंकि सारे विकलांग खिलाड़ी आ रहे हैं तो उनकी सहजना का ध्यान रखना ज़रूरी है। सच कहूं तो ये हमें चाहिए भी क्योंकि लोग अगर बारह घंटे खड़े हैं तो हम लोग नहीं हो पाएंगे। लोग अगर सीढ़ियों से जा रहे हैं तो हम लोग भी जा पाएंगे ऐसा तो नहीं हो सकता है। हम अगर अपने फेडरेशन की बात करे तो उनको लोगों की प्रैक्टिस के लिए ग्राउंड भी देखना पड़ेगा, होटल या हॉस्टल भी देखना पड़ेगा लेकिन अगर बिल्डिंग ही एक्सेसबल नहीं है तो वो लोग क्या करेंगे। सच कहूं तो हम लोगों के लिए बहुत बजट नहीं मिलता है वो खिलाड़ियों को बड़े होटल में रखे जा सारी तरह की पहुंच और सुविधा हो। बजट और एक्सेसबिलिटी की तो बहुत समस्या है। बहुत सारे खिलाड़ी बहुत परेशानी का सामना करते हैं। तब हमारे फेडरेशन की लता मैम थी जो खुद एक व्हीलचेयर यूजर थी और वह खुद जाकर देखती थी कि जगह विकलांग के लिए पहुंच में है या नहीं। क्योंकि उन्हें भी खुद परेशानी का सामना करना पड़ता था। जब कोई विकल्प ही ना होता फिर उसी में काम चलाना पड़ता है।

अगर इसके मुकाबले अंतरराष्ट्रीय स्तर की बात करें तो वहां जाकर लगता है कि जैसे आप एक आजाद पंछी हो। आपको खाना खाने जाना है वो पहुंच में होगा, आपको बाहर जाना है वो पहुंच में होगा, वॉशरूम पहुंच में होगा हर चीज विकलांग लोगों तक पहुंच में है। वहां जाकर बस से भी सफर कर सकते हैं। ये तो एक तरह से यह भी दिखाता है कि देश में विकलांग लोगों को लेकर किस तरह से सोचा जाता है। हमारे आरपीडब्ल्यूडी एक्ट के मुताबिक पांच साल में सबकुछ एक्सेसबल हो जाना चाहिए था। पुराना जितनी भी इमारतें है वे सबकी पहुंच तक हो और नये तो इस सोच से बनाने ही है। ये 2016 में पास हुआ था और 2021-22 डेडलाइन थी। कितना बदलाव आया ये आपके सामने है। हमारे यहां नियम है, दिशा-निर्देश है लेकिन उन पर अमल नहीं होता है।

जब आप खेलना शुरू करते है तो आपको कुछ नहीं मिलता है। आप पूरी तरह अपने पर्सनल स्पॉन्सर पर निर्भर रहते है। उसके लिए अलग-अलग संस्थाओं में मदद के लिए गुहार लगाते है। किसी से टिकट चाहिए होता है किसी से किट के लिए किसी इक्विपमेंट के लिए गुहार लगाते है। इक्विपमेंट बहुत महंगे आते हैं।

प्रैक्टिस के बाद खिलाड़ी वापस अपने घर जाता है। पूरे साल उसे वहां अपने घर के पास के मैदान में जाकर प्रैक्टिस करनी पड़ती है। तभी तो वो जाकर नैशनल में अच्छा खेल पाएगा। लेकिन उसके घर से लेकर ग्राउंड तक उसकी सहज पहुंच नहीं है। आप ऑटो से नहीं जा सकते, आप बस से नहीं जा सकते, कार आपके पास नहीं है। सौ में से एक-दो प्लेयर ही होते होंगे जिनके पास आर्थिक तौर पर चीजें उपलब्ध होती है। बाकी खिलाड़ियों का क्या और फिर खिलाड़ी को एक साहयक भी चाहिए होता है। और क्योंकि वो प्रैक्टिस भी औरों के हिसाब से करनी पड़ती है। फिर छोटे शहरों में तो किसी प्राइवेट इंस्टीट्यूट या स्कूल की जगह पर प्रैक्टिस करनी पड़ती है। वहां जब उनका प्रोग्राम चलता है तो फिर छुट्टी लगती है। अगर मैं ऋषिकेश की ही बात करूं तो वहां पर कोई सरकारी कोर्ट नहीं है। मैं खुद एक स्कूल कोर्ट में प्रैक्टिस करती थी। फिर स्कूल की अपना समय होता है। उनके कार्यक्रम होते है। उसके हिसाब से मुझे टाइम मिलता है। इन सब चीजों का प्रैक्टिस पर असर पड़ता है और फिर इसका रिजल्ट खेल में दिखता है। क्योंकि जब खिलाड़ी घर जाता है ना तो वहां उसके लिए अपने खेल को जारी रखने बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।  

फेमिनिज़म इन इंडियाः महिलाओं से अक्सर कहा जाता है कि खेल उनका क्षेत्र नहीं है। खेलों में विकलांग महिला खिलाड़ी होने के नाते आपने क्या महसूस किया?

साक्षी चौहानः ये बहुत गहरा सवाल है और इसमें ना बहुत सारी चीजें जुड़ी हैं। जो लोग ये कहते हैं ना ये बहुत बुरी बात है और बाद में हालातों की वजह से सच भी हो जाता है। विकलांग और एक लड़की होना बहुत मुश्किल है। मैं समान पहुंच की ही बात करती हूं। एक बार हम महाराष्ट्र कैंप के लिए जा रहे थे। मैं और मेरी एक दोस्त ट्रेन से जा रहे थे। अब हमारी आर्थिक स्थिति इतनी बेहतर नहीं है कि हम अपने साहयक का भी खर्चा उठा पाए। ऐसे में हमारे पास अकेले जाने का विकल्प बचता है। उस सफर में लोगों ने हमें पूरे रास्ते बस यही कहा कि आपको तो किसी को अपने साथ लाना था, कुछ हो जाएगा तो कौन जिम्मेदारी लेगा, आप अकेले कैसे आ गए। इस तरह की बातें हमारे साथ की गई। जब हम उतर रहे थे तो हमें बहुत परेशानी हुई। 

एक और घटना मैं आपके साथ शेयर करना चाहूंगी। एक तो ट्रेन से सफर करना आसान होता है जब आपको पैसे नहीं मिल रहे होते है। जब एक व्हीलचेयर इस्तेमाल करने वाली लड़की किसी से मदद मांगती है तब क्या होता है। वह औरत से मदद मांग ले ये मुश्किल भरा है क्योंकि वह किसी को उठा ले ये मुमकिन नहीं है। अगर किसी आदमी से मदद मांगती है तो कई बार उसका इरादा गलत निकल जाता है। कई बार ऐसा हुआ है कि किसी आदमी से मदद मांगी है तो लड़कियों को बहुत असहज महसूस करवाया गया है। इस पर अगर कोई कुछ बोलती है तो उन्हीं को कहा जाता है कि एक तो आप लोगों की मदद करो और ऊपर से सुनो। ये सब चीजें एक इंसान को उस लेवल पर ला देती है कि वहां आप किसी से मदद के लिए भी नहीं कह सकते है। तो फिर ऐसी बातें सच हो जाती है। ये समाज की वजह से होता है। मेरे साथ भी बहुत ऐसे लोग थे जिनके परिवार ने उन्हें पहले नैशनल में भेजा और दूसरे नैशनल में मना कर दिया। लड़की का खेलने का मन होता है लेकिन ये सब चीजें उसे रोक देती है।

लड़कियां क्यों ज्यादा खेन नहीं पाती है। दूसरा हमारी जो भारतीय टीम उसकी बात करूं तो उसमें कुछ लड़कियों की शादी हो गई। पहले लड़कियां अपने माता-पिता के साथ रहती थी उन्हें वही परमिशन लेने में बहुत परेशानी होती है और शादी के बाद तो ये बहुत ज्यादा बढ़ जाता है। लड़कियों से कहा जाता है कि एक तुम विकलांग हो अब शादी हो गई है घर संभालो। ये सब वजह है कि हमारी एक अच्छी टीम भी कमजोर हो जाती है। कई लड़कियां खेलने के लिए इतनी उत्साहित रहती हैं लेकिन उनके सामने ऐसी स्थिति बना दी जाती है। लोग कहते हैं ना कि लड़कियों का खेल नहीं है तो लड़कियों का तो खेल है लेकिन लोग रहने नहीं देते है। लोग ऐसी स्तिथि बनाते हैं और कहते हैं कि लड़कियां कहां खेल सकती है।

अभी ओलंपिक में आप देखिए रेगुलर गेम में एक गोल्ड मेडल था और पैरा में ये नंबर पांच था लेकिन फिर भी नीरज को जो नेम और पैसा मिला वो उन पांचों को मिलाकर भी नहीं मिला। मैं ये नहीं कह रही कि नीरज को नहीं मिलना चाहिए था वो डिस्जर्व करता है लेकिन साथ में पैरा प्लेयर को भी मिलना चाहिए।

फेमिनिज़म इन इंडियाः क्या देश में आज भी नॉन-डिसेबल्ड खेलों की तुलना में बाकी स्पोर्ट्स को बेहद दया या सहानुभूति के नज़रिये से देखा जाता है? 

साक्षी चौहानः पहला ये जो देखने का नज़रिया है ना वो लोगों का बहुत खराब है और इसका हर विकलांग इंसान की जिंदगी में बहुत बुरा असर पड़ता है। ऐसा क्यों हैं मैं आपको अपनी बात से बताती हूं। अपने एक्सीडेंट के बाद मैं लंबे समय तक अपनी विकलांगता को स्वीकार ही नहीं कर पाई। मैं अपनी विकलांगता को छिपाती थी। कॉलेज तक मैंने कभी क्रंचिस इस्तेमाल नहीं किया व्हीलचेयर इस्तेमाल नहीं किया। मैं छिपाने की कोशिश करती थी क्योंकि मुझे अपने लिए वो नज़रिया नहीं चाहिए था जिस नज़र से मैंने विकलांग लोगों को देखते हुए अन्य लोगों को देखा है। मैं खुद के लिए वैसी नज़रे नहीं चाहती थी। पैरा खेलों को भी बहुत बुरी, दया की नज़र से देखा जाता है। खेल हो रहे है उनको खाना दे आओ केवल केवल एक चैरिटी की तरह बर्ताव किया जाता है उनकी मेहनत की कोई कद्र नहीं थी।

एक बार मुझे याद है कि मेरे स्कूल टाइम में किसी ने कहा था कि पैरा खेल हो रहे है तुम खेलो तो मैंने तुरंत मना कर दिया था। कॉलेज के बाद जब मैंने खेल में आने के बाद और लोगों को देखा कि वे कितने आत्मविश्वास से भरे हैं तो मेरे अंदर बदलाव आया। लोगों का नज़रिया जाने-अनजाने में आपके ऊपर असर करता है जिससे हम बहुत प्रभावित होते हैं। दूसरा रेगुलर गेम बहुत प्रसिद्ध है। लोगों को अभी भी लगता है कि ठीक है पैरा गेम भी क्या है, ये खेल रहे हैं इनको सांत्वना दो और ये भी चैरिटी मॉडल है। लेकिन उनको ये नहीं लगता है कि अगर एक नॉन डिसेब्ल और विकलांग व्यक्ति प्रैक्टिस कर रहा है ना तो एक पैरा खिलाड़ी ज्यादा मेहनत करता है। विकलांग व्यक्ति तो पहले से परेशानी का सामना कर रहा है। उसको आने में परेशानी हुई होगी, उसको जाने में हुई होगी, उसको खड़े रहने में भी परेशानी है और वो प्रतियोगिता में खड़ा हो रहा है। इसलिए मुझे लगता है कि ज्यादा कोशिश तो विकलांग व्यक्ति की हुई। तो आप ऐसे कैसे देख सकते हो कि वह इंसान कुछ नहीं कर रहा। मतलब जहां लोग चार घंटे खड़े रह सकते हैं मैं केवल दो घंटे ही खड़ी रह सकती हूं और मैं मैडल लेकर पर आती हूं तो मैं कुछ न कुछ तो अपनी कोशिशें कर रही होंगी ना। 

तस्वीर में साक्षी चौहान।

मैं व्हीलचेयर बास्केटबॉल की ही बात करती हूं तो आपने देखा होगा कि इस खेल में खिलाड़ियों की लंबाई बहुत ज्यादा होती है। लेकिन व्हीलचेयर बास्केटबॉल में हम लोगों की लंबाई तो बिल्कुल ही खत्म हो जाती है। दूसरा जब बास्केट के लिए जम्प करना होता है तो हम जम्प भी नहीं कर सकते हैं। याद रखिए हमारे लिए भी खेल में बास्केट की ऊंचाई का समान नियम है। वो लोग बाउंड्री के अंदर से शॉट लेते हैं हम लोगों का इतना सारा व्हीलचेयर हो जाता है तो हमें बाहर से शॉट लेना पड़ता है। इन सबमें हमें बॉल भी देखना है, व्हीलचेयह भी कंट्रोल करना है, बास्केट भी करना है। अब आप मुझे बताइए की किसकी कोशिशे ज्यादा थी। हम लोगों को अपनी ताकत बढ़ानी होती है क्योंकि हमारे पास लंबाई नहीं है, कूद नहीं सकते है, जहां बैठे है वहीं से बॉल पहुंचाना होता है। हमारी टीम ऐसे खिलाड़ी भी हैं जो हाफ कोर्ट से बॉल उठाते है। मुझे लगता है कि लोगों को ये एफर्ट नहीं दिखते है, उनका गेम नहीं दिखता है उन्हें यहां सिर्फ विकलांगता दिखती है।

अभी ओलंपिक में आप देखिए रेगुलर गेम में एक गोल्ड मेडल था और पैरा में ये नंबर पांच था। लेकिन फिर भी नीरज को जो नाम और पैसा मिला वो उन पांचों को मिलाकर भी नहीं मिला। मैं ये नहीं कह रही कि नीरज को नहीं मिलना चाहिए था वो योग्य है लेकिन साथ में पैरा खिलाड़ियों को भी मिलना चाहिए। ओलंपिक का गोल्ड तो गोल्ड है। पैरा खेलों में यहां कुछ नहीं माना जाता है। जब आपका इन्फ्रास्टक्चर खराब है, आप ज्यादा महत्व नहीं देते हो उनकी प्रैक्टिस पर पैसा खर्च नहीं करते है, उन्हें नैशनल जाने तक के लिए पैसा नहीं मिलता है। वो टोटल 38 मेडल लेकर आते हैं तो कुछ करना चाहिए ना। फिलहाल के जो प्रधानमंत्री हैं उन्होंने इतना किया कि रेगुलर खिलाड़ियों के साथ पैरा खिलाड़ियों को भी बुलाया उनको सम्मान दिया तो ये थोड़े-थोड़ी सी कोशिशे है जो अच्छी लगी। ये सबको करना चाहिए। वैसे अभी पैरा खेलों के कल्याण के लिए अभी बहुत कुछ होना बाकी है।

फेमिनिज़म इन इंडियाः पैसों और सुविधाओं को लेकर विकलांग खिलाड़ियों को क्या किसी तरीके के भेदभाव का सामना करना पड़ता है?

साक्षी चौहानः पहला तो ये ना काफी ज्यादा ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्होंने नैशनल खेला है जिनके पास नौकरी नहीं है लेकिन रेगुलर खेलों में ऐसा होता है कि नैशनल वाले खिलाड़ियों को आसानी से नौकरी मिल जाती है। पैरा खिलाड़ी को नहीं मिल रहा है। जबकि नॉन डिसेब्लड खिलाड़ी के पास दस अलग से विकल्प है। पैरा खिलाड़ियों के पास विकल्प नहीं है क्योंकि साधनों की कमी है। कम से कम सरकार को तो यहां कदम उठाने चाहिए। अब जब पैरा खिलाड़ियों के पास नौकरी नहीं है, पैसा नहीं है और उनको प्रैक्टिस भी जारी रखना है तो ऐसे में इंसान निराश ही हो सकता है। अगर आप हमारे नैशनल खेलों की विजेता धनराशि को देखेंगे ना वो भी बहुत कम होती है। हमारे एक गोल्ड मेडल की प्राइज मनी पचास हजार थी और टीम में बारह खिलाड़ी है और मैनेजमेंट भी है। बहुत दूर गेम हो रहे थे तो सब लोग फ्लाइट लेकर आए है। जितना लोगों के हिस्से आ रहा है ना वो तो एक तरफ के टिकट का भी नहीं निकल पाता है। आपको नौकरी नहीं मिल रही है, आपको पैसा नहीं मिल रहा है तो फिर खेलने की क्या समझ बनती है। बाकी खेलों में क्या होता है कि अगर आप क्लब के लिए भी खेल रहे है तो आपको हर दिन का पैसा मिलता है वहां हार-जीत भी मायने नहीं करती है। जीता हुआ पैसा तो अतिरिक्त होता है। बस मैं ये कहती हूं कि जब मैं रेगुलर खेलों का सम्मान करती हूं तो पैरा खेलों की भी तो होनी चाहिए ना। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः एक खि़लाड़ी की ट्रेनिंग में बहुत अधिक पैसा लगता है। सरकार की तरफ से इस दिशा में आपको कितनी मदद मिली?

साक्षी चौहानः जब एक खिलाड़ी खेलना शुरू करता है ना तो उसकी कोई मदद नहीं करता है। कोच भी आपकी मदद करनी तब शुरू करते है जब उनको लगता है कि इसमें खेल है। उससे पहले कोच भी आपकी कोई मदद नहीं करते है। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि कोच के पास खुद नहीं है। उनके पास सीमित संसाधन है। वे गोल्ड लेने वाले खिलाड़ियों पर उसे लगाने की ज्यादा कोशिश करते हैं। मैं यहां टीम गेमों की बात करती हूं। शुरुआत में आप पूरी तरह अपने निजी स्पॉन्सर पर निर्भर रहते है। उसके लिए अलग-अलग संस्थाओं में मदद के लिए गुहार लगाते है। किसी से टिकट चाहिए होता है, किसी से किट के लिए किसी इक्विपमेंट के लिए गुहार लगाते है। इक्विपमेंट बहुत महंगे आते हैं। मेरा खुद का व्हीलचेयर साढ़े चार लाख का है। ये बहुत बड़ी रकम है और इसकी उम्मीद आप किसी से नहीं कर सकते है। बावजूद इन सबके किसी आउटसोर्स पर निर्भर रहना पड़ता है क्योंकि फेडरेशन के पास है नहीं और सरकार देती नहीं है। ज्यादातर समय तो ये सोचने में लग जाता है कि मैं कहां से अपने कॉन्टेक्ट बनाऊ। इन सब चीजों में वक्त बर्बाद होता है। काफी ज्यादा खिलाड़ी नौकरी नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन्हें प्रैक्टिस करना है। उस प्रैक्टिस के लिए भी उसे ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ता है। आर्थिक स्तिथि और कुछ न मिलने की वजह से लोग खेल छोड़ देते हैं। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः विकलांग खिलाड़ियों को लेकर योजनाओं के बारें में आप क्या राय रखती है?

साक्षी चौहानः मैं फिलहाल एक्सेबिलिटी पर काम कर रही हूं इस वजह से हमने बजट और अन्य चीजों पर ध्यान देना शुरू किया है। अगर आप हकीकत जानेंगे ना तो हैरान हो जाएगें। 100 रुपये की ज़रूरत है तो 80 आ रहा है। अगली बार बजट में कम से कम 150 मांगना चाहिए ना तो वहां 80 की ही मांग की जाती है। अब ये क्या समझ है कि अगर आपके 80 खर्च हुए है तो आप को कम से कम 120 तो मांग सकते है ना। कोई लॉजिक नहीं है कोई योजना नहीं है। उन स्कीमों में भी कई बार तो ऐसा होता है कि ट्रेनिंग पर पैसा खर्च होना दिखा दिया जाता है लेकिन ये पैसा किस पर खर्च हुआ है, वे बच्चे क्या कर रहे हैं, ट्रेनिंग से उनको क्या फायदा हुआ है इसका कुछ नहीं पता होता है। कई बार क्या हुआ है कि ट्रेनिंग के पैसे भी वापिस जा रहे हैं वो खर्च ही नहीं हो पाते है। ऐसा नहीं है कि विकलांग लोगों को ज़रूरत नहीं है। लोगों को जानकारी नहीं है। मैं अब पढ़ाई कर रही हूं तो मुझे मालूम है, लोग मेरी मदद कर रहे है। धरातल पर योजनाओं की जानकारी नहीं है। पंचायत स्तर पर जानकारी देनी चाहिए लेकिन वहां नहीं दी जाती है। ऐसा नहीं है कि योजनाएं नहीं है। दो-चार जो भी है उनका प्रचार भी नहीं हो रहा है। जो पैसा खर्च हो रहा है, वह कहां खर्च हो रहा है उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है तो इसका क्या फायदा। जमीन पर विकलांग लोगों के लिए कुछ नहीं बदला है।

तस्वीर में साक्षी चौहान।

फेमिनिज़म इन इंडियाः खेल को अपने निजी विकास के तौर पर आप कैसे देखती है?

साक्षी चौहानः  मैं अपने सफर को ना अर्श से फर्श तक का मानती हूं क्योंकि मैंने खुद को स्वीकार करना शुरू किया। मैंने क्रंचिस यूज करना शुरू किया, व्हीलचेयर यूज करना शुरू किया। मेरे अंदर आत्मविश्वास आया कि मैं भी कुछ हूं और इसने सब कुछ बदला है। इससे पहले मैं एक सीमित दायरे में रहने वाली इंसान थी जो ज्यादा किसी से बात नहीं करती थी। अब मुझे पता है कि मैं एक देश का प्रतिनिधित्व करती हूं। मैं बाकी भी काम कर रही हूं उसमें में से मुझे ये भी देखना है कि क्या सही है क्या गलत है। मैं घूमने भी जा रही हूं, खेल रही हूं। ये जो एक्सपोजर मिला है ना इसने मुझे बहुत ज्यादा बदला है। अगर खेल नहीं होता तो शायद मैं देहरादून में होती वहां एक छोटी सी नौकरी कर रही होती और मैं ये सोच रही होती कि मैं आगे कैसे करूंगी। खेल ने मुझे पूरी तरह बदल दिया है। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः आगे आपकी क्या योजनाएं हैं?

साक्षी चौहानः फिलहाल मैं एक चोट का सामना कर रही हूं जिस वजह से मैं अपना दूसरा अंतरराष्ट्रीय भी नहीं खेल पाई थी। मुझे इस साल नैशनल खेलना है लेकिन अबतक मैं इससे ठीक नहीं कर पाई हूं। अब इसमें भी सवाल है कि जब एक पैरा एथलीट को चोट लगती है तो उसके पास केवल आपके कोच और निजी कॉन्टेक्ट से ही काम चलाना पड़ता है। अब मेरे मामले में मेरे जो कोच है उनके कॉन्टेक्ट के ज़रिये मुझे इलाज के लिए आर्थिक मदद मिली है। लगभग दो साल होने वाले है मेरा इलाज चल रहा है। इसलिए हमें सपोर्ट की बहुत ज़रूरत है। किसी और चीज़ के लिए नहीं कम से कम एक पैरा खिलाड़ी को चोट लग रही है तो उसके लिए बहुत अच्छी योजना बननी चाहिए। क्योंकि पैरा खिलाड़ी पहले से ही परेशानी का सामना कर रहे होते हैं। यहां सरकार को कम से कम खेलों में लगी चोट के लिए तो बहुत सतर्क होना चाहिए। ये चीजें बहुत ठीक होने की ज़रूरत है। मैं तो एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने वाली खिलाड़ी हूं मेरे पास तो फिर भी बहुत मदद के विकल्प है लेकिन लेकिन जिनके करियर की शुरुआत है और उनको चोट लगती है तो उनके लिए तो चीजें होनी चाहिए। अभी डॉक्टर कह रहे हैं कि मैं नैशनल खेल पाउंगी और मुझे भी कुछ उम्मीद लग रही है कि हां अब सब ठीक हो जाएगा। वैसे भी एक खिलाड़ी बहुत ज्यादा दिन तक मैदान से दूर नहीं रहना चाहता है। मुझे भी लगता है कि अगर मैं एक आवाज़ हूं तो मुझे वहां होना चाहिए क्योंकि कुछ चीजों की वजह से तो मैं और लोगों से आगे हूं और बोल सकती हूं तो मुझे वहां जाकर बोलना चाहिए।


सभी तस्वीरें हमें पूजा राठी द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं।

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