इंटरनेट पर जैसे ही ‘ट्रांसजेंडर’ कीवर्ड डालते हैं तो हाल-फिलहाल में दो तरह की सुर्खियां नज़र आती हैं। बड़ा फैसला, खुशख़बरी ट्रांस समुदाय को मिलेगा आरक्षण, मध्य प्रदेश में सरकारी नौकरियों में ट्रांसजेंडर समुदाय को ओबीसी में आरक्षण और दूसरा बिहार में जातीय जनगणना में ट्रांसजेंडर समुदाय को बतौर जाति दर्ज किया गया है। हमेशा की तरह सरकारों ने बिना यह सोचते हुए कि ट्रांस समुदाय इस पर क्या राय रखता है, उनकी क्या मांगे हैं उनसे जुड़े फैसले ले लिए। ये दोनों ख़बरे ट्रांस समुदाय को नालसा जजमेंट के दौरान दिए अधिकारों से अलग हैं। वह ऐसे क्योंकि न तो ट्रांस समुदाय एक जाति है और दूसरा ट्रांस समुदाय में भी हर वर्ग, जाति, धर्म की पहचान रखनेवाले लोग शामिल हैं।
15 अप्रैल 2014 के दिन सुप्रीम कोर्ट ने नालसा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में फैसला सुनाते हुए ट्रांसजेंडर समुदाय को ‘तीसरे जेंडर’ के रूप में मान्यता दी थी। ट्रांस समुदाय के व्यक्तियों के ख़िलाफ़ भेदभाव, उत्पीड़न को खत्म करने और उनके अधिकारों को सुनिश्चित करने की बात कही गई थी। ट्रांस समुदाय के लोगों के लिए केंद्र और राज्य सरकार शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण प्रदान करने का निर्देश दिया था। शिक्षा और नौकरी में ट्रांस समुदाय के प्रतिनिधित्व के लिए गए इन फैसलों के ख़िलाफ़ ट्रांस समुदाय में आक्रोश है। ट्रांस समुदाय के लोगों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने हमें जो अधिकार दिया था राज्य सरकारों द्वारा लिए गए फैसले उसके ख़िलाफ़ हैं। सरकारें उनकी लैंगिक पहचान को एक जाति में कैसे सीमित कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में माना था कि लैंगिक पहचान का अधिकार जीवन की स्वायत्ता और गरिमा के अधिकार में निहित है। लोगों को अपनी लैंगिक पहचान खुद तय करने का अधिकार है। लेकिन तमान कानून और फैसलों के बावजूद भारत में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से ही ट्रांस समुदाय के लोगों की पहचान को नज़रअंदाज़ किए जाने का काम किया जा रहा है।
शिक्षा और नौकरी में ट्रांस समुदाय के प्रतिनिधित्व के लिए गए इन फैसलों के ख़िलाफ़ ट्रांस समुदाय में आक्रोश है। ट्रांस समुदाय के लोगों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने हमें जो अधिकार दिया था राज्य सरकारों द्वारा लिए गए फैसले उसके ख़िलाफ़ हैं। सरकारें उनकी लैंगिक पहचान को एक जाति में कैसे सीमित कर सकती है।
इसी कड़ी में इंडिया टुडे में छपी ख़बर के अनुसार बिहार में जाति आधारित जनगणना की प्रक्रिया में जाति की लिस्ट में 22 नंबर पर ट्रांसजेंडर लिखा है जिसका मतलब यह है कि राज्य सरकार ट्रांसजेंडर समुदाय को एक अलग जाति के रूप में शामिल कर रही है। इससे अलग मध्यप्रदेश की सरकार ने ट्रांसजेंडर समुदाय को पिछड़ा वर्ग का हिस्सा बताकर सरकारी भर्ती में 14 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की ख़बर के अनुसार राज्य में ओबीसी जातियों की लिस्ट में 93 जातियां शामिल थीं जिसमें ट्रांसजेंडर समुदाय को जाति से जोड़ते हुए 94वें नंबर पर शामिल किया है।
सरकार के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ समुदाय में नाराज़गी और विरोध
पटना निवासी समाजसेवी रेशमा प्रसाद ने फेमिनिज़म इन इंडिया से बात करते हुए कहा, “ट्रांसजेंडर कोई जाति नहीं है बल्कि जेंडर है जैसे महिला और पुरुष है। बिहार सरकार ने जो यह फैसला लिया है यह हमारे लिए तो बहुत बुरा है। यह एक गलत इतिहास लिखा जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह क्या संदेश दिया जा रहा है कि भारत में एक राज्य है जहां पर ट्रांसजेंडर को एक जाति के रूप में पहचाना जाता है। यह सच में बहुत शर्मनाक है। यह क्या हो रहा है कि आप महिला-पुरुष को एक जाति में डालते हैं तो ट्रांसजेंडर को तो एक जाति ही बना दो, मतलब हमारी पहचान को ही खत्म कर दो। फिर ट्रांसजेंडर समुदाय के आरक्षण को लेकर जो फैसले लिए जा रहे हैं वे तो और भी गलत हैं। मध्य प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु में जो फैसले लिए गए वे गलत हैं। कर्नाटक सरकार ने जो फैसला लिया वह सही है। इस तरह से जो स्थिति नालसा के पहले थी वैसी ही स्थिति बनती रही है।
रेशमा आगे कहती हैं, “हम तो बिहार राज्य सरकार के इस कदम के बाद पटना हाई कोर्ट में एक पीटिशन डालने जा रहे हैं। हमें तो अदालत से ही उम्मीद हैं। आज नहीं तो आठ-दस साल बाद भी सुनती है तो हम तो अपनी लड़ाई जारी रखेंगे। हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि हमें जेंडर के तौर पर पहचान मिले ना कि जाति के तौर पर पहचाना जाए। जेंडर के आधार पर ही आरक्षण दिया जाए। यह हमारा अधिकार है। सामाजिक तौर पर भी लोगों को एक समझ होनी चाहिए कि ट्रांसजेंडर एक जेंडर है। ट्रांसजेंडर को एक जाति बनाना उसके उन अधिकारों का हनन है जो हमने एक लंबी लड़ाई के बाद हासिल किए थे। ऐसे फैसले सरकार की अंसवेदनशीलता को दिखाते हैं। हमारे ऐसे बहुत से शब्द हैं जिसमें लोग अपनी लैंगिक पहचान को बताते हैं तो वो क्या सारे शब्द ऐसे ही हैं। ट्रांसजेंडर एक अम्ब्रेला शब्द है इसकी विविधता को समझना बहुत ज़रूरी है।”
रेशमा सरकारों के ऐसे कदम को उनके अधिकारो का हनन बताती हैं। वह राज्य सरकार के ट्रांसजेंडर को जाति की कोड लिस्ट से हटाने की मांग कर रही हैं और इसके लिए कानूनी लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रही है। उनकी मुख्य मांग यही है कि ट्रांस समुदाय को भी जेंडर की तौर पर मान्यता मिले न कि जाति बनाकार उन्हें सीमित कर दिया जाए।
ट्रांस समुदाय की क्षैतिज आरक्षण की मांग
ट्रांस समुदाय की क्षैतिज आरक्षण की मांग है जिसके अनुसार उन्हें उनके जेंडर को आधार मानकर आरक्षण दिया जाए। सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च के मुताबिक़ क्षैतिज (होरिजोनटल) आरक्षण में सभी जाति श्रेणियों में ट्रांस समुदाय के लोगों के लिए स्थान तय होगा। यह प्रत्येक वर्टिकल एससी/एसीटी/ओबीसी/सामान्य वर्ग के लिए अलग-अलग आरक्षण प्रदान करेगा। इससे एसटी, एससी, ओबीसी, और सामान्य वर्ग की मेरिट में से एक प्रतिशत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए आरक्षण प्रदान करेगा। जिस तरह से वर्तमान में महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों के लिए आरक्षण का प्रावधान है।
पटना निवासी ट्रांसजेंडर समाजसेवी रेशमा प्रसाद ने फेमिनिज़म इन इंडिया से बात करते हुए कहा है, “ट्रांसजेंडर कोई जाति नहीं है बल्कि जेंडर है जैसे महिला और पुरुष है। बिहार सरकार ने जो ये फैसला लिया है यह हमारे लिए तो बहुत बुरा है। यह एक गलत इतिहास लिखा जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह क्या संदेश दिया जा रहा है कि भारत में एक राज्य है जहां पर ट्रांसजेंडर को एक जाति के रूप में पहचाना जाता है।”
वर्टिकल आरक्षण किस तरह से अधिकारों का हनन
सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक नालसा फैसले में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए आरक्षण की बात कही गई थी। लेकिन तमिलनाडु सरकार ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को ‘मोस्ट बैकवर्ड क्लास’ (अधिक पिछड़ा वर्ग) की श्रेणी में रखा। जिस तरह से हाल में मध्य प्रदेश सरकार ने भी ओबीसी के वर्ग में ट्रांस समुदाय को सरकारी नौकरी देने की बात कही। लेकिन इस तरह का आरक्षण का तरीका ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों की अलग-अलग जातिगत पहचानों के बीच अंतर नहीं करता है। आरक्षण का यह तरीका कई मुद्दों को उठाता है। जो ट्रांस समुदाय के जो लोग एससी या एसटी कैटेगिरी के हैं वे लोग दोनों समुदाय से संबंधित होने के बावजूद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति और ट्रांसजेंडर दोनों के तहत अपने अधिकार पर दावा नहीं कर सकते। जो लोग पहले से ही ओबीसी में है उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा।
“यह मेनस्ट्रीमिंग नहीं है”
ट्रांस समुदाय के आरक्षण के सवाल पर फेमिनिज़म इन इंडिया से बात करते हुए दिल्ली की ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट जैन कौशिक का कहना है, ‘ये जो सरकारें कहती हैं कि समाज में जो ट्रांसजेंडर समुदाय को मुख्यधारा से दूर रखा गया हम उन्हें इसमें शामिल करने का काम कर रहे हैं। सरकारें जब कैबिनेट में हमसे जुड़ा फैसला लेती हैं तो वहां ट्रांस समुदाय से जुड़े कितने लोग थे। मेनस्ट्रीम में लाने के लिए अब सरकारें हमारी जेंडर की पहचान को जाति में सीमित कर रही हैं। ये मेनस्ट्रीमिंग नहीं है। अगर आपको हमें मुख्यधारा में लाना है तो सरकारी नौकरी, स्कूलों में हमें शामिल करना होगा। लेकिन इस तरह नहीं जिस तरह से सरकार फैसले ले रही है। हमें एक जाति में शामिल करना भी हमारे अधिकारों का हनन करना है।”
जैन आगे कहती हैं, “जिस समुदाय को 2014 के बाद उसको इस देश में पहचान मिली उसके लिए ऐप्लिकेशन फॉर्म में अलग से एक कॉलम बनाकर कल्याण नहीं होगा। सामाजिक स्तर पर हमारी पहचान को स्थापित करना बहुत ज़रूरी है उसके लिए हमें हर कल्याणकारी नीतियों में शामिल होना बहुत ज़रूरी है। सरकारी नौकरियों की तो बाद में बाद करती हूं। आप यह देखिए उज्जवला योजना में कितने ट्रांस लोगों को फायदा मिला, पीएम आवास योजना में कितने ट्रांस लोगों को घर मिला। हमें तो सबसे पहले राशन और घर की आवश्यकता है लेकिन कही कुछ नहीं है। हमारी मांग है कि हमें सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिले। हमारे समुदाय के लोगों को जबतक सरकारी क्षेत्र में शामिल नहीं होंगे तब तक कैसे निजी क्षेत्र में हमें काम मिलेगा। सरकारों को संवेदनशील तरीके से फैसले लेने की ज़रूरत है।”
जैन कौशिक आगे कहती हैं, “हमने दिल्ली में 14 अप्रैल को आरक्षण की मांग में राजघाट से लेकर राष्ट्रपति भवन तक प्रदर्शन किया। लेकिन दिल्ली पुलिस ने हमें बीच में ही रोका। इस समुदाय के लोगों को तो अपनी बात रखने, विरोध प्रदर्शन करने का भी हक नहीं है। ट्रांस लोगों का जीवन बहुत संघर्ष वाला है। बचपन से ही वे हर स्तर पर कई तरह के उत्पीड़न का सामना करते हैं। अगर हमारी सरकारें ही हमारे अधिकारों का इस तरह से हनन करेगी तो हम क्या करेंगे। अदालत के फैसलों के बावजूद कोई कदम नहीं उठाना ही तो ये सब दिखाता है। ये समुदाय तो लड़ रहा है और आगे भी लड़ता रहेगा। हमें संघर्ष करके हमारी पहचान मिली थी और हम आगे भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहेंगे।”
ट्रांस समुदाय के सामाजिक प्रतिनिधित्व और अधिकारों को लेकर कोर्ट की तरफ़ से लगातार फैसले आने के बावजूद स्थिति में कोई सुधार नहीं है। बैचलर डिग्री में एडमिशन लेने की तैयारी कर रही वाणी के मुताबिक़’ “ट्रांसजेंडर कम्यूनिटी के लोगों को हर चीज के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। मैंने जैसे ही अपनी पहचान को स्वीकारा तो मुझे समाज ने नकार दिया जिस वजह से बीच में ही मेरी पढ़ाई छूट गई। उसके बाद तमाम संघर्षों के बीच में ओपन से बाहरवीं की पढ़ाई की। आगे की पढ़ाई पढ़ने के लिए भी बहुत पैसा और अन्य चीजों की ज़रूरत है। शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण होने से हमारा स्कूल, यूनिवर्सिटी में प्रतिनिधित्व होगा। शिक्षा वह ज़रिया है जिसके माध्यम से हम लोगों को जागरूक कर सकते हैं। जब ट्रांस समुदाय के बच्चे स्कूल-कॉलेजों में होंगे तो चीजें सुधरेंगी। फिर इसी तरह से वे नौकरियों में जाएगें अपने काम और टैलेंट से अपनी पहचान बनाएंगे। अब ओबीसी या एक जाति में ट्रांस समुदाय को डालना तो बहुत खतरनाक है। हमारी लैंगिक पहचान के अलावा हमारी जाति, धर्म की पहचान भी है। इस तरह के फैसले तो दिखाते हैं कि यह सिर्फ खानापूर्ति वाला कदम है।“
ट्रांस समुदाय के आरक्षण के सवाल पर फेमिनिज़म इन इंडिया से बात करते हुए दिल्ली की ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट जैन कौशिक का कहना है, ‘ये जो सरकारें कहती हैं कि समाज में जो ट्रांसजेंडर समुदाय को मुख्यधारा से दूर रखा गया हम उन्हें इसमें शामिल करने का काम कर रहे हैं। सरकारें जब कैबिनेट में हमसे जुड़ा फैसला लेती हैं तो वहां ट्रांस समुदाय से जुड़े कितने लोग थे। मेनस्ट्रीम में लाने के लिए अब सरकारें हमारी जेंडर की पहचान को जाति में सीमित कर रही हैं। ये मेनस्ट्रीमिंग नहीं है।
द वायर में छपी ख़बर के मुताबिक़ साल 2021 में कर्नाटक नौकरियों में ट्रांस समुदाय को एक फीसदी आरक्षण देने वाला पहला राज्य बना था। राज्य सरकार ने अपने भर्ती नियमों में संशोधन करके पुरुषों और महिलाओं के समान ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए एक अलग श्रेणी को रखा गया। इस रिपोर्ट के दौरान हमने जिन भी ट्रांस समुदाय के लोगों से बात की हैं उनका कहना है कि हमें अलग से आरक्षण चाहिए जिस तरह से कर्नाटक में प्रावधान किया गया। उनकी केवल ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए क्षैतिज आरक्षण को लेकर मांग है। बिहार हो या मध्यप्रदेश सरकार दोनों के इस तरह के फैसलों से समुदाय के लोगों के भीतर नाराज़गी हैं। वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे।