समाजराजनीति जनसंख्या वृद्धि और पितृसत्तात्मक समाज की भूमिका

जनसंख्या वृद्धि और पितृसत्तात्मक समाज की भूमिका

उत्तर भारत के गांवों में कम बच्चों को लेकर इतने तरह के मिथक चलते हैं जैसे कि अगर किसी को एक बच्चा है तो यहां लोग कहते हैं कि एक आंख से दुनिया नहीं देख सकते। उसी तरह एक बच्चा भी होना कोई बच्चा होना नहीं है।

अपनी जिन नाकामियों के लिए राज्य नागरिकों को चिन्हित करता है क्या उसके लिए सच में हाशिये के वर्ग उत्तरदायी हैं? जनसंख्या वृद्धि का सबसे बड़ा कारण अशिक्षा और पितृसत्तात्मक ढांचा है क्योंकि उस पर ही जनसंख्या वृद्धि के सारे आयाम टिके हैं। घर-परिवार समाज लैंगिक भेदभाव से बने अपने ढांचे के कारण जनसंख्या वृद्धि को बढ़ावा देता है। जनसंख्या वृद्धि की जो रिपोर्ट आई है उसके मुताबिक भारत इस साल के मध्य तक चीन को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। अब ये बात चीन की जनसंख्या से अगर जोड़कर देखा जा रहा है तो गलत आंकलन है क्योंकि चीन में तो घटती जनसंख्या चिंता का विषय बना हुआ है। हमारे देश की भी जनसंख्या वृद्धि का जो आंकड़ा है वह चिंता का आंकड़ा नहीं है क्योंकि महज घटने-बढ़ने का क्रम है ये जन आबादी का ग्राफ इसमें चिंता का विषय लैंगिक असमानुपात से होना चाहिए लेकिन उस ओर न राज्य का ध्यान जाता है न समाज का।

जब जनसंख्या वृद्धि की दर को हम ध्यान से देखते हैं तो पाते हैं कि बहुत तेजी से जनसंख्या का ग्राफ नहीं बढ़ रहा है। बस विडंबना है तो वहां जहां अशिक्षा है गरीबी है वहीं जनसंख्या वृद्धि बहुत ज्यादा है एक वैज्ञानिक चेतना से संपन्न समाज में कहीं भी ज्यादा जनसंख्या नहीं दिख रही है। समाज में भले आए दिन कुछ धर्म के कारोबारी जनसंख्या वृद्धि को बढ़ावा देने की बात करते रहते हैं लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचने वाले लोग कभी उनकी जहालत से भरी बात पर अमल नहीं करते।

ऐसा नहीं है कि जनसंख्या वृद्धि का सारा दोष हाशिये के वर्गों पर ही जाता है। परंपराओं में बंधे परिवार मध्यवर्ग में कम निम्नवर्ग में ज्यादा ही धार्मिकता आदि से जोड़कर ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं। उत्तर भारत के गांवों में कम बच्चों को लेकर इतने तरह के मिथक चलते हैं जैसे कि अगर किसी को एक बच्चा है तो यहां लोग कहते हैं कि एक आंख से दुनिया नहीं देख सकते। उसी तरह एक बच्चा भी होना कोई बच्चा होना नहीं है। इसी तरह देखा जा सकता है कि अक्सर बेटे के इंतजार में कई बच्चे हो जाते हैं। उसमें अगर कई लड़कियों के बाद बेटा हो भी गया तो कहा जाता है कि जोड़ा लगना चाहिए अर्थात एक बेटा और होना चाहिए। हर हाल में बेटा चाहिए उनको और वह भी ढेर सारे बेटे। एक समाज के लिए इस तरह बेटे के लिए लालसा कितनी अवैज्ञानिक सोच है। पढ़े-लिखे तथाकथित सभ्य और संभ्रात परिवार में भी इस तरह की सोच खूब दिखती है।

समाज में जिस तरह से स्त्रियों की स्थिति है उनके पास अपनी देह का अधिकार भी बस नाममात्र के लिए है। इस तरह के सामाजिक और नैतिक मूल्यों की स्थापना तभी संभव हो सकती है जब शिक्षा, रोजगार और बराबरी के अधिकार के मूल्य से बने समाज में एक नयी सोच बने। समाज में स्त्रियों को प्रजनन अधिकारों और उनके विकल्पों का पूरी तरह से उपयोग की स्वतंत्रता हो।

अवध क्षेत्र के गाँव में ही टीचर हैं रेखा देवी। उन्होंने तीन बेटियां होने तक बेटे का इंतजार किया। बेटा हो गया तो यह हुआ कि दो बेटे होने चाहिए। यह एक सुविधा सम्पन्न परिवार की स्थिति है। वहीं दूसरी गाँव में कितनी ऐसी भी स्त्रियां हैं जो अपनी इच्छा से ज्यादा बच्चे नहीं पैदा करना चाहती हैं। लेकिन परिवार पति के दबाव में बच्चा पैदा करना पड़ रहा है। गांव के आंगनवाड़ी स्कूल में सहायिका कुसुम कहतीं हैं कि चौथे बच्चे के लिए मेरा मन और देह दोनों गवाही नहीं दे रहे थे लेकिन पति की मार से डरती रही और चौथे बच्चे को जन्म दिया।

जहां गरीबी और असुरक्षा हैं वहां तो सवाल उठाने में ही तकलीफ़ होती है लेकिन जहां सुविधा है तथाकथित शिक्षित लोग हैं वहां अलग तरह से पितृसत्तात्मक सोच और लैंगिक भेदभाव चलता है। पढ़ी-लिखी और आत्मनिर्भर स्त्रियां भी उससे ऊबर नहीं पा रही हैं। मड़िहान कस्बे की खुशबू कुमारी से उनकी तीन बेटियों को लेकर बात करने लगी तो उन्होंने बताया कि  बेटे के इंतजार में इतनी बेटियां हो गईं, अगर एक बेटी के बाद बेटा हो जाता तो और बच्चे नहीं पैदा करतीं।

एक आंकड़े में देखा कि 1960 और 1980 के बीच भारत की आबादी तेज़ी से बढ़ी और महज 70 साल में आबादी में एक अरब का इजाफा हुआ इस लिहाज से देश की आबादी बहुत नहीं बढ़ रही है लेकिन जहाँ राज्य रोजगार और स्वास्थ्य के साथ शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं कर पा रहा है तो लगता है कि आबादी के कारण ही सारे संकट भयावह हो रहे हैं लेकिन इसतरह जनसंख्या को देखना महज सतह को देखना हुआ। गाँव में स्त्रियों से बातचीत करने पर पता चलता है कि जो सुविधा-संपन्न लोग हैं वे चोरी-छिपे लैंगिक जांच करवा लेते हैं। गर्भ में बेटी है तो गर्भपात करवा लेते हैं। कई बार तो ये हुआ कि डॉक्टर बेटी है तो कह देते हैं कि बेटा है क्योंकि बहुत बार स्त्री की देह गर्भपात के लिए उपयुक्त नहीं रहती और परिवार का दबाव होता है कि बेटा ही पैदा हो। 

अक्सर बेटे के इंतजार में कई बच्चे हो जाते हैं। उसमें अगर कई लड़कियों के बाद बेटा हो भी गया तो कहा जाता है कि जोड़ा लगना चाहिए अर्थात एक बेटा और होना चाहिए। हर हाल में बेटा चाहिए उनको और वह भी ढेर सारे बेटे। एक समाज के लिए इस तरह बेटे के लिए लालसा कितनी अवैज्ञानिक सोच है। पढ़े-लिखे तथाकथित सभ्य और संभ्रात परिवार में भी इस तरह की सोच खूब दिखती है।

स्टेट ऑफ वर्ल्ड पॉपुलेशन की रिपोर्ट 2023 के आधार पर इस साल के मध्य तक भारत की आबादी 142.86 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान लगाया गया जो चीन की आबादी 142.57 करोड़ से अधिक होगी, जिसका आशय है कि भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है। लेकिन चीन की आबादी घटाने की नीति के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। जनसंख्या घटने के साथ साथ बेटी की तुलना में बेटे को प्राथमिकता देने के कारण वहां का लैंगिक संतुलन बिगड़ गया है। बताया जा रहा है कि चीन में लड़कों की एक बड़ी संख्या बिना शादी के रह जा रही है। अब लोगों को कम से कम तीन बच्चे पैदा करने को कहा जा रहा है। वहां युवक-युवतियों को विवाह करने और ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए छुट्टियां, वेतन वृद्धि , नकद राशि, पुरस्कार आदि अनेक प्रलोभन दिए जा रहे हैं।

आज दुनिया के कई देश जनसंख्या कम होने की भयंकर समस्या का सामना कर रहे हैं तो इस लिहाज़ से हमारे देश की जनसंख्या वृद्धि उस तरह चिंता का विषय नहीं है। यह भयावहता की आहट हमें इसलिए सुनाई पड़ती है क्योंकि हमारी व्यवस्था में भयंकर दोष हैं। राज्य अपने जनप्रबन्धन नीति को पूर्ण व्यवहार में नहीं ला रही है।

हमारे देश में अभी भी जनसंख्या बढ़ ही रही है लेकिन उस दर से नहीं जैसा 40 साल पहले जनसंख्या वृद्धि हो रही थी तो इसका मतलब है कि भविष्य में भारत की आबादी घटने लगेगी तो अन्य देशों की तरह यहां भी यह चिंता का विषय बन सकता है। ऐसा नहीं है कि मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए धरती पर ही संसाधन बेहद कम है। दिक्कत है कि ज्यादा संसाधनों को समाज में बहुत कम लोग लेकर बैठे हैं। गाँव-देहात में उनके पास खूब जमीन है जो खेती-किसानी नहीं कर रहे हैं या उनको करने की ज़रूरत नहीं है ।ज्यादातर तो वे लोग शहर में रहते हैं गाँव में जल्दी आते नहीं। अगर गाँव में रह रहे हैं तो उनके पास बड़ी सरकारी नौकरी या शहर में बड़ा व्यवसाय है। उनके खेत कभी बटाई पर होते हैं कभी यूं ही पड़े रहते हैं। वहीं गाँव में ही कितने लोगों के पास बहुत कम जमीन है जो खेती के लिए पर्याप्त नहीं है या बहुत लोगों के पास जमीन है ही नहीं। वे बेहद गरीब लोग हैं और इनके यहां ही अशिक्षा, अभाव अवैज्ञानिक चेतना के कारण बच्चे भी ज्यादा होते हैं।

गांव के आंगनवाड़ी स्कूल में सहायिका कुसुम कहतीं हैं कि चौथे बच्चे के लिए मेरा मन और देह दोनों गवाही नहीं दे रहे थे लेकिन पति की मार से डरती रही और चौथे बच्चे को जन्म दिया।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कुल आबादी का 68 फीसदी हिस्सा 15 से 64 साल की उम्र के बीच है, जिसे किसी देश की कामकाजी आबादी माना जाता है। करीब 25 फीसदी आबादी 0-14 वर्ष के बीच, 18 फीसदी 10 से 19 साल के बीच, 26 फीसदी 10 से 24 साल के बीच और 7 फीसदी आबादी की उम्र 65 साल से ऊपर है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार, भारत की जनसंख्या अगले तीन दशकों तक बढ़ने की उम्मीद है, जिसके बाद यह घटने लगेगी। किसी भी देश में जहां संसाधन की कमी है, शिक्षा की कमी है, आधुनिक और प्रगतिशील विचारों का अभाव है, परंपराओं और रिवाजों का अंधानुकरण है वहां बढ़ती जनसंख्या पर राज्य को अपनी नीतियों को लेकर सोचना लाजिमी है। एक लोकतांत्रिक देश में एक सामान्य मनुष्य की ज़रूरतों की पूर्ति हर नागरिक का अधिकार है।

समाज में जिस तरह से स्त्रियों की स्थिति है उनके पास अपनी देह का अधिकार भी बस नाममात्र के लिए है। इस तरह के सामाजिक और नैतिक मूल्यों की स्थापना तभी संभव हो सकती है जब शिक्षा, रोजगार और बराबरी के अधिकार के मूल्य से बने समाज में एक नयी सोच बने। समाज में स्त्रियों को प्रजनन अधिकारों और उनके विकल्पों का पूरी तरह से उपयोग की स्वतंत्रता हो। किसी भी देश में जनसंख्या वृद्धि की समस्या का मूल ही वहाँ की सामाजिक व आर्थिक दशा पर निर्भर होता है । और कोई भी समाज स्त्रियों की शिक्षा स्वास्थ्य और उनके अधिकारों के  मूल्यों पर ही आधुनिक व सभ्य सांस्कृतिक होने का दावा कर सकता है । बढ़ती आबादी के लिए सवाल उठे उसके पहले ये सवाल उठना लाजिमी है कि स्त्रियों को प्रजनन विकल्प चुनने या प्रजनन का अधिकार ही कितना और किस स्तर पर है।

आज दुनिया के कई देश जनसंख्या कम होने की भयंकर समस्या का सामना कर रहे हैं तो इस लिहाज़ से हमारे देश की जनसंख्या वृद्धि उस तरह चिंता का विषय नहीं है। यह भयावहता की आहट हमें इसलिए सुनाई पड़ती है क्योंकि हमारी व्यवस्था में भयंकर दोष हैं। राज्य अपने जनप्रबन्धन नीति को पूर्ण व्यवहार में नहीं ला रही है।

जिस पूंजीवादी समाज में लगातार गरीब और गरीब हो रहा है और अमीर और अमीर वह बेहतर कैसे बन सकता है। सामाजिक कार्यकर्ता और एक्टिविस्ट मनीष आजाद गैरबराबरी के इस ढांचे को लेकर लिखते हैं कि इस बात को समझ सकते हैं कि बिना इस अमानवीय व्यवस्था को बदले यदि धरती पर दो लोग भी बचे तो एक मालिक होगा और दूसरा उसका गुलाम। हमें यह बात समझनी होगी कि मानवता का सबसे बड़ा लक्ष्य पूर्ण लैंगिक समानता है।

आज जब विज्ञान प्रगति के जिस पायदान पर पहुंचा है और वहीं उसी समाज में मनुष्य सदियों पीछे की ओर ही पलटकर देख रहा है तो इसमें किसका दोष है? जनसंख्या वृद्धि को जनचेतना से ही जोड़कर देखना चाहिए। किसी समाज में स्त्री और बच्चों का जीवन कितना खुशहाल है ये उस समाज की सोच पर ही निर्भर करता है। इसलिए जनसंख्या का प्रश्न सीधे-सीधे गरीबी अशिक्षा और एक रूढ़ और पितृसत्तात्मक समाज के ढांचे से जुड़ा प्रश्न है। जब तक वो हल नहीं निकलता तब तक बेरोजगारी , अशिक्षा ,जनसंख्या वृद्धि , धार्मिक कट्टरता, पर्यावरण की अनदेखी जैसे प्रश्न वहीं खड़े रहेंगे।


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