इंटरसेक्शनलजेंडर कल्याणी ठाकुर चरल: बांग्ला दलित साहित्य में महिलाओं का नज़रिया सामने लानेवाली लेखिका

कल्याणी ठाकुर चरल: बांग्ला दलित साहित्य में महिलाओं का नज़रिया सामने लानेवाली लेखिका

कल्याणी अपनी आत्मकथा 'अमी केनो चारल लिखी' जिसका अर्थ है 'मैं चरल क्यों लिखती हूं'  में वह बताती हैं कि चरल को अपने नाम से जोड़कर वह यह दिखाना चाहती हैं कि वह अपने समुदाय और दलित समाज से शर्मिंदा नहीं हैं। वह गर्व से इसे अपने साथ जोड़ती हैं।

पश्चिम बंगाल को हम सभी एक ऐसे राज्य के रूप में देखते आए हैं जो हमेशा से ही गलत के खिलाफ खड़ा होता आया है। जहां के लोग अपनी लेखनी से समस्याओं और मुद्दों को सामने लाते रहें हैं लेकिन क्या इन समस्याओं में दलितों की समस्याएं शामिल रहीं? क्या दलित साहित्य और दलित साहित्य लिखनेवाली महिलाओं को यहां स्थान दिया गया? आइए जानते हैं, दलित नारीवादी लेखिका कल्याणी ठाकुर चरल के संदर्भ से कि बंगाल में दलित साहित्य कहां और किस पायदान पर है। 

कल्याणी का प्रारंभिक जीवन 

कल्याणी का जन्म साल 1965 में मटुआ समुदाय में हुआ। वह बागुला, पश्चिम बंगाल में जन्मी थीं। चार बड़े भाई बहनों के बाद कल्याणी का जन्म हुआ; वह सबसे छोटी संतान थीं। सात लोगों के परिवार में आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण उनकी मां, कल्याणी और उनके बाकी भाई-बहन अपने घर में उगाई सब्जियां बेचने जाते थे।

कल्याणी बताती हैं कि पहली बात जो उन्हें भेदभाव की तरह महसूस हुई वह थी कि तथाकथित उच्च जातियों के बच्चों के पास एक विशेष प्रकार की यूनिफॉर्म होती थी जो कि हाशिये की जाति के छात्रों के पास नहीं होती थी। इन सभी चीजों के बावजूद चरल अपनी पढ़ाई जारी रखती रहीं। इसका मुख्य कारण उनका हर कक्षा में प्रथम आना कह सकते हैं। 

चरल अपने माता-पिता से बहुत प्रभावित थीं। वह नारीवाद में अपनी रुचि का श्रेय अपने माता-पिता को देती आई हैं। वह बताती हैं कि उनके पिता ने गांव में हो रही घरेलू हिंसा में हस्तक्षेप किया था। साथ ही उनकी मां घर में हमेशा सुनिश्चित करतीं थी कि सभी को समान अवसर प्राप्त हो। उनके माता-पिता शिक्षा को महत्व देते थे। हालांकि, उन्हें खुद शिक्षित होने का अवसर कभी नहीं मिला था।

शिक्षा के लिए संघर्ष

चरल ने आधारभूत शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी बहुत संघर्ष किया। वह वह समय था जब शैक्षणिक संस्थानों में दलितों को प्रवेश भी नहीं मिलता था और अगर प्रवेश मिल जाता था तो उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता था। वेबसाइट द स्क्रोल को दिए इंटरव्यू में वह बताती हैं कि उन्हें सिर्फ तथाकथित उच्च जातियों के शिक्षक पढ़ाते थे और वह शिक्षक उनके सामने कुछ नियम और कानून रखते थे। दलित समुदाय से आने के कारण कल्याणी और अन्य हाशिये की जाति के छात्रों को विद्यालय में प्रवेश की अनुमति बहुत मुश्किल से मिलती थी और अगर वह अनुमति प्राप्त कर लेते थे तो उन्हें कक्षा के बाहर बरामदे में बैठाया जाता था। 

चरल अपने माता-पिता से बहुत प्रभावित थी। वह नारीवाद में अपनी रुचि का श्रेय अपने माता-पिता को देती आई हैं। उनके माता-पिता शिक्षा को महत्व देते थे। हालांकि, उन्हें खुद शिक्षित होने का अवसर कभी नहीं मिला था।

वह बताती हैं कि पहली बात जो उन्हें भेदभाव की तरह महसूस हुई वह थी कि तथाकथित उच्च जातियों के बच्चों के पास एक विशेष प्रकार की यूनिफॉर्म होती थी जो कि हाशिये की जाति के छात्रों के पास नहीं होती थी। इन सभी चीजों के बावजूद चरल अपनी पढ़ाई जारी रखती रहीं। इसका मुख्य कारण उनका हर कक्षा में प्रथम आना कह सकते हैं। 

कार्यस्थल पर भेदभाव

कल्याणी ने अपनी आत्मकथा ‘अमी केनो चारल लिखी’ में बताया कि किस तरह उन्हें अपने कार्यस्थल पर जाति के आधार पर नीचे दिखाया जाता था। उन्हें मेज़ या कुर्सी नहीं दी जाती थी। उन्हें कोने में पड़ी बेंच पर बैठने की ही अनुमति थी। वह भी इस तरह की जगह में जहां पंखे तक नहीं थे। इस तरह के व्यवहार ने कल्याणी के अस्तित्व को बहुत प्रभावित किया। ये घटनाएं सुनने या पढ़ने में बहुत छोटी मालूम हो सकतीं हैं लेकिन इनका प्रभाव किसी व्यक्ति पर किस तरह पड़ता है ये विचारणीय है। 

इन सब वाकयों के बावजूद कल्याणी ने लिखना और पढ़ना बंद नहीं किया। वह आगे बढ़ती रहीं। लेकिन यह घटनाएं साक्षी हैं इस बात की कि कल्याणी के साथ न केवल जातिगत रूप से बल्कि जेंडर के आधार पर और रंग के आधार पर भी भेदभाव और हीन व्यवहार होता रहा।

‘चरल’ नाम के पीछे की विचारधारा

‘चरल’ सिर्फ कोई उपनाम नहीं यह पूरे समुदाय का नाम है। जिस मटुआ समुदाय से कल्याणी आती हैं यह उसी समुदाय का नाम है। कल्याणी अपनी आत्मकथा ‘अमी केनो चारल लिखी’ जिसका अर्थ है ‘मैं चरल क्यों लिखती हूं’ में वह बताती हैं कि चरल को अपने नाम से जोड़कर वह यह दिखाना चाहती हैं कि वह अपने समुदाय और दलित समाज से शर्मिंदा नहीं हैं। वह गर्व से इसे अपने साथ जोड़ती हैं। मुख्यधारा में दलित समाज से आने वालों को हीन भावना से देखा जाता है वह इसका विरोध और अपने समुदाय को खुद पर गर्व करने का संदेश देती हैं। 

कल्याणी ने अपनी आत्मकथा ‘अमी केनो चारल लिखी’ में बताया कि किस तरह उन्हें अपने कार्यस्थल पर जाति के आधार पर नीचे दिखाया जाता था। उन्हें मेज़ या कुर्सी नहीं दी जाती थी। उन्हें कोने में पड़ी बेंच पर बैठने की ही अनुमति थी। वह भी इस तरह की जगह में जहां पंखे तक नहीं थे।

यह बात हम एक घटना से समझ सकते हैं जब कल्याणी को रेलवे के किसी कर्मचारी ने सार्वजनिक रूप से पूछा कि वह किस जाति से संबंध रखती हैं तब उन्होंने सबके सामने उच्च स्वर में कहा कि वह चरल जाति से आती हैं। जिसे सुनकर आस-पास के लोग स्तब्ध रह गए। इस वाकये से हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि कल्याणी समाज को क्या संदेश देना चाहती थी। वह इस शब्द या या समुदाय से आने को शर्म का कारण नहीं समझती हैं।

फ्लिंडर्स यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर आए कल्याणी के इंटरव्यू में उन्होंने कहा है, “मैं विरोध करने के लिए लिखती हूं। विरोध में हथियारों की ज़रूरत पड़ती है। मेरी कलम मेरा हथियार है। लेखन मुझे सामाजिक उत्पीड़न, रूढ़ियों और होते आए भेदभाव के प्रति दबे मेरे आक्रोश को सामने लाने का अवसर देता है।”

ओरिजनल जर्नल्स को दिए इंटरव्यू में उन्होंने बताया की जितना भी दलित साहित्य महिलाओं द्वारा लिखा गया उसका साक्ष्य नई मीडिया पर कहीं उपलब्ध नहीं। एक साहित्यिक बैठक में उनसे अनुरोध किया गया की वह अपनी आत्मकथा लिखें; न सिर्फ अपनी स्थिति और संघर्षों के बखान के लिए बल्कि समाज को आइना दिखाने के लिए और ये बताने के लिए की यह स्थिति सिर्फ उनकी नहीं, बहुत-सी दलित महिलाओं की है।

‘नीर’ पत्रिका की शुरुआत

नीर पत्रिका एक दीवार पत्रिका रूप में शुरू हुई थी। आगे चलकर इसका लिखित रूप आया। ‘नीर’ एक बंगाली शब्द है जिसका अर्थ है ‘घर’। इसका एक अर्थ ‘चिड़िया का घोंसला’ भी होता है। तब यह पत्रिका सभी प्रविष्टियां आमंत्रित करती थी। जेंडर, जाति, भाषा और प्रकृति भी इस पत्रिका के मुद्दों का हिस्सा होती थी। आगे चलकर इसका रूप बदला और यह सिर्फ महिला पत्रिका बन गई या यह कहना सही होगा कि यह पत्रिका दलित महिलाओं की आवाज़ बनी। कल्याणी का मानना था कि पुरुष लेखकों से महिलाओं की समस्याएं और उनकी प्रकृति अलग है। 

दलित प्रकाशन समूह

दलित साहित्य में महिलाओं का योगदान अमूल्य रूप से बड़ा है लेकिन बंगाल की दलित महिला लेखक अब भी न्यूनतम है। यही स्थिति बदलने जब कल्याणी अपना लेखन लेकर कई प्रकाशकों के पास गई तो उन्हें अस्वीकृति ही मिली। आखिरकार कल्याणी दलित प्रकाशन समूह और बौद्धिक समूह के संपर्क आई। इसका नाम  ‘चौथर्य दुनिया’ (चौथी दुनिया) था। इसी प्रकाशन से कल्याणी के काव्य संग्रह धोरलेई जुद्धो सुनिश्चित’, ‘जे मेये अंधार गान’, और ‘चंडालिनीर कोबिता’ प्रकाशित हुए।

एक इंटरव्यू में कल्याणी कहती हैं, “मैं विरोध करने के लिए लिखती हूं। विरोध में हथियारों की ज़रूरत पड़ती है। मेरी कलम मेरा हथियार है। लेखन मुझे सामाजिक उत्पीड़न, रूढ़ियों और होते आए भेदभाव के प्रति दबे मेरे आक्रोश को सामने लाने का अवसर देता है।”

बौद्धिक जगत में कल्याणी

पुड्डुचेरी में स्पैरो वूमेन द्वारा आयोजित लेखक कार्यशाला में कल्याणी को बंगाल का प्रतिनिधित्व करने के लिए आमंत्रित किया था। मोनाश विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘लिटरेरी कॉमंस: राइटिंग ऑस्ट्रेलिया-इंडिया इन द एशियसन सेंच्युरी विद दलित, इंडीजीनस ऐंड मल्टीलिंगुअल टंग’ में सम्मानित अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। कल्याणी को साल 2020 में अस्तित्व में आई बांग्ला दलित साहित्य अकादमी के सदस्य के रूप में चुना गया। बंगला दलित साहित्य को महिलाओं के नज़रिये से सबको परिचित कराने में कल्याणी का मुख्य काम है। 

बांग्ला दलित साहित्य में कल्याणी

मुख्यधारा का दलित साहित्य ही बहुत देर से उजागर हो पाया तो उस दशा में बंगला साहित्य का बहुत ही प्रभावशाली तरह से उजागर होना असम्भव सा है लेकिन उस असंभव को संभव बनाने में कल्याणी ने जो योगदान दिया वह सर्वोपरि है। जिन दलित महिलाओं की समस्याओं और संघर्षों को मुख्यधारा का समाज कुछ नहीं समझता उन समस्याओं को मुख्यधारा में लाने का काम कल्याणी के हाथों संभव हो पाया। उनका लेखन और उनकी सीखें पूरे समाज के लिए बहुत अहम हैं।

दलित साहित्य में महिलाओं का योगदान अमूल्य रूप से बड़ा है लेकिन बंगाल की दलित महिला लेखक अब भी न्यूनतम है। यही स्थिति बदलने जब कल्याणी अपना लेखन लेकर कई प्रकाशकों के पास गई तो उन्हें अस्वीकृति ही मिली। आखिरकार कल्याणी दलित प्रकाशन समूह और बौद्धिक समूह के संपर्क आई। इसका नाम  ‘चौथर्य दुनिया’ (चौथी दुनिया) था।

कल्याणी की विचारधारा

कल्याणी ने अपने लेखन से महिला दलितों को प्रभावित किया एवं उनके जीवन की कठिनाइयों को मुख्यधारा से परिचित कराया। उनका मानना है कि ‘दलित’ शब्द अपने आप में एक बड़ा विषय है जिसके अपने अलग संघर्ष हैं लेकिन उसमें भी ‘बांग्ला दलित महिलाओं’ के संघर्षों को वो महत्वपूर्ण और अलग मानती हैं। उनकी समझ में साक्षर दलितों को लिखने पढ़ने को आदत डालनी चहिए। अपने लेखन को सबके सामने लाना चाहिए; वह मानती हैं। उनके मुताबिक़ पुस्तकालयों की स्थापना अहम है।

दलित लेखन अपने आप में अहम है और विचार का विषय है लेकिन कल्याणी ठाकुर चरल के माध्यम से बंगला दलित नारीवादी लेखन से परिचित होना एक अलग अनुभव है। उनका लेखन सशक्त एवं गुणवत्ता पूर्ण है जो हमें बंगला दलित महिलाओं के संघर्षों से रूबरू करवाता है।  


संदर्भ:

  1. Academia.edu
  2. Flinders University 
  3. Streekaal.com
  4. Scroll. in
  5. Wikipedia
  6. Telegraph India 
  7. Forward press

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