साल 2004 में ‘स्वदेस’ फिल्म रिलीज हुई थी जिसका लेखन, निर्देशन और निर्माण आशुतोष गोवरिकर ने किया है। यह एक अप्रवासी भारतीय (एनआरआई) की कहानी पर आधारित है जो अपनी मातृभूमि को लौटता है। फिल्म में शाहरुख़ ख़ान ने मोहन भार्गव का किरदार निभाया है। साथ ही गायत्री जोशी ने गीता का किरदार निभाया है। फिल्म की कहानी का मुख्य किरदार भले ही मोहन का हो लेकिन गीता का किरदार पूरी कहानी को बहुत प्रभावित करता है।
गीता अपने माता-पिता के गुजरने के बाद से कावेरी अम्मा (एक किरदार जो मोहन और गीता को जोड़े रखता है) और अपने छोटे भाई चीकू के साथ रहती है। वह अपने गांव चरणपुर में एक स्कूल चलाती है, बच्चों को मन से पढ़ाती है, और अन्य कार्यों में हिस्सा बनती है जो गांव हित के लिए हो रहा होता है या होना चाहिए। गीता एक स्वतंत्र, जिम्मेदार और नारीवादी किरदार है जो देश की ख़राब व्यवस्था पर सवाल भी करती है और निष्कर्ष की ओर काम भी करती है। गीता का मानना है कि सिर्फ देश के उच्च स्तर पर बैठी सरकार को ही नहीं बल्कि देश के हर एक नागरिक के मन में अपनी मातृभूमि के प्रति समर्पण का भाव होना चाहिए और जमीनी स्तर पर उन व्यवस्थाओं पर ध्यान देना आवश्यक है जो हमारी क्षमता के अधीन है। तभी देश के हालात में सुधार और विकास में वृद्धि होगी।
स्वदेश फ़िल्म, जितनी मोहन भार्गव की है उतनी ही गीता की भी है। शायद गीता ना होती तो मोहन वो सब कुछ ना कर पाता जो वह कर पाया। मोहन सिर्फ गीता के साथ रहने के लिए वापस लौटकर नही आया, बल्कि गीता के अमेरिका जाने से इनकार करने के कारण को समझने के बाद आया। आख़िर क्यों उससे प्यार होने के बाद भी गीता ने उसके साथ जाने के लिए मना किया? वह अपने गाँव के हाल के लिए क्यों इतनी गंभीर है? इतना भी क्या स्वाभिमान कि जो प्यार और अमेरिका को भी त्याग दे। यही सवाल इस गीता के किरदार की खोज है।
समाज बनाम गीता और उसके नज़रिये से समावेशी विकास
फिल्म में एक संवाद आता है जब गीता को शादी के लिए लड़के वाले देखने आते हैं। बातचीत के कुछ देर बाद गीता खड़ी हो जाती है घर आए मेहमानों से कहती है, “आपकी ये शर्त मुझे बिल्कुल मंज़ूर नहीं है। स्कूल में पढ़ाना मुझे पसंद है। यह मेरी इच्छा और लगन है और ये काम मैं शादी के बाद भी करना चाहूंगी।” इसके बाद लड़का कहता है कि एक स्त्री के लिए घर का कामकाज ही काफ़ी है। जवाब में गीता कहती है कि मैं नहीं मानती। घर की देखभाल के साथ-साथ मैं काम भी करना चाहती हूं। बीत में लड़के के पिता बोलते हैं कि हमारे घर में स्त्रियों को बाहर काम करने की इजाज़त नहीं है। और वैसे भी शादी के बाद आपको काम करने की ज़रूरत ही क्या है?
फिर गीता कहती है कि और अगर यही बात मैं आपके बेटे से कहूं तो? हमारे मां-बाप भी हमें उतने ही लाड-प्यार से पढ़ाते-लिखाते हैं और वो यही चाहते हैं कि हम स्वाभिमान, आज़ादी और आत्मनिर्भरता से जिए। अगर आपके बेटे में जीवन में कुछ कर दिखाने की और समाज में अपनी जगह बनाने की इच्छा है तो क्या लड़कियों की ये इच्छा नहीं हो सकती? चाहे कोई भी क्षेत्र हो महिलाएं बराबरी से अपनी पहचान बना रही हैं। हथेलियां सिर्फ़ मेंहदी के लिए नहीं होती। शादी के बाद घर और बच्चे, मर्द के उनते ही नहीं जितने की औरत के? तो फिर दोनों मिलकर एक-दूसरे के सहायक क्यों नहीं बन सकते? दोनों में से एक ज्यादा बलिदान क्यूं दे? शादी के बाद घर में बंधे रहने की ये शर्त मुझे मंज़ूर नहीं है।
ये कथन सिर्फ गीता की व्यक्तिगत सोच ही नहीं बल्कि उन तमाम लड़कियों की आवाज़ है जिनके सपने, लगन और इच्छा शादी के बंधन के कारण अधूरे पड़े हैं। ये एक संवाद कितने ही घरों में हुए होंगे या होने की संभावना से गुजरे होंगे। कितनी ही तो महिलाएं देश को आगे बढ़ाने का काम कर रही है। गीता जैसी कुछ जमीनी स्तर पर तो कुछ देश के संसद में मौजूद होकर। पर तादाद तो उन लड़कियों की ज्यादा है जो इच्छा होने के बावजूद उसे पूरा कर पाने में असमर्थ है। जिसका कारण समाज और वह विचारधारा है जो महिलाओं को घर की परिधि में सीमित रखना चाहती है।
इसमें कोई संशय नहीं कि हर क्रांति का पहला उदेश्य उद्देश्य हिय हित है। अगर हम तह में झांकें तो पाएंगे कि किसी भी क्रांति का अंतिम उद्देश्य सदैव निजी नहीं होता। जहां हम बात करते हैं समावेशी विकास के बारे में, वहां हम पाते हैं कि इस जटिल प्रक्रिया को सफल बनाने तक कितनी ही ज़िंदगियां व्यर्थ प्रयास मात्र बनकर रह जाएंगी। इसलिए हमें चाहिए कि हम इसकी शुरुआत अपने घर, दफ़्तर, कॉलेज, मोहल्ले या गांव से करें।
गीता जैसी भूमिकाओं की क्यों है आश्यकता
हमारे परिवार और आसपास में लड़कियों की कमी नहीं है हैं जो ‘गीता’ बन सकती है और बनना भी चाहती है। हर लड़की चाहती है कि वह पढ-लिख कर अपना और अपनों का मान बढ़ाए, स्वाभिमान, आज़ादी और आत्मनिर्भरता से अपना जीवन यापन करें। एक फिल्म के माध्यम से ये समझना कि ये व्यक्तिगत विकास के साथ-साथ समाज के लिए भी कितना हितकारी है, एक अच्छा विकल्प है। इस फिल्म में ऐसी बहुत सारी भूमिकाएं हैं जो समाज को आईना दिखाने का काम करती है। सिखाती और समझाती है कि किसी भी पैमाने पर लड़कियों के सामर्थ और विकास में बाधक नहीं बल्कि सहायक बनने में समझदारी है। मनोरंजन हेतु फ़िल्में देखना तो हर किसी को पसंद है पर देखे गए फ़िल्मों के किरदारों पर विचार करना और उनकी परेशानियों से मेल खाते अपने अस्तित्व की गुथली को सुलझाना भी आवश्यक है।