इंटरसेक्शनल सिटी फॉर ऑलः एक अभियान जो बताता है कि कैसे हम अपने शहरों को समावेशी बना सकते हैं

सिटी फॉर ऑलः एक अभियान जो बताता है कि कैसे हम अपने शहरों को समावेशी बना सकते हैं

पुरुष, महिलाएं, लैंगिक अल्पसंख्यक और विभिन्न क्षमताओं के लोग सार्वजनिक स्थान का अलग-अलग तरीकों से उपयोग करते हैं। हालांकि, शहर "तटस्थ" पुरुष उपयोगकर्ताओं के लिए ही बनाए गए हैं।

“क्या आप आधी रात के बाद सड़कों पर चलते हैं? क्या आपने सड़क किनारे थड़ी पर बैठकर चाय पी है? सड़क पर गुज़रते हुए ज़रूरत पड़ने पर पेशाब करने के लिए क्या आपको शौचालय मिला? क्या आप बिना कोई झिझक या उत्पीड़न के डर के बस में बैठ पाते हैं? क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप पार्क में लेट गए या वहीं झपकी ले ली? अगर आपके अधिकांश उत्तर ‘हां’ में हैं, तो इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि आप एक प्रभावशाली जाति और धर्म से आने वाले सक्षम शरीर वाले पुरुष हैं।”

कुछ ऐसे सवाल पूछे सोशल डिज़ाइन कॉलैबोरेटिवऔर Genre et Villeद्वारा रचे गए अभियान ‘सिटी फॉर ऑल’ ने, जिसका मानना है कि सार्वजनिक स्थान और उनकी पहुंच हर जेंडर तक बराबर नहीं है। अधिकतर जगहों पर सक्षम शरीर और उच्च जाति के हेट्रोसेक्शुअल पुरुषों द्वारा कब्जा कर लिया गया है। वे ही इन स्थानों पर स्वतंत्रता, शक्ति और नियंत्रण महसूस करते हैं।

क्या है सिटी फॉर ऑल?

चर्चा में शामिल महिलाएं। तस्वीर साभारः  social design collaborative

यह एक सार्वजनिक कला उत्सव है जिसके तहत मार्च-जून 2022 में भारत के छह शहर जयपुर, चंडीगढ़, अहमदाबाद, पुणे, बैंगलोर व दिल्ली में विभिन्न समुदाय के लोगों से बातचीत की गई। बातचीच का मुख्य प्रसंग यह था कि ‘हमारे शहरों का निर्माण कौन करता है और किसके लिए करता है?’ अलग-अलग मोहल्लों में सड़कों पर हर वर्ग, जाति, लिंग, आर्थिक पृष्ठभूमि और धर्म से आने वाले लोगों से शहर का नक्शा लेकर एक बहुत ही सरल प्रश्न पूछा गया कि ‘आप अपने शहर में कहां जाना पसंद करते हैं?’ गुज़रते हुए लोग अपनी-अपनी पसंद बताने लगे। साथ ही, लोगों से इस बात पर भी वोट लिया गया कि सार्वजनिक स्थान पर उनके लिए क्या महत्वपूर्ण है। हरियाली, सुरक्षा या स्वतंत्रता की भावना आदि। इन चर्चाओं के माध्यम से, शहर स्तर के पैटर्न उभरने लगे कि विविध पृष्ठभूमि के लोग अपने शहर में कैसे घूमते हैं और शहर के सबसे समावेशी स्थान कौन से हैं जो सबके लिए हैं। आखिर में सार्वजनिक प्रदर्शनी के माध्यम से सप्ताह भर चलने वाली चर्चाओं और नक़्शे पर बने पैटर्न को साझा किया गया, जहां सभी क्षेत्रों के लोगों ने साथ आ कर अभियान पर बात की और स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक प्रस्तुतियां और कलाकृतियां देखी। 

इन चर्चाओं को सरकार, शासन और नीति से जोड़ने की भी कोशिश की गई ताकि ऐसे सवाल मुख्यधारा में आ पाएं। राजस्थान के प्रमुख शासन सचिव ने महिलाओं के लिए चालू हालत में शौचालय की बात की। पुणे के एक स्थानीय पार्षद ने ट्रांसजेंडर लोगों के लिए सुविधाओं की बात की और गुजरात के शिक्षा मंत्री के साथ शैक्षणिक पाठ्यक्रम में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों पर जानकारी को एकीकृत करने की आवश्यकता पर चर्चा की गई। संवाद को आगे बढ़ाते हुए, इसके बाद फ़्रांस के शहरों में भी आयोजन किया गया ताकि भारत और फ़्रांस के शहर एक-दूसरे से सीख पाएं और सांझे समाधान की ओर पहुंचे।

दुनिया की अग्रणी वास्तुकला फर्मों में उच्चतम रैंकिंग वाली नौकरियों में केवल 10 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसीलिए शहरों की योजनाएं हमेशा पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं और श्रम के लिंग विभाजन को पुनः स्थापित करती हुई ही बनाई जाती हैं।

अभियान के निष्कर्ष

हर जगह पर, हर वक़्त पर मुख्यतः पुरुष अपने निजी वाहन के साथ नज़र आते हैं। हर शहर में महिलाओं का घूमना रात के वक़्त ना के बराबर हो जाता है। ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए सार्वजानिक परिवहन एक मुख्य चुनौती हैं और पार्क ही थोड़ा बहुत प्रवेश के लिए एक खुली जगह है। जयपुर की महिलाओं के लिए मंदिर सबसे पसंदीदा सार्वजानिक स्थान है। भक्ति एक कारण है लेकिन दूसरा मुख्य कारण यह है कि मॉल जाने की अनुमति के बजाय मंदिरों के दर्शन के लिए परिवारों से अनुमति प्राप्त करना बहुत आसान है। निम्न आय वर्ग के पुरुष भी मंदिरों में जाना पसंद करते हैं क्योंकि वे सब के लिए खुले और नि:शुल्क हैं। 

शहर में महिलाओं की गतिशीलता अक्सर बस और मेट्रो जैसे सार्वजनिक परिवहन से जुड़ी होती है। अधिकतर महिलाएं बड़े समूह में बस या मेट्रो के माध्यम से ही शहर घूमने का आनंद उठाती हैं। सार्वजानिक परिवहन उनके लिए आराम की जगह भी बन गए हैं। बहुत सी महिलाओं के लिए मेट्रो एक नई और आज़ादी देने वाली जगह है, वहीं एक बड़ी संख्या के लिए वह महँगी होने के कारण पहुंच से बाहर भी है। कम उम्र की महिलाओं की तुलना में वृद्ध महिलाओं के पास अधिक स्वतंत्रता और स्वयं अकेले यात्रा करने की आज़ादी है। 

क्या विकास हमेशा विस्थापन की कीमत पर ही होगा

चंडीगढ़, प्रसिद्ध फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कॉर्बूजियर द्वारा डिजाइन किया गया था, लेकिन उसे वहां मौजूद बहुत सारे गाँवों को हटाकर बनाया गया था। क्या विकास हमेशा विस्थापन की कीमत पर ही होता रहेगा? आज भी चंडीगढ़ में काम करने वाले लोग वहां रहने की उच्च लागत की वजह से शहर के बाहरी हिस्सों में ही रहने को मजबूर हैं। चंडीगढ़ में जहां नई पीढ़ी मॉल जा रही है, पुरानी पीढ़ियां स्थानीय बाज़ार जाना पसंद करती हैं। स्थानीय बाज़ार जाने वाले लोग ठेला लगाने वालों को शहर का महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं लेकिन अब अतिक्रमण हटाने के नाम पर रेड़ीवालों को सार्वजनिक स्थानों से बेदखल करना आम बात होती जा रही है। 

भारत के शैक्षणिक संस्थानों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए पहला शौचालय पंजाब विश्वविद्यालय में एक ट्रांस कार्यकर्ता धनंजय चौहान के प्रयास से बनाया गया था। उसी शहर में अधिकतर ट्रांसजेंडर लोग यात्रा के महंगे साधन जैसे ऑटो और कैब का चुनाव करने के लिए मजबूर हैं क्योंकि उन्हें सार्वजानिक परिवहन में चुभती नज़रों और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। बहुत बार उन्हें रोज़मर्रा की जगह जैसे दुकान, ब्यूटी पार्लर आदि में भी प्रवेश नहीं मिलता।  

तस्वीर साभारः Bhadas4Media

‘गेड़ी मारना’ अर्थात बिना काम टहलना या गाड़ी चलाने पर पुरुषों का ही कब्ज़ा है और ऐसा करने वाली महिलाओं को बहुत आसानी से ‘बुरे महिला’ होने के टैग से बांध दिया जाता है। साल 2017 में चंडीगढ़ में रात के समय एक महिला का पीछा करने के विरोध में वहां एक सड़क (गेड़ी रूट) पर बेख़ौफ़ आज़ादी मार्च का आयोजन हुआ था, जिसके बाद महिलाओं की मांग के अनुसार उस सड़क का नाम आज़ादी रूटकर दिया गया। इसे महिलाओं द्वारा सार्वजनिक स्थान को प्राप्त करने के प्रयास के रूप में देखा जाता है। 

ट्रांस समुदाय के लिए हमारे शहरों में कहां जगह है?

अहमदाबाद में देर रात तक जीवन चलता है। वहां की एक महिला का कहना है कि मैं एक बजे तक घूम सकती हूं जब मेरे पति साथ मे हो। यदि मैं अकेली हूँ तो रात 11 बजे तक आस-पड़ोस में जब भी मन चाहे निकलती हूं। अधिकतर एलजीबीटीक्यू+ लोग ऐसे सुरक्षित स्थान का अभाव महसूस करते हैं जहां वो आराम से हाथ पकड़ कर बैठ पाएं। ट्रांस समुदाय के लिए भी प्रेम करने के लिए जगह नहीं हैं इसलिए वे अक्सर ऑनलाइन जगह को ही उपयोग में ले पाते हैं। 

पुणे, जिसे एक वक़्त पर साईकिल शहर कहा जाता था, अब सार्वजानिक परिवहन के अभाव में निजी वाहनों से भर गया है। महिलाएं अधिकतर निजी वाहन में चालक की बजाय यात्री के तौर पर नज़र आती हैं। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोग सुरक्षा के लिए शहर में अपनी जगह बदलते रहते हैं। कहीं भी ट्रांस समुदाय के लिए सार्वजानिक शौचालय नहीं हैं। 

साल 2018 में, एक ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता सोनाली दलवी को पुणे के फीनिक्स मॉल में प्रवेश से वंचित किया गया। इसे चुनौती देने के बाद अब मॉल ने अपनी प्रवेश नीति में बदलाव किया और अब सभी लोगों का स्वागत करता है। बैंगलोर को भारत के आई.टी. केंद्र के रूप में जाना जाता है और उसे महिलाओं के लिए काम करने की दृष्टि से भारत के सबसे अच्छे व सुरक्षित शहरों में गिना जाता है। किसी और सेक्टर की तुलना में आई.टी. सेक्टर में काफ़ी महिलाएं हैं, फिर भी कंपनी बोर्ड में महिलाओं की मौजूदगी बहुत कम है। 

तस्वीर साभारः LGBTQ In The City

दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन की सुविधा दूर तक शहर को जोड़ती है, महिलाओं के लिए बस सुविधा भी मुफ़्त है पर फ़िर भी ड्राइवर हमेशा सभी के लिए नहीं रुकते, ख़ासतौर पर आर्थिक रूप से कमज़ोर महिलाओं और ट्रांस महिलाओं के लिए। दिल्ली मेट्रो में महिलाओं के लिए एक रिजर्व कोच ने महिलाओं को शहर में गतिशीलता देने में मदद की है। दिल्ली जैसे शहर में भी ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग मेट्रो की जगह ऑटो से यात्रा करना पसंद करते हैं। इसकी वजह मेट्रो में, तलाशी के दौरान बाइनरी (केवल पुरुष व महिलाओं के लिए) सुरक्षा जांच पॉइंट पर असहज और अलग-थलग महसूस करते हैं। मकान मालिक ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को या तो किराये पर मकान देने से इनकार कर देते हैं, या अनुपातिक रूप से अधिक किराया लेते हैं। 

क्यों ज़रूरी हैं ऐसे सवाल?

2015 में अपनाए गए, संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में शहरों को समावेशी, सुरक्षित और सस्टेनेबल बनाने का आह्वान शामिल है, विशेष रूप से महिलाओं पर ध्यान देते हुए। दुनिया की अग्रणी वास्तुकला फर्मों में उच्चतम रैंकिंग वाली नौकरियों में केवल 10 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसीलिए शहरों की योजनाएं हमेशा पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं और श्रम के लिंग विभाजन को पुनः स्थापित करती हुई ही बनाई जाती हैं। पुरुष, महिलाएं, लैंगिक अल्पसंख्यक और विभिन्न क्षमताओं के लोग सार्वजनिक स्थान का अलग-अलग तरीकों से उपयोग करते हैं। हालांकि, शहर “तटस्थ” पुरुष उपयोगकर्ताओं के लिए ही बनाए गए हैं। वर्ल्ड बैंक की स्टडी के अनुसार वंचित समूहों की सार्वजनिक क्षेत्र में भागीदारी सुरक्षा और पहुंच को बढ़ावा दे सकती है और यह भागीदारी जेंडर लेंस के साथ नियोजन के द्वारा ही मुमकिन है।

‘गेड़ी मारना’ अर्थात बिना काम टहलना या गाड़ी चलाने पर पुरुषों का ही कब्ज़ा है और ऐसा करने वाली महिलाओं को बहुत आसानी से ‘बुरे महिला’ होने के टैग से बांध दिया जाता है

सार्वजनिक जगहों पर पुरुष ही क्यों नज़र आते हैं?

जो लोग हमारे शहरों के बारे में योजनाएं बनाते हैं, क्या वे विभिन्न सामाजिक पृष्टभूमि के लोगों के बारे में सोचते हैं? लगभग शहरों के केंद्र में उच्च आय वर्ग के लोगों के मकान क्यों होते हैं, जबकि उनके पास तो लम्बी दूरी तय करने के लिए निजी वाहन भी हैं? निम्न आय वर्ग की कॉलोनियां हमेशा अनियोजित, संकरी गलियों वाली और निगम के कर्मचारियों की नज़र से दूर क्यों होती हैं? श्रमिक वर्ग हर शहर में सरहद पर झुग्गियों में रहने पर क्यों मजबूर है? कितने छोटे शहरों में सबके लिए सुलभ सार्वजनिक मनोरंजन के स्थान हैं? कुछ सरकारी इमारतों के इतर, सार्वजानिक जगहों पर व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने वालों के लिए रैंप की ऊंचाई और उसकी ढ़लान कितनी दुर्गम होती है।

हर गली, नुक्कड़, चौराहे, दुकान पर केवल पुरुष ही सड़क तक कुर्सी डाले बैठे नज़र आते हैं। महिलाओं और ट्रांसजेंडर के लिए शहर का कौनसा कोना सुरक्षित है और किस जगह वे घूरती नज़रों से आराम पा सकते हैं? ऐसे अनगिनत सवाल हैं।इतिहास में हम शहरों को केवल पुरुषों के लिए बनाते आए हैं क्योंकि महिलाओं को तो घर की दहलीज़ में रहना होता था। शायद हमें अब हर स्तर पर पुनः विचार करने की ज़रुरत है। 


स्रोतः

  1. Social Design Collab
  2. City For All

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content