समाजख़बर पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल महिलाओं के बीच अधिक, इसे और बेहतर किए जाने की है ज़रूरत

पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल महिलाओं के बीच अधिक, इसे और बेहतर किए जाने की है ज़रूरत

रिपोर्ट के अनुसार 27.4 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले 45.4 प्रतिशत महिलाएं पैदल अपने काम पर जाती हैं। अधिकतर महिलाएं बस से यात्रा करती हैं। 13.7 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले 22 प्रतिशत महिलाएं बस से जाना चुनती हैं।

वर्तमान में मुंबई में काम करने वाली प्रियंका एक नौकरीपेशा महिला हैं। वह रोज दफ़्तर से घर की दूरी पब्लिक ट्रांसपोर्ट से तय करती है। सार्वजनिक परिवहन पर अपने अनुभवों के बारे में प्रियंका कहना है, “मैं नौकरी के चलते लगातार कई शहरों में रह चुकी हूं। हर जगह जाकर अपनी गाड़ी तो नहीं खरीद सकती इसलिए हर शहर में ऑफिस जाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट ही इस्तेमाल करती हूं। हर शहर का अनुभव अलग है। बड़े शहरों में स्थिति बेहतर होती है, ज्यादातर बस या मेट्रो जैसे ऑप्शन होने की वजह से आसानी रहती है। वहीं, अगर छोटे शहरों की बात करें तो वहां स्थिति इसके मुकाबले कठिन हो जाती है। जब आपकी पोस्टिंग ऐसे टू-थ्री टियर सिटी में होती है तो घर जाने की ख़ासतौर पर शाम को स्थिति कई बार परेशान भी करती है। वहां एक बस या ट्रेन का छूट जाना बहुत ज्यादा परेशानी में डाल देता है। वैसे भी भले ही आज मेरी मुंबई में पोस्टिंग है लेकिन यहां भी मुझे वक्त रहते घर पर पहुंचने की बात दिमाग में रहती है। दूसरी और यहां का पब्लिक ट्रासपोर्ट का किराया भी दिल्ली के मुकाबले मंहगा है। इससे अलग मैं अपने अनुभव से कह सकती हूं कि मुंबई एक महिला के लिए अकेले सफ़र करने में एक बेहतर सिटी है। लेकिन इस देश का जो सिस्टम है और लोगों की जो सोच है उसको भुलाया नहीं जा सकता है इसलिए अलर्ट होकर तो रहना ही पड़ता है।”

वहीं, मेरठ की रहनेवाली मेघा (बदला हुआ नाम) रोज अपने घर से ऑफिस जाने के लिए लगभग एक घंटा सार्वजनिक वाहनों में गुज़ारती हैं। आठ साल से एक निजी संस्थान में नौकरी करने वली मेघा का कहना है, “रोज सफ़र करना भी मेरी ड्यूटी का ही हिस्सा है। मुझे खुद वाहन चलाना नहीं आता है, सड़कों की जो स्थिति है, हाईवे की रफ़्तार है, उस हिसाब से तो पब्लिक बस मेरे लिए बेहतर विकल्प है। लेकिन एक महिला होने के नाते हमारे देश में महिलाओं का बस में जाना बहुत परेशानी भरा भी है। बसों में होनेवाला उत्पीड़न और घूरना बहुत आम बात है। इसको नज़रअंदाज़ करना ही मैंने सीख लिया है। जो बात मुझे सबसे बुरी लगती है वह यह कि मर्द हमारे स्पेस को भी अपना मानकर हमें ही ताने देते दिखते हैं। अक्सर महिला सीट के लिए लड़ना पड़ता है या फिर पुरुष जानबूझकर सटकर बैठने की कोशिश करते हैं।”

प्रियंका हो या मेघा ये भारत की वे महिलाएं हैं जो एक जगह से दूसरी जगह पर जाने के लिए पूरी तरह से भारतीय सार्वजनिक परिवहन सेवाओं पर निर्भर हैं। भले ही इनके अनुभव कैसे भी हो लेकिन हर दिन काम पर जाने के लिए ऐसी लाखों-करोड़ों महिलाएं बस, ट्रेन, लोकल के इंतजार पर अपने स्टॉप पर पहुंच जाती है। भारत की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था के तहत वैसे भी महिलाएं आवाजाही के लिए ज्यादातर घर के पुरुषों पर निर्भर रहती हैं।

बड़े या छोटे शहरों में महिलाओं के लिए ये तस्वीर बदल रही है। वे घर से अकेले बाहर निकलकर काम पर जाती या फिर बाज़ार, पार्क आदि सार्वजनिक स्पेस में अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रही हैं। अब महिलाएं बसों, ट्रेन, ऑटो में अकेले सफ़र करती दिखती हैं। हाल ही में जारी विश्व बैंक ने भी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत के शहरों में महिलाएं बड़ी संख्या में सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करती हैं। 

अधिकतर महिलाएं बस से यात्रा करती हैं। 13.7 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले 22 प्रतिशत महिलाएं बस से जाना चुनती हैं। इससे अलग 28.6 फीसदी आदमी निजी वाहनों का इस्तेमाल करते हैं महिलाओं में इसकी दर 15.8 फीसद है। यही नहीं वे अक्सर धीमी गति के माध्यम को भी चुनती हैं क्योंकि अधिक स्पीड वाले पब्लिक ट्रांसपोर्ट महंगे होते हैं। 

विश्व बैंक ने एक टूलकिट एनेबलिंग जेंडर रेस्पॉन्सिव अर्बन मोबिलिटी एंड पब्लिक स्पेसेज इन इंडिया में बताया है कि पुरुषों के मुकाबले भारत में महिलाएं सार्वजनिक यातायात के साधनों का इस्तेमाल करने में आगे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़ काम के लिए महिलाएं ई 84 फीसदी यात्राओं को पब्लिक, इंटमीडिएट पब्लिक और नॉन-मोटराइज्ड ट्रांसपोर्ट से पूरा करती है। विश्व बैंक ने यह भी कहा है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाएं पैदल काम पर अधिक जाती हैं। पब्लिक बस या पैदल यात्रा महिलाओं द्वारा सार्वजनिक परिवहन के तौर पर सबसे अधिक इस्तेमाल किए जानेवाले साधनों में से एक हैं।

रिपोर्ट के अनुसार 27.4 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले 45.4 प्रतिशत महिलाएं पैदल अपने काम पर जाती हैं। अधिकतर महिलाएं बस से यात्रा करती हैं। 13.7 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले 22 प्रतिशत महिलाएं बस से जाना चुनती हैं। इससे अलग 28.6 फीसदी आदमी निजी वाहनों का इस्तेमाल करते हैं, महिलाओं में इसकी दर 15.8 फीसद है। यही नहीं, वे अक्सर धीमी गति के माध्यम को भी चुनती हैं क्योंकि अधिक स्पीड वाले पब्लिक ट्रांसपोर्ट महंगे होते हैं। 

महिलाएं चुकाती हैं ज्यादा पैसा

विश्व बैंक ने यह टूलकिट साल 2019 में मुंबई में 6,048 लोगों पर किए सर्वे के बाद डिजाइन की। इस सर्वे में पाया गया 2004 से 2019 के बीच पुरुष अधिक टू-व्हीलर के इस्तेमाल करने लगे जबकि महिलाएं ऑटो रिक्शा या टैक्सी का इस्तेमाल करती थीं, जो दोपहिया वाहनों की तुलना में मंहगा होता है। महिलाओं पर इस तरह से आर्थिक तौर पर ज्यादा भार पड़ता है।

इस रिपोर्ट में सार्वजनिक वाहन और महिलाओं की सुरक्षा के पहलू पर भी बात की गई है। साथ ही कहा गया है कि सुरक्षा की कमी भी महिलाओं को बाहर निकलने से रोकती है। इससे सार्वजनिक जगहों पर उनकी उपस्थिति पर असर पड़ता है। रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के दिए डेटा के मुताबिक़ उत्पीड़न की वजह से 95 प्रतिशत महिलाओं की आवाजाही प्रतिबंधित थी। इतना ही नहीं रिपोर्ट के अनुसार सुरक्षा की वजह से महिलाएं ट्रांसपोर्ट पर ज्यादा खर्च तक करती हैं और सुरक्षा की वजह से वे नॉन शेयर टैक्सी और डायरेक्ट बीच में बिना बदलाव वाली बस या ट्रेन को महत्व देती हैं। 

बड़े या छोटे शहरों में महिलाओं के लिए ये तस्वीर बदल रही है। वे घर से अकेले बाहर निकलकर काम पर जाती या फिर बाज़ार, पार्क आदि सार्वजनिक स्पेस में अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रही हैं। अब महिलाएं बसों, ट्रेन, ऑटो में अकेले सफ़र करती दिखती हैं। हाल ही में जारी विश्व बैंक ने भी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत के शहरों में महिलाएं बड़ी संख्या में सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करती हैं। 

जगहों को लेकर महिलाओं का अनुभव बिल्कुल अलग होता है क्योंकि वे सुरक्षा के मानदंड पर इसे अलग तरह से देखती हैं। मुजफ़्फ़रनगर जिले के पास के कस्बे के एक स्कूल में टीचर के तौर पर काम करने वाली रोजी का कहना है, “जब मेरी पोस्टिंग इस स्कूल में हुई मुझे पहली जो बात दिमाग में आई थी वह यह थी कि मैं रोज आना-जाना कैसे करूंगी। घर से स्कूल के लिए रोज मुझे रिक्शा और बस से सफर करना होता है। रिक्शा और बस दोंनो से आने-जाने में बहुत थकावट होती है। बस से केवल 14-15 किलोमीटर की दूरी तय करना इस रूट पर आसान काम नहीं है। ना तो ज्यादा बसें है, स्कूल की छुट्टी के समय भीड़ भी ज्यादा रहती है और सीट न मिलने पर घबराहट लगी रहती है। अक्सर इस तरह की भीड़ से भरी बसों में हम औरतों के साथ उत्पीड़न होना भी आम माना जाता है। मैं अक्सर अपने रोज के बस से सफर करने पर कभी-कभी बहुत उखड़ा हुआ महसूस करती हूं। जबतक घर वापस नहीं आती हूं एक बेचैनी सी बनी रहती है। मालूम होता है कि अगले दिन दोबारा जाना है लेकिन ये सब भी रूटीन बन गया है।”

सार्वजनिक परिवहन और महिला सुरक्षा

भारत में यातायात और महिलाओं की सुरक्षा एक जटिल मुद्दा है। यहां सुरक्षा के नाम पर ही महिलाओं या लड़कियों को घर से बाहर निकलने नहीं दिया जाता है। आज भी कई महिलाओं और लड़कियों का अपने घर से दूर पढ़ने या काम करने जाना केवल सार्वजनिक जगह और वाहनों में उनकी सुरक्षा से जुड़ा है। 2021 के ओआरएफ के मेट्रोपॉलिटन एरिया में किए गए एक ऑनलाइन सर्वे के मुताबिक 56 प्रतिशत महिलाएं जो सार्वजनिक परिवहनों का इस्तेमाल करती हैं उन्होंने यौन उत्पीड़न होने की बात कही थी।

तमाम आंकडे और रिपोर्ट इस बात को हमेशा से सामने रखती आई हैं कि सार्वजनिक परिवहन महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं हैं लेकिन बावजूद इसके देश की बड़ी संख्या में महिलाएं काम पर जाने से लेकर अन्य काम करने के लिए सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करती हैं। इंडियास्पेड में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक भारत की अमीर युवा वर्ग की महिलाएं सार्वजनिक परिवहन से डरती हैं। लेख में कहा गया है कि उच्च आय वाले समूह की किशोर लड़कियों के बीच अधिक डर का एक संभावित कारण यह हो सकता है कि वे लड़कियां अधिक आरामदायक जीवन जीती हैं। खुद को परिस्थितियों में ढालने की क्षमता न होने की वजह से अधिक खतरा महसूस करती हैं।

हालांकि, देश में हर महिला या अन्य लोगों के पास ये विशेषाधिकार नहीं है कि वे सार्वजनिक परिवहन में सफऱ करने से परहेज करें। लेख के दौरान जितनी भी कामकाजी महिलाओं से फेमिनिज़म इन इंडिया की बात हुई उनके ज़हन में रोज यात्रा के दौरान सुरक्षा की चिंता बनी रहती है। डर या चिंता के बावजूद मध्यम आय वर्ग और गरीब महिलाओं के पास बस में सफर या पैदल ही अपने काम पर जाना होता है। उनके पास एकमात्र विकल्प यही है इसलिए महिलाओं की सुरक्षा, आर्थिक क्षमता को ध्यान में रखते हुए सिस्टम को बनाने की ज़रूरत है जिससे वे रोज के डर और चिंताओं से बच सकें।

महिलाओं के अनुकूल हो नीतियां

विश्व बैंक की रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि भारतीय सार्वजनिक परिवहन सेवाएं परंपरागत रूप से महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रख नहीं बनाया गया है। इस वजह से भी महिलाएं भारत में काम करने के लिए घर से कम निकल पाती है। विश्व बैंक ने रिपोर्ट में शहरों के बेहतर सार्वजनिक यातायात को स्थापित करने के लिए मार्गदर्शन किया गया है। सार्वजनिक परिवहन को कैसे डिजाइन किया जाए जो सभी की यात्राओं की आवश्यकताओं के लिए समावेशी हो। विश्व बैंक ने दुनिया के अलग-अलग देशों के शहरों के सर्वे में उनके यातायात साधनों को सुधारने की पहल के 50 केस के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है। महिलाओं के लिए सार्वजनिक परिवहन सेवा को स्थापित करने पर जोर दिया है।

हालांकि, देश में हर महिला या अन्य लोगों के पास ये विशेषाधिकार नहीं है कि वे सार्वजनिक परिवहन में सफऱ करने से परहेज करें। लेख के दौरान जितनी भी कामकाजी महिलाओं से फेमिनिज़म इन इंडिया की बात हुई उनके ज़हन में रोज यात्रा के दौरान सुरक्षा की चिंता बनी रहती है। डर या चिंता के बावजूद मध्यम आय वर्ग और गरीब महिलाओं के पास बस में सफर या पैदल ही अपने काम पर जाना होता है।

विश्व बैंक ने टूलकिट में चार तरीके से शहरी परिवहन प्रणाली में सुधार के सुझाव दिए हैं। रिपोर्ट के अनुसार सार्वजनिक जगह और सार्वजनिक यातायात महिलाओं, लड़कियों और अन्य लैंगिक पहचान रखने वाले लोगों के लिए सुरक्षित और सहज बनाना होगा। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सार्वजनिक जगह जैसे स्ट्रीट लाइट, वाकिंग और साइकिलिंग ट्रैक बेहतर किए जाना चाहिए। इसके लिए ग्राउंड पैटर्न को समझकर नीतियां बनानी होंगी। अलग-अलग जेंडर को ध्यान में रखकर योजनाएं बनानी होंगी। क्षमता बढ़ाने और जागरूकता पर जोर देना। रिपोर्ट मे कहा गया है कि कम किराया रखने की भी बहुत आवश्यकता है। इससे अलग-अलग लैंगिक पहचान से आनेवाली संवारियों की संख्या बढ़ सकती है। चौथा संस्थाओं में जेंडर गैप को कम करने को कहा है। सभी लोगों के प्रतिनिधित्व को बढ़ाया जाएं और सार्वजनिक सेवाओं के लिए काम करने वाली एजेंसियों में उन्हें ज्यादा से ज्यादा शामिल किया जाए। सार्वजनिक सेवाओं को समावेशी बनाने वाली नीतियों पर ज़ोर देने की आवश्यकता है। 

गतिशीलता किसी भी वर्ग तक अवसरों और आर्थिक क्षमता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ख़ासतौर पर महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उनकी गतिशीलता बहुत मायने रखती है। लेकिन भारत में महज जेंडर भूमिकाओं की वजह से उन्हें बाहर आने-जाने से रोका जाता है। अगर देश में सुरक्षित और सबकी पहुंच में यातयात व्यवस्था होगी तो महज जेंडर के आधार पर लगी बंदिशों को पीछे छोड़कर बड़ी संख्या में लोग कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ सकते हैं और आत्मनिर्भर बन सकते हैं।


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