इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत हाशिये की कहानियां: स्कूल जाने की उम्र में चूल्हे पर रोटियां पकाने को मजबूर सुंदरी

हाशिये की कहानियां: स्कूल जाने की उम्र में चूल्हे पर रोटियां पकाने को मजबूर सुंदरी

स्कूल जाने और पढ़ाई करने की उम्र में दस साल की सुंदरी चूल्हे में अपने भविष्य को झोंकने के लिए मजबूर है।

एडिटर्स नोट: जाति की परतें हमेशा महिलाओं के संघर्षों को कई गुना ज़्यादा बढ़ाने का काम करती हैं। जब बात युवा महिलाओं की आती है तो उनके संघर्ष को उजागर करने का कोई स्पेस नहीं होता। ग्रामीण उत्तर भारत के हाशियेबद्ध मुसहर समुदाय की युवा महिलाओं के संघर्ष को उजागर करने की दिशा में है ‘हाशिये की कहानियां अभियान एक पहल है। इसका उद्देश्य ग्रामीण युवा महिलाओं की उन युवा महिलाओं की कहानियों को सामने लाना है, जिनकी तरफ़ अक्सर मुख्यधारा का रुख़ उदासीन होने लगता है। इसी पहल में यह कहानी है सुंदरी की। यह लेख स्वाती सिंह ने द रेड डोर एवं क्रिया संस्था द्वारा संचालित यंग विमेन लीडर फ़ेलोशिप के तहत लिखा है।

गर्मी के दिन में कम लकड़ियों की वजह से जलते चूल्हे की उस बुझती-सी आग को जलाए रखने की कोशिश करती उस बच्ची के हाथों में कई निशान हैं। ये निशान आग से जले हुए मालूम होते हैं, जो उसे किताब पकड़ने की उम्र में रोटी पकाने के लिए चूल्हे की आग से मिले हैं। धुंए की धुंध से अपनी आँख साफ़ करती वह बच्ची अपने लिए बेहतर भविष्य की बजाय बस पकी हुई रोटी का ही सपना देखती है, जिससे उसका और उसके परिवार का पेट भरेगा।

इस बच्ची को जब पहली बार देखा था वो उसी चूल्हे के पास रोटियां पका रही थी, जिसने उसके नन्हे हाथ को कई बार जलाने के बाद भी समाज की बतायी गई अच्छी रोटियां सेंकना सीख़ा दिया है। तभी पीछे से खाट पर बैठे एक युवा ने तेज आवाज़ में खाना जल्दी तैयार करने की बात कही, जिसके बाद वह बच्ची अपने काम को अच्छे और जल्दी से पूरा करने में लग गई।

ये बच्ची मिर्ज़ापुर ज़िले के बाड़ापुर गाँव के मुसहर समुदाय की रहने वाली है, जिसका नाम सुंदरी है। सुंदरी पर मेरी पहली नज़र पाठशाला की उस दीवार के एक छेद से पड़ी थी, जहां से वह पाठशाला में पढ़ने वाले बच्चों को चुपके से निहार रही थी। उसी आंखों में एक ललक थी और माथे पर डर का शिकन भी। हमेशा शांत रहने वाली दस साल की सुंदरी लेकिन आज खुश है, क्योंकि उसने अपने रसोई का काम जल्दी ख़त्म कर लिया है। इससे वह आज बस्ती में चलने वाली पाठशाला में जाकर खेल पाएगी। बस्ती में उसके ज़्यादा दोस्त तो नहीं है, लेकिन पाठशाला में आते-जाते एक-दो लड़कियों से बात ज़रूर हो ज़ाया करती है। सुंदरी को दोस्त और पढ़ाई से ज़्यादा खेलना पसंद है, इसलिए वह पाठशाला को पसंद करती है। लेकिन उसे हर रोज़ पाठशाला में जाने का मौक़ा नहीं मिल पाता है। सुंदरी को भागदौड़ वाले खेल बेहद पसंद है।

सुंदरी के टीचर उसके बारे में बताते हुए कहते हैं कि सुंदरी बहुत कम बोलती है। काफ़ी ज़्यादा शांत रहती है और डरी-सहमी रहती है। अपनी बस्ती में ही उसके कोई दोस्त नहीं है, क्योंकि वह कभी अपनी झोपड़ी के बाहर जल्दी आती ही नहीं है। काफ़ी मेहनत के बाद वो अब कभी-कभी पढ़ने आती है, लेकिन उसका पढ़ने से ज़्यादा खेलने में मन लगता है और वह किसी भी खेल को बहुत गंभीरता और मेहनत से खेलती है।

माँ के गुजरने के बाद से सुंदरी पर घर के सारे काम का बोझ आ गया है। माँ की मौत के बाद पिता ने घर छोड़ दिया, जिसके बाद से सुंदरी अपने विकलांग भाई-भाभी के साथ रहती है। भाई और भाभी के लिए खाना पकाने व अन्य घर के काम सुंदरी को ही खुद करना पड़ता है। जब सुंदरी के भाई भाभी से उसके बारे में बात की उन्होंने बताया कि, ‘हमलोग ज़्यादा कहीं आ-जा नहीं सकते है, इसलिए सुंदरी को ज़्यादा काम करना पड़ता है, लेकिन हमलोग इसके लिए कोई अच्छा परिवार खोजेंगें।‘ स्कूल जाने और पढ़ाई करने की उम्र में सुंदरी चूल्हे में अपने भविष्य को झोंकने के लिए मजबूर है। अब इसे विडंबना कहें या दुर्भाग्य कि भाई-भाभी भी दस साल की उस बच्ची के बेहतर भविष्य के लिए शादी के अलावा और कोई रास्ता नहीं सोच पा रहे है।

यों तो इसकी कई वजहों में ग़रीबी, अशिक्षा व मुख्यधारा से दूर होना है, लेकिन मुख्य वजह है – सुंदरी का लड़की होना। अगर सुंदरी लड़का होती तो वो गतिशील होती, वो पाठशाला में बैठकर पढ़ती और अपने जीवन को आगे बढ़ाने के बारे में सोच पाती। लेकिन समाज ने नन्ही-सी उम्र में उस बच्ची की आँखों में घरेलू काम के बोझ के तहत रोटी सेकते हुए हाथ और चूल्हे की धुँध साफ़ करना मानो उसकी नियति बना दिया है। ये सब समुदाय में लड़कियों के लिए बनाए गए कंडिशनिंग का हिस्सा है, जो महिलाओं का अस्तित्व सिर्फ़ चूल्हा-चौका और बच्चे संभालने तक जानती है।

हमेशा शांत रहने वाली दस साल की सुंदरी लेकिन आज खुश है, क्योंकि उसने अपने रसोई का काम जल्दी ख़त्म कर लिया है। इससे वह आज बस्ती में चलने वाली पाठशाला में जाकर खेल पाएगी। बस्ती में उसके ज़्यादा दोस्त तो नहीं है, लेकिन पाठशाला में आते-जाते एक-दो लड़कियों से बात ज़रूर हो ज़ाया करती है। सुंदरी को दोस्त और पढ़ाई से ज़्यादा खेलना पसंद है

बाल-विवाह के दबाव में बढ़ता घरेलू काम का बोझ

यही वजह है कि स्वास्थ्य, रोज़गार, शिक्षा और विकास की धाराओं से दूर जीवनयापन करने को मजबूर मुसहर समुदाय में सुंदरी जैसी कई लड़कियाँ है जिन्हें न केवल जाति बल्कि जेंडर आधारित भेदभाव और बाल-विवाह व बाल-मज़दूरी जैसी हिंसा का भी हर रोज़ शिकार होना पड़ता है। क़ानूनी तौर पर तो बाल-विवाह के ख़िलाफ़ क़ानून सालों पहले बन चुका है, लेकिन इसके विपरीत, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 2019-21 देश में कुल 23.3 % बाल विवाह के मामले दर्ज़ किए गए। अगर हम बात करें उत्तर प्रदेश की तो आज भी अधिकतर बाल-विवाह के मामले मुसहर समुदाय में देखे जा सकते है, जहां किशोरियों को शिक्षा-विकास से दूर कम उम्र में शादी करने पर मजबूर किया जाता है।

शिक्षा को दोहरा भार बनाती पितृसत्तात्मक कंडिशनिंग

सुंदरी को ये अच्छे से मालूम है कि अगर वो सुबह पाठशाला का हिस्सा बनने के बार में भी सोचती है तो उसके लिए उसे अपने घर का सारा काम जल्दी ख़त्म करना पड़ेगा और वो चाहे कितना भी अच्छा पढ़े या सीखे, इन सबका उसके ऊपर काम के दबाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। ऐसे में जब हम घरेलू काम में लड़कियों की भागीदारी पर बात करें तो यहाँ भी घर का काम भार अधितर लड़कियों के हिस्से आता है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 40% लड़कियाँ को अपना अधिकतर समय घर के कामों में बिताना पड़ता है।

सुंदरी के टीचर उसके बारे में बताते हुए कहते हैं कि सुंदरी बहुत कम बोलती है। काफ़ी ज़्यादा शांत रहती है और डरी-सहमी रहती है। अपनी बस्ती में ही उसके कोई दोस्त नहीं है, क्योंकि वह कभी अपनी झोपड़ी के बाहर जल्दी आती ही नहीं है। काफ़ी मेहनत के बाद वो अब कभी-कभी पढ़ने आती है, लेकिन उसका पढ़ने से ज़्यादा खेलने में मन लगता है और वह किसी भी खेल को बहुत गंभीरता और मेहनत से खेलती है।

यूनिसेफ़ के आंकड़ों के अनुसार पाँच साल से चौदह साल की लड़कियां चालीस फ़ीसद अधिक घरेलू काम करना पड़ता है। ये आंकड़े लड़कियों पर घरेलू काम के बोझ को दर्शाते हैं, जो उस कंडिशनिंग को दिखाते हैं जिसे समुदाय की धारणा के अनुसार तैयार किया गया है। कहीं न कहीं यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल ड्रॉप आउट और उच्चतर शिक्षा में लड़कियों की सीमित भागीदारी की प्रमुख वजह लड़कियों पर घरेलू काम का वह बोझ है जो शिक्षा या विकास के अवसर को दोहरे भार के रूप में लड़कियों के सामने रखता है, जिसके अनुसार उन्हें अपने स्कूल जाने से पहले और वापस घर आने के बाद अपने हिस्से के सभी घरेलू काम करने पड़ते है।

इस कंडीशनिंग का प्रभाव शिक्षा के स्तर पर भी हम साफ़ देख सकते है जिसमें साल 2019 को शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21A में 6 साल-14 साल के बच्चों के मौलिक अधिकार के तौर पर जोड़ा गया। लेकिन दूसरी तरफ़ राइट टू एजुकेशन फ़ोरम की ओर से ज़ारी की गयी रिपोर्ट के अनुसार 15 साल -18 साल की 40% प्रतिशत किशोरियां ऐसी हैं जो स्कूल नहीं जाती है। वहीं गरीब परिवारों की लड़कियां ऐसी हैं जिन्होंने क्लासरूम में कदम तक नहीं रखा है।

इन आँकड़ों के बीच जब हम मुसहर समुदाय के आँकड़ों को तलाशने की कोशिश करें तो साल 2011 की ज़नगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश में मुसहर समुदाय की ज़नसंख्या क़रीब 250,000 है।  सरकारी आँकड़ों के अनुसार मुसहर समुदाय में कुल साक्षरता 7500 यानी 3 प्रतिशत है और वहीं महिलाओं में साक्षरता  का स्तर 2500 यानी कि 1 प्रतिशत है। ये सभी आंकड़े समाज में शिक्षा और जेंडर आधारित भेदभाव को दर्शाते है, जो पढ़ने में अजीब या निराशाजनक भी लग सकते हैं। लेकिन इस निराशा के बीच हम उस जवाबदेही से मुँह नहीं मोड़ सकते कि हाशिएबद्ध समुदाय के तौर पर आज भी समाज की मुख्यधारा से दूर जीवनयापन करने को मजबूर मुसहर समुदाय की सुंदरी और ऐसी तमाम बच्चियों की सुध कब ली जाएगी। जो आजतक स्कूल के दरवाज़े तक नहीं पहुँच पायी है, जिसके आँखों में सपनों की बजाय चूल्हे की कालिख ने जगह लेनी शुरू कर दी है और खेल में एक अच्छा करियर बनाने की एक गुंजाइश भी ख़त्म कर दी जाएगी।


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