संस्कृतिकला लोक कला के नाम पर राजस्थानी-हरियाणवी गाने कैसे दे रहे हैं पितृसत्ता को मज़बूती

लोक कला के नाम पर राजस्थानी-हरियाणवी गाने कैसे दे रहे हैं पितृसत्ता को मज़बूती

आज हमारे ज़िले में लगभग हर स्कूल के वार्षिकोत्सव पर भी इन्हीं गानों पर प्रदर्शन होता है। महिला सशक्तिकरण से जुड़े आयोजनों में भी। बिलकुल हर गाना ऐसा नहीं है। लोक गीतों को बचाना भी हमारी ज़िम्मेदारी है। लेकिन कला के माध्यम से समाज को बेहतर बनाना सबसे ज़रूरी है।

कुछ साल पहले हमें हमारे कस्बे के एक स्कूल में वार्षिकोत्सव का आयोजन करने का मौका मिला। हमने बच्चों संग एक थीम चुनी और अपना विचार वहां के दूसरे शिक्षक-शिक्षिकाओं से साझा किया। चूंकि स्कूल को-एड था, हमने हर प्रदर्शन में लड़का और लड़की दोनों की मौजूदगी रखी थी। पड़ोस में लड़कियों का स्कूल होने की वजह से इस स्कूल में छात्राओं की संख्या बेहद कम थी, इसलिए योजना में अधिकतर लड़कों के नृत्य का प्रस्ताव था। इस पर स्कूल के एक शिक्षक हड़बड़ाकर बोले, “लड़के भी कभी नाचते हैं क्या? कौन देखेगा हमारा कार्यक्रम? लोग तो लड़कियों को ही देखने आते हैं और उन्हीं का नृत्य सुन्दर लगता है। आप तो ऐसे पहले ही आयोजन को असफल कर देंगी।” किसी शिक्षक से ऐसी बात सुनना हमारे लिए बहुत अजीब था। इस बात को अनदेखा कर फिर हमने बहुत मेहनत से हिंदी के ‘गैर-आपत्तिजनक’ गाने खोजे और अपनी तैयारी शुरू की।

लेकिन इन ‘गैर-आपत्तिजनक’ गानों से कुछ दिन बाद बच्चे ऊबने लगे। उन्हें डीजे वाले गानों पर नाचना था। हमने उन्हें उन डीजे वाले गानों को अपनी सामाजिक विज्ञान की पुस्तक के नज़रिये से दिखाने की कोशिश की तो उन्हें कुछ-कुछ समझ आया कि कैसे हमारे अधिकतर गाने जातिवादी, नस्लवादी, पितृसत्तात्मक, बेतुके और भेदभाव करनेवाले होते हैं। फिर जब यह तैयारी स्कूल स्टाफ़ से साझा की तो इस बार अधिकतर लोग भड़क गए कि इसमें तो एक भी राजस्थानी गाना नहीं है। एक शिक्षक ने कहा, “वह तो हमारी संस्कृति है। उस पर तो हमें गर्व करना चाहिए। आपको लोक गीतों से क्या आपत्ति है?”

हमने उनसे किसी ऐसे राजस्थानी गाने का सुझाव मांगा जहां महिलाओं के शरीर (पतली कमर, गोरा बदन, ज़ुल्फ़ें, चाल आदि) के इतर कोई बात हो या जिस गाने में महिलाएं पुरुष से मिसरी का बाग़ लगाने की, चूड़ियां-कपड़े लाने की मनुहार नहीं कर रही हों। उन्होंने कहा, “दर्शक को तो तभी मज़ा आता है जब घाघरा पहनकर, चुनड़ी ओढ़कर लड़कियां सांस्कृतिक गीतों पर नाचती हैं और उनकी पतली कमर मटकती है।”  यह पहली बार था जब हमें हमारे आस-पास ऐसे गानों की कमी नज़र आई और जो सामग्री लोक कला के नाम पर प्रचलित है, उसमें शिक्षा और समाज की भूमिका समझ आई। 

हमारे शेखावाटी में जन्मोत्सव, विवाह, सेवानिवृत्ति, स्कूलों का बेहतर परीक्षा परिणाम, चुनावी रैली या किसी भी आयोजन में कला के नाम पे कोरे जातिवादी, पितृसत्तात्मक, जेंडर रोल से भरपूर, हर तरह के भेदभाव को बढ़ाने वाले शब्द ही सुनाई पड़ते हैं? और हम सब भी डीजे की आवाज़ में खोकर, ऐसे फ़ूहड़ गानों पर ‘वाइब’ क्यों करते हैं? ये गीत केवल वाक्य में पिरोये हुए कुछ शब्द नहीं हैं बल्कि ये संगीतकार की विचारधारा के साथ-साथ बड़े समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी भी वक़्त के लोकप्रिय गीत एक तरह के सांस्कृतिक ग्रंथ हैं, जिनका बड़े पैमाने पर निर्माण और उपभोग किया जाता है। हमारी मौजूदा सामाजिक और सांस्कृतिक जलवायु इन गीतों के माध्यम से परिलक्षित होती है। ये गाने यह समझने के लिए सांस्कृतिक संकेतक हैं कि लोग अपने और अपने आसपास की दुनिया को किस तरह से देखते हैं।

इन गानों के ज़रिये संगीत उद्योग समाज की मांग पूरी कर रहा है और समाज संगीत उद्योग की। एक बड़ी जनसंख्या इस सोच से वास्ता रखती है जो इन गानों में ज़ाहिर होती है, तभी तो वे इतने प्रचलित हैं।

जहां एक ओर राजस्थान के मुख्यमंत्री घूंघट के ख़िलाफ़ अभियान चलाने की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रचलित गानों में नायिका कहती है कि वह गज का घूंघट करके चलेंगी। एक दूसरा राजस्थानी गीत 2023 में पूरी तरह घूंघट की तारीफ़ में मग्न है। एक प्रसिद्ध कलाकार द्वारा फिल्माए गाने में पूरी 4 मिनट महिला-पुरुष से घूंघट बैन करने का आग्रह करती है और वह उसे मना करते हुए मारने की धमकी तक देता है और गाँव का रूल ब्रेक नहीं करने देता। अंत में वह कहता है, “अजय हूडा जीभ ने काट देवे, कुछ भी जे आगे बोल भी दिया।” पूरे वीडियो में पुरुष प्रभुत्व झलक रहा है और घरेलू हिंसा को तर्कसंगत ठहराया जा रहा है। हालाँकि वीडियो के अंत में माँ के कहने पर नायक घूंघट हटा देता है लेकिन इसका ज़िक्र गाने में नहीं है और हम सब अपने हाथों से घूंघट का स्टेप कर नाचते हुए मनोरंजन करते रहते हैं। आख़िरकार एक गाना ऐसा भी मिला जहां पुरुष के घूंघट के आग्रह पर महिला गाने के अंत तक उसे समझाती है कि कैसे यह पुराने ज़माने की प्रथा है, लेकिन यह गाना प्रचलित नहीं है और यहां भी महिला को शहरी और नखरेवाली दिखा के पूर्वाग्रहों में बांध दिया गया है।

एक शिक्षक हड़बड़ाकर बोले, “लड़के भी कभी नाचते हैं क्या? कौन देखेगा हमारा कार्यक्रम? लोग तो लड़कियों को ही देखने आते हैं और उन्हीं का नृत्य सुन्दर लगता है। आप तो ऐसे पहले ही आयोजन को असफल कर देंगी।” किसी शिक्षक से ऐसी बात सुनना हमारे लिए बहुत अजीब था। इस बात को अनदेखा कर फिर हमने बहुत मेहनत से हिंदी के ‘गैर-आपत्तिजनक’ गाने ढूंढे और अपनी तैयारी शुरू की।

सिर्फ़ पुरुष की नज़रों से महिलाओं को देखा जाना

द प्रिंट की एक रिपोर्ट बताती है कि 95% हरियाणवी गाने पुरुषों द्वारा लिखे होते हैं और वे महिलाओं को उसी नज़र से देखते हैं जहां उन्हें परदे में रहना चाहिए और जैसे उनका अस्तित्व सिर्फ उनसे कपड़े, चूड़ी, ज़ेवर मांगने और गाड़ी में घूमाने की गुज़ारिश करने से है। एक तरफ संस्कृति के नाम पर मूलभूत आज़ादी का विरोध किया जाता है, दूसरी तरफ वही समाज महिलाओं के शरीर का खुले-आम ओब्जेक्टिफिकेशन करता है। बहुत गानों के तो टाइटल में ही महिलाओं के लिए गाली का प्रयोग है।

ये गीत केवल वाक्य में पिरोये हुए कुछ शब्द नहीं हैं बल्कि ये संगीतकार की विचारधारा के साथ-साथ बड़े समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी भी वक़्त के लोकप्रिय गीत एक तरह के सांस्कृतिक ग्रंथ हैं, जिनका बड़े पैमाने पर निर्माण और उपभोग किया जाता है। हमारी मौजूदा सामाजिक और सांस्कृतिक जलवायु इन गीतों के माध्यम से परिलक्षित होती है। ये गाने यह समझने के लिए सांस्कृतिक संकेतक हैं कि लोग अपने और अपने आसपास की दुनिया को किस तरह से देखते हैं।

कई गानों में महिलाओं को पुरुषों की गुंडागर्दी का फैन दिखाया जाता है और इसके माध्यम से बदमाशी, बंदूक संस्कृति, नशा का सामान्यकरण किया जा रहा है। एक गाने के बोल हैं, ‘तेरे यार ने खोला सेंटर, ‘ट्यूशन दे बदमाशी का और इसमें 14 मर्डर केस, एनकाउंटर, पुलिस को परेशान करना आम बात है। ‘बदनाम गबरू’ नामक गीत में भी कोर्ट में चक्कर लगाना, हिंसा, सड़क पर मारपीट को मर्दाना उपलब्धि के तौर पर दिखाया गया है। इन गानों में महिलाएं या तो इन आदतों पर गर्व करती दिखाई जाती हैं या सुधरने की गुज़ारिश करती हुई। किसी भी स्थिति में उनके पास स्वायत्ता, निर्णय लेने की क्षमता या समझ को नहीं दिखाया गया।

एक दशक पुराना गाना है- ‘भाई रे तेरे दो-दो साली, एक भूरी एक काली, म्हारा भी करवा दे जुगाड़ तू’ जो भारत में व्याप्त रंगभेद और पितृसत्ता की ओर इशारा करता है। महिलाओं को वस्तु की तरह देखना इन गानों की पहचान है और ऐसे वाक्य कि ‘हमारी भी सेटिंग करा दे’ अभी भी पुरुषों में आम बात है। अधिक दुख की बात यह है कि एक दशक बाद भी इतना ही रंगभेदी गाना वायरल होता है जिसमें महिला शिकायत करती है कि मुझे सब ‘बहु काले की‘ कहते हैं और पुरुष इस बात पर ‘सबकी खाल निकाल देने’ जैसी बात करता है।

लेकिन इन ‘गैर-आपत्तिजनक’ गानों से कुछ दिन बाद बच्चे ऊबने लगे। उन्हें डीजे वाले गानों पर नाचना था। हमने उन्हें उन डीजे वाले गानों को अपनी सामाजिक विज्ञान की पुस्तक के नज़रिये से दिखाने की कोशिश की तो उन्हें कुछ-कुछ समझ आया कि कैसे हमारे अधिकतर गाने जातिवादी, नस्लवादी, पितृसत्तात्मक, बेतुके और भेदभाव करनेवाले होते हैं।

इन गानों के ज़रिये संगीत उद्योग समाज की मांग पूरी कर रहा है और समाज संगीत उद्योग की। एक बड़ी जनसंख्या इस सोच से वास्ता रखती है जो इन गानों में ज़ाहिर होती है, तभी तो वे इतने प्रचलित हैं। जो इन्हें सही नहीं मानते, वो भी बार-बार ऐसे वाक्यों को सुन बेहद गलत बातों को अपने मन में सामान्य करते जाते हैं। एक वक़्त तक हम गीत के बोल नज़रअंदाज़ करके धुन पर नाचते हैं और आखिरकार उसी पितृसत्तात्मक विचार का पोषण करते हैं। आज हमारे ज़िले में लगभग हर स्कूल के वार्षिकोत्सव पर भी इन्हीं गानों पर प्रदर्शन होता है। महिला सशक्तिकरण से जुड़े आयोजनों में भी। बिलकुल हर गाना ऐसा नहीं है। लोक गीतों को बचाना भी हमारी ज़िम्मेदारी है। लेकिन कला के माध्यम से समाज को बेहतर बनाना सबसे ज़रूरी है। समाज अपनी भाषा से बहुत जल्दी जुड़ता है। इन गानों के लोकप्रिय होने के पीछे इनकी धुन का भी योगदान है। तो हमारी भाषाओं में, वाइब करने वाली धुन में, प्रगतिशील बातें हो तो? 


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