हम अंततः प्रकृति का हिस्सा हैं इसीलिए प्रकृति में होते किसी भी छोटे से लेकर बड़े बदलाव मानव जीवन में भी बदलाव लाते हैं, जलवायु में आए भयानक परिवर्तन को हम सभी महसूस कर पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार “तापमान और मौसम के स्वरूप में दीर्घकालिक बदलाव ही जलवायु परिवर्तन है। ये बदलाव प्राकृतिक हो सकते हैं, सूर्य की क्रिया में बदलाव से भी हो सकते हैं लेकिन 1800 के दशक से ये बदलाव मानव क्रियाओं की वजह से हो रहे हैं और बहुत जल्दी हो रहे हैं जिसमें जीवाश्म ईधन, कोल, गैस का जलना मुख्य कारण हैं।”
परिवर्तन की इस वजह से प्राकृतिक आपदाएं जैसे सूखा पड़ना, पानी की कमी होना, भयंकर आग लगना, बाढ़ आना, ग्लेशियर की बर्फ पिघलना, बीमारियां पनपना, जैव विविधता ख़त्म होना, तापमान बढ़ना आदि शामिल है। इन सभी आपदाओं से इंसानी जीवन सीधे तौर पर प्रभावित होता है इससे स्वास्थ्य, अन्न उगाने की क्षमता, रहना-सहना, काम, सुरक्षा सभी पर असर पड़ रहा है। लेकिन क्या जलवायु परिवर्तन पृथ्वी पर रह रहे सभी मनुष्यों को एक ही तरह से प्रभावित करता है? इस सवाल का जवाब है “बिल्कुल नहीं”। जलवायु परिवर्तन प्रत्येक देश के नागरिकों को अलग तरह से प्रभावित करता है जैसे छोटे द्वीप राष्ट्रों में रह रहे नागरिक उस देश के नागरिकों से ज़्यादा खतरे में हैं जिनका देश तीन या चारों ओर से भूमि से घिरा हुआ है। विकसित राष्ट्रों की तुलना में विकासशील देश जलवायु परिवर्तन के खतरनाक परिणाम झेलने के घेरे में ज़्यादा हैं क्योंकि इंफ्रास्ट्रक्चर और आपदा प्रबंधन की तैयारी में ऐसे देश अभी बहुत पीछे हैं।
ठीक इसी प्रकार तमाम देशों में रह रहे नागरिकों के अलग-अलग समुदाय भी विभिन्न तरीके से परिणामों का सामना करते हैं इनमें सबसे ज़्यादा प्रभावित होती हैं महिलाएं। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए यूएन वीमन में प्रकाशित एक लेख के अनुसार जलवायु परिवर्तन के प्रभाव “जेंडर न्यूट्रल” नहीं हैं। इसीलिए इससे यह पुष्टि होती है कि महिलाएं, बच्चे और लैंगिक अल्पसंख्यक आपदाओं, प्राकृतिक बदलावों का दंश सबसे अधिक सहते हैं। इससे उनके यौन एवं प्रजनन अधिकार भी प्रभावित होते हैं। सवाल है लेकिन कैसे? इस “कैसे” को समझने से पहले यह जानना भी आवश्यक है कि यौन एवं प्रजनन अधिकारों (सेक्सुअल और रिप्रोडक्टिव राइट्स) में कौन से अधिकार आते हैं।
ह्यूमन राइट्स वॉच और यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन राइट्स ऑफिस ऑफ़ हाई कमिश्नर के अनुसार विभिन्न मानवीय अधिकारों का सम्मिलन यौन एवं प्रजनन अधिकारों में आते हैं। इनमें जीवन का अधिकार, यातना से मुक्त होने का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, निजता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भेदभाव निषेध, प्रसव पूर्व सेवाएं, सुरक्षित प्रसव का अधिकार, अबॉर्शन का अधिकार और गर्भनिरोधक तरीकों तक पहुंच आदि शामिल हैं। इन सभी अधिकारों का हनन जलवायु परिवर्तन की वजह से जब होता है तब महिलाओं के प्रजनन अधिकार एकदम हाशिए पर चले जाते हैं। महिलाओं से जुड़े यौन एवं प्रजनन अधिकार आपदा के समय कई तरह से प्राथमिकता से बाहर होते हैं।
विस्थापन से प्रभावित महिलाओं का स्वास्थ्य
जलवायु परिवर्तन लोगों के विस्थापन यानी प्राकृतिक आपदा की वजह से अपनी जन्मज जगह से कहीं और चले जाने का एक बड़ा कारण है। प्राकृतिक उथल-पुथल से विस्थापित हुए 26 मिलियन लोगों में से 20 मिलियन सिर्फ़ महिलाएं हैं। महिलाएं आर्थिक स्वायत्ता में बेहतर नहीं है इसी वजह से वे यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सुविधा नहीं ले पाती हैं। विस्थापन की वजह से वातावरण में बदलाव आते हैं, जो कि सबसे कम विकसित देशों में महिलाओं की मृत्यु का बड़ा कारण है। इसकी वजह है उनके पास जानकारी का अभाव, कमज़ोर सामाजिक, आर्थिक स्थिति और व्यवहार में दूसरी जगह आने पर बहुत जल्दी बदलाव न आना।
पानी की समस्या और महिला स्वास्थ्य
जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा असर पानी पर दिखा है। जिन स्थानों में पानी की कमी होती है वहां दूर-दूर से महिलाएं, लड़कियां चलकर घर के सदस्यों के लिए पानी लाती हैं, इससे महिलाएं हीटवेव्स, प्रदूषण आदि का ज्यादा सामना करती हैं। नैशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉरमेशन में छपी रिपोर्ट के अनुसार पानी में आर्सेनिक की मात्रा जिन स्थानों में बढ़ी है वहां महिलाएं त्वचा संबंधी, फेफड़े संबंधी बीमारी से ग्रसित होने के साथ-साथ उनका मेनोपॉज उन महिलाओं से दो साल पहले हो गया जो आर्सेनिक की पहुंच में नहीं थीं। समाज में व्याप्त लैंगिक असमानता, महिलाओं को उनके शरीर से लेकर जीवन तक से जुड़े फैसले लेने से रोकती है। आपदाओं और विस्थापन के वक्त भी महिलाओं से यही उम्मीद की जाती है कि वे घर के बाकी सदस्यों की सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद से पहले रखें, कारणवश हम पाते हैं कि महिलाएं अपनी ही सुरक्षा नहीं कर पातीं और जानलेवा घटनाओं का सामना करती हैं।
महिलाएं पर मंडराता यौन हिंसा का खतरा
महिलाओं के सेक्सुअल एंड रिप्रोडक्टिव राइट्स में जीवन का अधिकार, निजता और गरिमा का अधिकार, सेक्सुअल कंसेंट, प्रेगनेंट होना, ना होना सभी का अधिकार शामिल है लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से महिलाओं को जेंडर आधारित हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। इस हिंसा में महिलाओं के साथ यौनिक हिंसा, ट्रांजैक्शनल सेक्स और सेक्स ट्रैफिकिंग होती है। इससे महिलाओं में अनचाही प्रेग्नेंसी और यौन संबंधों से फैलने बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है। आपदा में विस्थापित हुईं महिलाएं और लड़कियां पानी, खाने के लिए लंबा रास्ता तय करती हैं जिस बीच वे हिंसा का सामना होती हैं।
इंडोनेशिया में खेती पर जलवायु संबंधी प्रभाव की वजह से काम के लिए प्रवासन में महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई हैं जो उन्हें यौन हिंसा, तस्करी के जोखिम में डाल रहा है। आपदा में सबसे कम आय वाले देशों में लोग आर्थिक तंगी का सामना करते हैं ऐसे में प्राकृतिक संकट का दंश झेल रहे परिवार बच्चों का ख़ासकर लड़कियों का बाल विवाह कर देते हैं। जलवायु परिवर्तन और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बांग्लादेश और नेपाल में जलवायु परिवर्तन के खतरनाक परिणामों को देखते हुए घर में खराब हो चुके आर्थिक हालातों को सुधारने के लिए लड़कियों को स्कूल से निकालकर उनका विवाह करा दिया गया।
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे ने असमानता भरे समाजों में महिलाओं का उनके शरीर पर अधिकार, फैसलों पर अधिकार आदि मानवीय अधिकारों पर अधिक गहरी चोट दी है जहां उन्हें अपनी जान बिना सोचे अपने “कर्तव्यों” का पालन करते हुए दे देनी है। जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के लिए बनती योजनाओं में महिलाओं और लैंगिक अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के हित को ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है। महिलाओं के पक्ष को नज़रअंदाज करके इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है।
गर्भवती महिलाओं पर जलवायु परिवर्तन का दुष्परिणाम
जलवायु परिवर्तन के कारण आई आपदाएं खाने की सुविधा को अधिक प्रभावित करती हैं, पोषणयुक्त खाना गर्भवती महिला और उसके बच्चे के स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी होता है। आपदा में पोषणयुक्त खाना इन महिलाओं को नहीं मिलता है जिससे मिसकैरिज, मृत जन्मे बच्चे या समय से पहले ही बच्चे का जन्म हो जाता है। गर्भवती महिलाएं मौसम के परिवर्तन से कीड़े-मकौड़ों के संपर्क में आती हैं, जिससे वे मलेरिया, डेंगू जैसी बीमारियों की चपेट में आती हैं। साफ़ पानी की सुविधा न होना और बढ़े हुए तापमान में रहने की वजह उनमें डिहाइड्रेशन होता है, गुर्दे खराब होने का खतरा बढ़ता है जिससे उनका बच्चा और स्वास्थ्य प्रभावित होता है। हम इस बात से सहमति जताएंगे कि मौसम के साथ हमारा मन यानी मनःस्थिति में बदलाव आते हैं, ऐसे ही मानसिक बदलाव गर्भवती महिलाएं महसूस करती हैं जो आपदा की वजह से उन्हें नकारात्मक तरीके से प्रभावित करते हैं जो पोस्ट पार्टम वक्त में उन्हें स्ट्रेस में डाल सकते हैं।
एक अध्ययन में पाया गया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में किसी आपदा के बाद पीटीएसडी और अन्य मानसिक स्वास्थ्य प्रभावों का खतरा बढ़ गया था। जलवायु परिवर्तन को उसके खतरनाक रूप में पहुंचाने के लिए महिलाएं सबसे कम जिम्मेदार हैं क्योंकि विश्व की टेक्नोलॉजी, इकोनॉमी, प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाले तमाम हथकंडों में पुरुष की भागीदारी अधिक है, वे ही ऐसे संस्थानों के कर्ता धर्ता हैं। बावजूद इसके महिलाएं ही इस परिवर्तन में सबसे अधिक प्रभावित हो रही हैं, सह रही हैं, हर तरह की हिंसा झेल रही हैं। जलवायु परिवर्तन से हम अभी और कितना नुकसान झेलेंगे और इससे कैसे निपटेंगे यह बेशक सभी देशों को मिलकर सोचना है, काम करना है। लेकिन उससे भी पहले महिलाओं को कैसे बेहतर जीवन दिया जाए कि वे अपने सभी मानवीय अधिकारों का लाभ ले सकें इस पर भी बात होनी चाहिए, नीतियां बननी चाहिए और उन नीतियों को बनाने में हर समुदाय, देश की महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी होना चाहिए।