स्वतंत्रता दिवस पर लहराता तिरंगा हम सबको उल्लास से भर देता है। देश आज आज़ादी का जश्न मना रहा है। लेकिन इन सबके बीच एक सवाल कसक की तरह मन में उठता है कि आखिर हम स्त्रियों को कितनी आज़ादी मिली। समानता, न्याय और गैरबराबरी का एक भयमुक्त संसार आज़ादी को हासिल होना चाहिए था लेकिन आज़ादी मिलने की बात पर स्त्रियां ठिठक जाती हैं। हम चाहकर भी अपनी स्वतंत्रता पर लगे सवालिया निशान नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। जहां आए दिन स्त्रियों के साथ तमाम हिंसा की खबरें दिल दहला देती हैं।
वहीं, राजनीतिक रूप से मिली सामूहिक हिंसा एकदम से सन्न कर देती है। मणिपुर में हुई यौन हिंसा का बर्बर दृश्य हम भूल ही नहीं पाते। जंतर-मंतर पर घसीटी जा रही महिला पहलवानों को क्या हम इस आज़ादी के जश्न में भूल जाएंगे। स्त्री की यौनिकता का सवाल हो या उसकी आर्थिक आज़ादी का सवाल। हमेशा से हमारा समाज स्त्री अधिकारों के लिए पक्षपाती रहा है लेकिन देश के संविधान ने स्त्रियों को बराबरी का अधिकार दिया है। आज जिस तरह धार्मिकता और लैंगिक भेदभाव के कारण स्त्रियों के साथ अन्याय हो रहा है इससे यह प्रतीत होता है कि संविधान ने स्त्रियों को समता का अधिकार न दिया होता तो इस समाज की सामंती सोच में स्त्रियों की स्थिति और अधिक भयावह होती।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रही प्राची स्त्रियों की आज़ादी को लेकर पूछे गए सवाल पर खीझकर कहती हैं, “स्त्रियों को बस इतनी ही आज़ादी मिली है जितने से यह पुरुष प्रधान समाज, उनकी सत्ता और राजसत्ता चलती रहे। अपनी बात को परिभाषित करते हुए वह आगे कहती हैं कि औरतों को खुद को कैसे देखना है, कैसे रहना है कैसे चलना-फिरना है, क्या खाना है, कहां जाना है, कब जाना है, क्या पहनना है इतने तक कि तो आज़ादी मिली नहीं है तो आखिरी किसे इस आज़ादी में आज़ादी मिली है?
स्त्रियों की आज़ादी की स्थिति को देखा जाए तो राज्य सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण के एक संस्थान के रूप में काम करता दिखाई पड़ता है। जैसे वह समाज की पारंपरिक व्यवस्था का संचालक हो। राज्य महिला सशक्तिकरण के तमाम वादों और दावों की बात करता है लेकिन ये दावे और वादे कितने खोखले हैं। राज्य का पितृसत्तात्मक रवैया है कि उसकी नीति में स्त्रियों के अधिकारों का सिर्फ झूठा महिमाण्डन किया जाता है। राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी उनका प्रतिनिधित्व को बढ़ाने को लेकर आज भी स्त्रियां संघर्षरत हैं। महिला आरक्षण बिल कितने सालों से अधर में लटका हुआ है। सरकारी सेवाओं में उनकी हिस्सेदारी का होना महिला सुरक्षा और महिला अधिकार दोनों दृष्टियों में बहुत महत्वपूर्ण है।
हमारे समाज में औरतों के लिए जिस ढर्रे को सदियों से चलाया जा रहा है उनके लिए जिस सांचे को तैयार किया गया है उन्हें उसी के मुताबिक़ रहना है। स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा व्यवसाय किसी भी क्षेत्र में वो अपनी रुचि से क्षेत्र का चुनाव नहीं कर सकती है। ज्यादातर घरों में उन्हें वहीं तक पढ़ाया जाता है जिस से वे घर और बच्चे संभाल सके या घरवालों की रुचि या ज़रूरत के हिसाब से नौकरी करके उनकी व्यवस्था को उनके लिहाज से चलाएं।
किसी आज़ाद देश के लिए ये बात कितनी दुर्भाग्यपूर्ण है कि और आज आज़ादी के 76 सालों के बाद भी समाज में अधिकतर लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा दी जाती है। वह भी सिर्फ शादी जैसी संस्था चलाने के लिए। अगर वह पढ़ाई करके नौकरी या व्यवसाय करना चाहती हैं तो यह घरवालों पर निर्भर होता है स्त्री का चयन उसकी इच्छा का वहां कोई अर्थ नहीं होता। अभी जो ज्योति मौर्या केस चर्चा में आया उस एक अकेले मसले ने जैसे भारतीय समाज के स्त्री-विरोधी स्वरूप को एकदम से उघाड़ दिया। उस केस ने समाज के सामने एक आईना रख दिया जिसमें समाज की स्त्रीद्वेष प्रकृति को एकदम से आरपार दिखा दिया। उस केस के बाद जाने कितनी स्त्रियों की पढ़ाई छुड़वाकर घर में बिठा दिया गया। कोटा में तो परीक्षा देती एक लड़की का पति उसकी परीक्षा कॉपी को फाड़कर फेंक देता है।
यह पितृसत्तात्मक समाज लड़कियों पर कपड़े पहनने से लेकर सिंदूर, बिंदी और लाल लिपस्टिक लगाने तक तमाम नैतिक निर्णय थोप देती है। विवाह के निर्णय के साथ-साथ बच्चे पैदा करने और मां न बनने में भी वे अपने लिए ख़ुद फैसला नहीं कर सकती। गुजरात में प्रेम-विवाह को रोकने के लिए कानून बनाने का माहौल तैयार किया जा रहा है। ये सब स्त्री की आज़ादी को नियंत्रित करने के लिए सोचा-समझा उठाया गया कदम है। घरेलू हिंसा के लिए सिर्फ कानून बनते हैं लेकिन उसपर अमल नहीं किया जाता क्यों कि ऊपर से नीचे तक इसी तरह की हिंसा करने वाले पुरुष बैठे हैं। इसी तरह कन्या भ्रूण हत्या जैसे मामलों के ख़िलाफ़ भी महज कानून ही बनते हैं। समाजिक कंडीशनिंग ऐसी कि स्त्रियां ये लड़ाई भी घर समाज में हार जाती हैं। संविधान ने भले ही अधिकारों के मामले में मर्द और औरत में भेद नहीं किया है लेकिन पितृसत्तात्मक समाज संविधान से बच निकलने का रास्ता बना लेता है।
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार विश्व की 4 टॉप यूनिवर्सिटी का नेतृ्त्व स्त्रियां कर रही हैं और विश्वभर की 200 से ज्यादा विश्वविद्यालय को महिलाएं ही चला रही हैं। लेकिन भारत इस मामले में आज भी बहुत पीछे है ऐसा नहीं है कि भारत में योग्य महिलाएं नहीं हैं। दिक्कत यह है कि इस देश के दकियानूसी विचारों से स्त्री को अभी भी स्वतंत्रता नही मिली है। लैंगिक असमानता जैसी चीज़ों से अभी भी लड़ना बाकी है। हमारी आज़ादी अभी भी अधूरी है।
इलाहाबाद के सीएमपी कॉलेज में पढ़ रही गरिमा लड़कियों की आज़ादी की बात पर कहती हैं, “बात अगर स्त्रियों और लड़कियों की आज़ादी की कर रहे हैं तो तो मेरे ख़्याल से हम पूरी तरीके से अब तक आज़ाद नहीं हो पाए हैं। आज भी हम जहां रह रहे हैं वहां घरों में अगर किसी मुद्दे पर बात की जाती है तो वहां चाहकर भी स्त्रियां पुरुषों के बीच अपनी बात उतनी सरलता से नहीं रख पाती या फिर रखना चाहती हैं तो उतनी तवज्जो नहीं दी जाती है। उनकी बातों को कुछ अनकहा कहकर टाल दिया जाता है। हमें घर से कहीं बाहर किसी जरूरत बस किसी जगह या घूमने जाना हो या दूर किसी शहर में एक दोस्त से मिलने भी जाना हो तो घर वाले कहेंगे कि अकेले कैसे जाओगी। जमाना बड़ा ख़राब है। तमाम तरह की पाबंदी है घर की हर छोटी से छोटी बात और काम में देखा जा सकता है।”
विवाह में लड़कियों की मर्जी की बात पर गाँव में रखकर पढ़ाई करती सोनाली कहती हैं, “यहां तक कि घर में जिस लड़की की शादी की बात चलती है तो कितने ही लोग या परिवार वाले आज भी ऐसे हैं कि जिस लड़की की बात हो रही है अगर वही लड़की अपनी कुछ बात वहां रखना चाहे तो उसे डांट दिया जाता है यह कहकर कि हम जो करेंगे अच्छा करेंगे। अपनी शादी के मुद्दे पर मैंने हर तरह से बोलने की कोशिश की लेकिन पाती हूं कि फिर भी चीज़ें उतनी नहीं आज़ाद हैं जितना कि एक स्त्री को अपने हक में चाहिए।” भारतीय समाज की पुरातनपंथी ताकतों के कारण स्त्री के चयन से उन्हें सबसे ज्यादा खतरा महसूस होता है। वे खुद चुनाव नहीं कर सकती उन्हें अपना जीवन कैसे और किसके साथ जीना है।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रही प्राची स्त्रियों की आज़ादी को लेकर पूछे गए सवाल पर खीझकर कहती हैं, “स्त्रियों को बस इतनी ही आज़ादी मिली है जितने से यह पुरुष प्रधान समाज, उनकी सत्ता और राजसत्ता चलती रहे। अपनी बात को परिभाषित करते हुए वह आगे कहती हैं कि औरतों को खुद को कैसे देखना है, कैसे रहना है कैसे चलना-फिरना है, क्या खाना है, कहां जाना है, कब जाना है, क्या पहनना है इतने तक कि तो आज़ादी मिली नहीं है तो आखिरी किसे इस आज़ादी में आज़ादी मिली है?
आज़ादी के मायने हम स्त्रियों के लिए बेहद अलग-अलग हैं। हम बहुत सी छोटी-छोटी आज़ादी के लिए तरसते हैं। यहां तक गाँव में रहनेवाली कितनी सारी स्त्रियां सलवार सूट पहनने की आज़ादी के लिए तरसती हैं। स्त्रियों को अभी तक बिना पूछे और बिना किसी से बताए बाहर जाने की आज़ादी नही है। उन्हें बाहर जाने के लिए न सिर्फ किसी से पूछना पड़ता बल्कि कई बार सोचना भी पड़ता है। आज आज़ादी के कई साल बाद भी उन्हें इतनी आज़ादी भी नहीं मिलती की वे बिना किसी काम के बाहर निकलकर घूम सकें। ऊपर से वे काम के लिए भी जाते समय बेफिक्र नहीं रहती हैं। मैं गाँव में ही हमेशा रही हूं। मैंने देखा है कि हमारे आज़ाद देश में स्त्रियों की आज़ादी पर कितने प्रश्न चिन्ह हैं। ऐसी कितनी लड़कियां है जो पढ़ाई तो करती हैं मगर कभी अपने स्कूल या कालेज का मुंह नहीं देख पाती। उन्हें स्कूल जाने की आज़ादी नहीं मिलती।
लेकिन तमाम भेदभाव और अन्याय के विरुद्ध स्त्रियां खड़ी हो रही हैं लड़ रही हैं। अपनी आज़ादी को हासिल करने की लड़ाई में शामिल हो रही हैं। इस देश में तमाम आंदोलन हुए और उन आंदोलनों में स्त्रियों की मुख्य भूमिका रही चाहे। धीरे-धीरे ही सही लेकिन आज वे सत्ता और समाज के लैंगिक आधारित अन्याय से उठते सवालों को लेकर सीधे उनसे मुठभेड़ करती हैं।