भाषा का मानव जीवन के हर हिस्से में प्रथम महत्वपूर्ण योगदान है, यह समाजीकरण (सोशलाइजेशन) का अहम कारक है। इससे हमारी समझ और नज़रिया बनता है इसलिए कानून से लेकर निजी जिंदगी में भाषा का गरिमापूर्ण होना और लैंगिक रूप से संवेदनशील होना बहुत ज़रूरी है। ऐसा न होने पर जेंडर आधारित मौखिक हिंसा और गैरबराबरी की खाई बढ़ने लगती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने इस बात का संज्ञान लेते हुए हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में लैंगिक रूढ़िवाद से लड़ने के लिए, उसकी भाषा बदलने के लिए एक हैंडबुक ‘हैंडबुक ऑन कंबेटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स’ जारी की है।
शब्द वे वाहक होते हैं जो कानून को जनता तक पहुंचाते हैं, ये शब्द महिलाओं के प्रति नकारात्मकता ना बढ़ाएं उसके लिए कानूनी भाषा में सुधार अनिवार्य थे जिसे जस्टिस चंद्रचूड़ ने समझा। यह हैंडबुक लैंगिक रूढ़िवादिता को सुधारती है और विशेष रूप से न्यायिक निर्णय लेने और लेखन में महिलाओं के बारे में हानिकारक लैंगिक रूढ़िवादिता की आलोचना से बचने के बारे में मार्गदर्शन प्रदान करती है।
हैंडबुक जारी करते हुए चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “न्यायिक निर्णय लेने में पूर्व निर्धारित रूढ़िवादिता पर भरोसा करना न्यायाधीशों के प्रत्येक मामले को उसके गुण-दोष के आधार पर स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से तय करने के कर्तव्य का उल्लंघन है।” नये शब्द जो इस हैंडबुक में जोड़े गए हैं, वे न्यायाधीशों और वकीलों द्वारा इस्तेमाल करना अनिवार्य है। यह भाषा के विशिष्ट उदाहरण भी प्रदान करता है जिन्हें अधिक तटस्थ और सटीक शब्दों से प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए।
हैंडबुक में कहा गया है, “जब न्यायिक प्रवचन की भाषा महिलाओं के बारे में पुरातनपंथी या गलत विचारों को दर्शाती है, तब यह कानून और भारत के संविधान की परिवर्तनकारी परियोजना को बाधित करती है, जो जेंडर की परवाह किए बिना सभी व्यक्तियों के लिए समान अधिकार सुरक्षित करना चाहता है।”
किस तरह के नये शब्दों को दी गई है प्राथमिकता
संवैधानिक मूल्यों को प्राथमिकता देते हुए इस हैंडबुक में समाज में प्रचलित, जेंडर आधारित क्रूर और अपमानजनक शब्दों को जेंडर न्यूट्रल और सम्मानजनक शब्दों से बदला गया है। उदाहरण के तौर पर, ईवटीजिंग को स्ट्रीट सेक्सुअल हैरेसमेंट, प्रोवोकेटिंग क्लोथिंग/ड्रेस को सिर्फ ड्रेस, प्रॉस्टिट्यूट को सेक्स वर्कर, सेक्स चेंज को सेक्स रिअसाइनमेंट/जेंडर ट्रांजिशन से, करियर वूमन/फॉलन वूमेन/सेडक्ट्रेस/हरलोट/होर को सिर्फ़ महिला/वूमन, गैरशादीशुदा मां की जगह सिर्फ़ मां, वायलेटेड के स्थान पर सेक्सुअली हैरेस्ड/एसाल्टेड/रेप्ड, आदि शब्दों के अल्टरनेट शब्द सुझाए गए हैं।
हैंडबुक जारी करते हुए चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “न्यायिक निर्णय लेने में पूर्व निर्धारित रूढ़िवादिता पर भरोसा करना न्यायाधीशों के प्रत्येक मामले को उसके गुण-दोष के आधार पर स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से तय करने के कर्तव्य का उल्लंघन है।”
ये शब्द धीरे-धीरे आम बोलचाल का हिस्सा जब बनेंगे तब लोगों के दिमाग़ में मौजूद लैंगिक पूर्वाग्रह में बदलाव आएंगे। ये बदलाव महिलाओं के मानसिक तनाव में कुछ राहत का काम जरूर करेंगे। लेकिन ये शब्द और किस ओर इशारा कर रहे हैं? ये शब्द कानून और न्यायिक व्यवथा में व्याप्त पितृसत्तात्मक रवैया, भाषा को चुनौती भी देंगे जिसमें महिलाएं एक ‘जागीर’ की तरह चिन्हित की जाती रही हैं।
लैंगिक रूप से संवेदनशील, न्यूट्रल भाषा की पैरवी करते हुए इस पुस्तिका में लिखा गया है कि यहां तक कि जब रूढ़िबद्ध भाषा का उपयोग किसी मामले के नतीजे को नहीं बदलता है, तब भी रूढ़िबद्ध भाषा हमारे संवैधानिक लोकाचार के विपरीत विचारों को मजबूत कर सकती है। कानून के लिए भाषा महत्वपूर्ण है। शब्द वह साधन हैं जिसके माध्यम से कानून के मूल्यों का संचार किया जाता है। शब्द कानून निर्माता या न्यायाधीश के अंतिम इरादे को राष्ट्र तक पहुंचाते हैं।
लैंगिक पूर्वाग्रह से लड़ने में कैसे मदद करेगी हैंडबुक
पूर्वाग्रह या रूढ़िवाद अचेतन रुप से हमारे जीवन में काम करते हैं। हम दूसरे व्यक्ति को जाने बगैर उसके बारे में राय बनाते हैं। ऐसा व्यवहारिक बातचीत के कारण संभव होता है। इससे एक व्यक्ति विशेष के गुणों को दरकिनार कर देते हैं। इस कारण से किसी केस में फैसला सुनाते वक्त जज के अंदर पनपते पूर्वाग्रह कानूनी फैसले की दशा और दिशा बदल सकते हैं। पूर्वाग्रह काम करने की जगह, शिक्षण संस्था आदि जगहों पर भेदभाव, बहिष्कार को पनपने का मौका देते हैं। हैंडबुक ने जो शब्दवाली प्रस्तुत की है वह कोर्ट के परिसर से लेकर आम लोगों द्वारा इस्तेमाल जब की जाएगी तब अचेतन रूप से नज़रिये में बदलाव आने की संभावनाएं बनती हैं।
न्यायिक निर्णय में पारदर्शिता लाएगी नयी शब्दावली
भाषा किस तरह किसी फ़ैसले का रुख़ बदल सकती है उसके दो उदाहरण देखते हैं। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक पहला, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले में दोषियों को मौत की सजा सुनाई। फैसले में बलात्कार कहने के लिए बार-बार ‘रैश्ड’ शब्द का इस्तेमाल किया गया। दूसरा, केरल उच्च न्यायालय के 2017 के एक फैसले में कहा गया था कि 24 साल की लड़की कमजोर और असुरक्षित है, जिसका कई तरह से शोषण किया जा सकता है। इनमें गलती महिला की लग रही है और अपराधियों को संज्ञान से एकदम मुक्त कर दिया है जबकि ज़ोर अपराधियों के कृत्य पर होना चाहिए था।
न्यायिक प्रक्रिया में जज, वकीलों की भाषा जब पूर्वाग्रह से ग्रसित होती है तब वे अधिकतर सर्वाइवर को कठघरे में खड़ा करते हैं। रूढ़िवाद के आधार पर उनके फैसले होने की स्थिति बढ़ जाती है। मसलन एक अच्छी पत्नी, अच्छी मां के स्टीरियोटाइप के आधार पर महिलाओं की परिस्थिति को नज़रंदाज़ करना। साथ ही पितृसत्ता के तय मानकों में महिला को खड़ा करना। जैसे एक सेक्स वर्कर को वर्कर की बजाय अपमानजनक निगाहों से देखना, उनके मुद्दों को तवज्जो न देना। हैंडबुक में जो शब्द इस्तेमाल किए गए हैं वह व्यक्ति विशेष की गरिमा के अनुरूप हैं और केस के दौरान बार बार इन शब्दों का संबोधन महिलाओं की परिस्थितियों को समझने में मदद करेगा। जब प्रॉस्टिट्यूट को सेक्स वर्कर कहा जाएगा तब एक वर्कर से संबंधित मुद्दे जैसे आय, स्वास्थ्य आदि पर भी बात की जाएगी। यह हैंडबुक पितृसत्तात्मक, जेंडर आधारित भेदभाव समाज में कानूनी भाषा में लैंगिक रूप से संवेदनशील की ओर बढ़ने का पहला कदम है माना जा सकता है लेकिन इसके परिचय भर से बहुत सकारात्मक बदलाव आ जाएंगे ये कहना थोड़ा मुश्किल होगा।
थ्योरी में नये शब्द आ जाने भर से ज़मीनी भाषा शैली एकदम सुधर जाएगी ऐसा नहीं है क्योंकि थाने के अफसर से लेकर, केस लड़ता वकील पितृसत्तात्मक समाज की उपज है। वह किसी महिला को पहले उसके जेंडर और फिर उसकी क्या गलती रही होगी पर पहले मापता है। यह हैंडबुक जो पहला कदम है उसे भारतीय जमीन पर सारभौमिक बनाना पड़ेगा। स्कूल की पहली कक्षा से बच्चों को बताना होगा कि ईव टीजिंग एक स्ट्रीट सेक्सुअल हैरेसमेंट है। मीडिया, अखबारों, पत्रिकाओं को हैंडबुक में दी गई शब्दावली का इस्तेमाल न्यायिक रूप से करना होगा और महिलाओं के लिए ‘शिकार’ आदि जैसे शब्दों से किनारा करना पड़ेगा क्योंकि ऐसे शब्द आम लोगों में महिलाओं के प्रति हिंसा को ऐसे प्रस्तुत करते हैं जैसे महिला के साथ घटी हिंसा की घटना में उसका योगदान भी बराबर रहा होगा।
जैसे हैंडबुक में प्रोवोकेटिव क्लोथिंग/ड्रेस को सिर्फ़ ड्रेस से बदला गया है, सिर्फ़ प्रोबोकेटिव शब्द हटने भर से ये सोच लोगों में जाएगी कि महिलाएं कैसे भी कपड़े पहनें वह किसी को उनके साथ क्राइम करने की मंजूरी नहीं दे रही हैं। हैंडबुक जारी होने के बाद अब जो फैसले हम सुनेंगे उनमें निसंदेह इस नई शब्दावली का प्रयोग होगा तो सुनने वालों में कुछ तो बदलाव आएंगे।