संस्कृतिसिनेमा बात जनकवि शैलेंद्र और उनके गीतों की

बात जनकवि शैलेंद्र और उनके गीतों की

ज के गीतकारों को शैलेंद्र से बहुत सीखना चाहिए, गीतों में नफरत, धर्मांध, बॉडी शेमिंग, वूमेन ओबेजक्टिफिकेशन आदि चीजें भर देने से वे गाने एवरग्रीन नहीं हो जाते हैं और आम जनमानस की आवाज़ तो बिलकुल भी नहीं। जेंजी गानों के नाम पर भाषा की फूहड़ता की दौड़ बहुत लंबी नहीं है।

“किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार…किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार…किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार…जीना इसी का नाम है।” गीतकार शैलेन्द्र ने साल 1959 में फिल्म ‘अनाड़ी’ के लिए यह गाना लिखा, हिंदी सिनेमा जगत के ‘मलार्मे‘ कहे जानेवाले शैलेंद्र ने भी नहीं सोचा होगा कि उनका न सिर्फ़ यह गीत बल्कि उनके द्वारा लिखे गए आठ सौ से ज़्यादा गीत इस देश की अवाम की ज़ुबान पर दशकों तक गाए जाते रहेंगे। गीतकार को मिलती हैं फिल्म की वह परिस्थिति और नायक, नायिका जिसके लिए वह गीत रचता है लेकिन सुनने वाले हज़ारों लोग इन्हीं गीतों में अपना जीवन, अपनी परिस्थितियां तलाश लेते हैं।

शैलेंद्र आम जन के जीवन सबसे जुड़े हुए गीतकार साबित हुए, नतीजतन लोगों ने सीखा जिंदगी का मर्म इसमें है कि वह दूसरों के लिए जिए, प्यार को प्राथमिकता दे। शैलेंद्र का जन्म 30 अगस्त 1923 में पाकिस्तान के रावलपिंडी में हुआ था हालांकि उनके पुरखों का रिश्ता आरा, बिहार से था। उनके परिवार की परंपरा में साहित्य नहीं था, कह सकते हैं कि साहित्य से उनका मिलन बहुत आकस्मिक था। ज़िंदगी के शुरुआती साल उन्होंने मथुरा(उत्तर प्रदेश) में जीए जहां किशोरी रमन विद्यालय में उनकी मुलाकात हुई थी इंद्र बहादुर खरे से, मथुरा के रेलवे स्टेशन से सटी सड़कों के पत्थरों पर बैठकर दोनों ने ना जाने कितनी कविताएं खोजी, गढ़ी और एक दूसरे को पढ़ायीं लेकिन छोटे शहरों का एक मसला है वहां के युवाओं को रोजगार की तलाश में बड़े शहरों में पलायन करना ही होता है सो शैलेंद्र ने भी तब के बॉम्बे की ओर रुख कर लिया था।

मथुरा में रह गए थे इंद्र बहादुर खरे जिन्होंने बाद में राष्ट्रीय कविता में ख्याति प्राप्त कर ली थी। बॉम्बे आकर अपने शैलेंद्र ने क्या किया? उन्होंने रोजगार के रूप में एक वेल्डिंग एप्रेंटिस के तौर पर काम करना शुरू कर दिया था, दिन भर काम करके शाम को मुक्त होते शैलेंद्र बॉम्बे नगरी में कविसम्मेलन और मुशायरे देखने, सुनने पहुंच जाते थे। कविताएं सुनने, सुनाने के सिलसिले के दौरान एक रोज़ इप्टा के मंच पर शैलेंद्र अपनी कविता जलता है पंजाब सुना रहे थे और दर्शकों में उन्हें सुन रहे थे एक्टर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर राज कपूर। इसके बाद फिल्म जगत में उनकी दास्तान के किस्से तमाम किताबों, पत्रिकाओं, इंटरनेट पर मौजूद हैं। जो प्रश्न विचलित कर रहे हैं वो हैं कि शैलेंद्र के शब्दों में ऐसा क्या था कि रेलवे स्टेशन पर सामान ढोते कुली से लेकर किसी घर की दीवार पर चढ़ा प्रेमी उनके गीतों में सराबोर था और ओल्ड स्कूल के नाम पर जेंजी कही जाने वाली यह पीढ़ी बंद कमरों में शैलेंद्र के गीत सुनती है।

शैलेंद्र पर जारी डाक टिकट, तस्वीर साभार: Wikipedia

हिन्दी सिनेमा जगत के रैदास कहे जाने वाले शैलेंद्र अपनी पहचान पर मुखर थे? क्या जादू है उनके गीतों में कि वह आम जन के कवि कहे जाते हैं?1954 का वक्त याद करिए, भारत की आज़ादी के मात्र सात साल बाद एक फिल्म आई बूट पॉलिश उसमें शैलेंद्र ने गाना लिखा…”ठहर ज़रा ओ जानेवालेबाबू मिस्टर गोरे कालेकब से बैठे आस लगायेहम मतवाले पॉलिशवालेहम मतवाले पॉलिशवाले”कामगार की नज़र से दुनिया कैसी है, उसका काम कैसा है, उसका ईमान कैसा है इस सबको उन्होंने इस गीत में पिरोया कि विशेषाधिकार प्राप्त लोग थोड़ा ठहर लें, आसपास नज़र घुमा लें और अपना दिल नर्म कर लें तो कामगारों को थोड़ी कम तकलीफ़ हो।ये गाना आपने ज़रूर गुनगुनाया होगा और अगर प्रेम में हों तो मेरा दावा है सौ प्रतिशत आप इस गाने को जानते हैं…”प्यार हुआ इक़रार हुआ हैप्यार से फिर क्यों डरता है दिलकहता है दिल, रस्ता मुश्किलमालूम नहीं है कहाँ मंज़िल प्यार हुआ इक़रार हुआ …”उस दौर से लेकर ना जाने अभी कितनी दशकों तक यह गाना प्रेमिल व्यक्तियों द्वारा गुनगुनाया जाता रहेगा, इसे बैकग्राऊंड म्यूजिक में लगाकर स्कूल, कॉलेज में बच्चे राज कपूर और नरगिस बन शैलेंद्र के शब्दों को ज़िंदा करते रहेंगे। प्रेम पर उपन्यास, लंबी कविताएं और न जाने क्या क्या लिखा गया है, लिखा जा सकता है लेकिन इन सभी के बीच “प्यार हुआ इकरार हुआ है” एवरग्रीन बना रहेगा।

शैलेंद्र मथुरा में रहे थे, ज़ाहिर है लोक गीत परंपरा से वाकिफ रहे होंगे जिसकी झलक फिल्म सीमा (1955) के गाने “तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूँद के प्यासे हमलौटा जो दिया तूने, चले जाएँगे जहाँ से हमतू प्यार का सागर है”में झलकती है। मैं जब दिल्ली विश्विद्यालय में थी तब एक छात्र आंदोलन के दौरान उनका यह गीत सुना था -“तू ज़िंदा है तो ज़िन्दगी की, जीत में यकीन करअगर कहीं है स्वर्ग तो, उतार ला ज़मीन पर ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिनये दिन भी जाएँगे गुजर, गुजर गए हजार दिन सुबह और शाम के रंगे, हुए गगन को चूमकर तू सुन ज़मीन गा रही है, कब से झूम-झूम कर तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर…….”वक्त से, सियासत से जिसके सामने भी लगे कि हम हार रहे हैं, यह वह परिस्थिति नहीं जो हितकारी हो तब यह गाना सिर्फ गाना नहीं होता बल्कि आशाओं का अंबार होता है। आज कितने ही गीत किसी व्यक्ति की आशा बन पाते हैं जिसे वह गाए तो फिर से उठ खड़ा हो?

शैलेंद्र तो वह गीतकार हैं जिन्होंने एक नन्हे शिशु का भी अपने गीतों में ख्याल करा और बड़े जन की शिशु जैसी नींद का, जब वे लिखते हैं -“आजा री आ, निंदिया तू आझिलमिल सितारों से उतर, आँखों में आ, सपने सजाआजा री आ, निंदिया तू आसोई कली, सोया चमन, पीपल तले सोई हवासब रंग गए एक रंग में, तूने ये क्या जादू कियाआजा री आ, निंदिया तू आ…”शैलेंद्र एक समावेशी कवि हैं, उन्होंने तकरीबन हर उस भाव के गाने लिखे जो आम इंसान के जीवन में रोज़ मौजूद रहते हैं। प्यार, काम, अफसोस, दुख, रोमांच आप जिस भाव को उठा लाएं शैलेंद्र का लिखा कोई गीत आपके पास तक चलकर आ जाएगा। उनकी भाषा सरल है, व्यक्ति को शब्दों के जाल में नहीं फंसाती है सीधा संवाद करती है।

फर्श से अर्श पर पहुंचे शैलेंद्र ज़मीन से जुड़े रहे हालांकि जिस ज़मीन से वे आए थे उसका ज़िक्र उन्होंने कभी खुलकर नहीं किया था शायद सिनेमा जगत की सच्चाई से वे वाकिफ रहे हों। 2016 में उनकी कविताओं के संकलन “अन्दर की आग” का विमोचन कार्यक्रम था जिसमें उनके बेटे दिनेश शंकर शैलेंद्र मौजूद थे, उन्होंने खुलासा किया कि उनके पिता धुर्सिया जाति के थे जो बिहार में एक मोची जाति है। बकौल दिनेश, “बड़े होने के दौरान, मेरे माता-पिता ने हमें बताया था कि हम नीची जाति से हैं, लेकिन 20 साल की उम्र के अंत तक मुझे कभी समझ नहीं आया कि इसका क्या मतलब है जब तक कि मैंने अपने पिता के जीवन पर शोध करना शुरू किया।” शैलेंद्र जाति को लेकर मुखर होकर रहते तब भी क्या उन्हें उतना काम मिलता जितना मिला? यह कहा नहीं जा सकता।

फिल्म आह, बूट पॉलिश, बरसात, श्री चार सौ बीस, हमराही, दाग आदि असंख्य फिल्मों के लिए बेहतरीन गीत लिखे। इतने बेहतरीन गीतकार थे शैलेंद्र लेकिन फिल्म जगत उन्हें जिंदगी के एक पल में धोखा दे गया, तीसरी कसम फिल्म बनाई, अच्छा कमा नहीं पाई, उनकी पूंजी भी चली गई, वे डिप्रेस हुए, शराब की लत लगी और अंत में मौत। शैलेंद्र के जीवन गीत के इस अंत से दुख होता है। लेकिन आज के गीतकारों को शैलेंद्र से बहुत सीखना चाहिए, गीतों में नफरत, धर्मांध, बॉडी शेमिंग, वूमेन ओबेजक्टिफिकेशन आदि चीजें भर देने से वे गाने एवरग्रीन नहीं हो जाते हैं और आम जनमानस की आवाज़ तो बिलकुल भी नहीं। जेंजी गानों के नाम पर भाषा की फूहड़ता की दौड़ बहुत लंबी नहीं है। संगीत और उसके लफ्ज़ दिल और दिमाग को जब छूते हैं तो शांति महसूस करते हैं और ऐसी शांति के लिए लोग अकेलेपन में फूहड़ता की ओर नहीं बल्कि शैलेंद्र, साहिर, गुलज़ार की ओर लौटना ही पसंद करते हैं।


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