समाजकानून और नीति जानें, मुस्लिम विधि में महिलाओं के मेहर के अधिकार के बारे में

जानें, मुस्लिम विधि में महिलाओं के मेहर के अधिकार के बारे में

कई महिलाएं मेहर के अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठती हैं लेकिनपितृसत्तात्मक सोच के कारण मेहर का अधिकार अभी भी सभी महिलाओं की पहुंच से दूर है। जब तक खुद मुस्लिम महिलाएं अपने इस हक़ को नहीं जानेंगी और उसके लिए आवाज़ नहीं उठाएंगी तब तक पुरुष पक्ष द्वारा उनके इस हक़ को बड़े सुकून से खाया जाता रहेगा।

महिला सशक्तिकरण अब कोई नारा नहीं रहा है, यह एक विश्वव्यापी आंदोलन है, जिससे हर जगह सामाजिक-कानूनी प्रणालियों में महत्वपूर्ण बदलाव आ रहे हैं। इस आंदोलन के अनुसरण में पहले से स्थापित संस्थानों की भूमिका को फिर से परिभाषित किया जा रहा है और परिवर्तन का समर्थन करने के लिए नए संस्थान सामने आ रहे हैं। पारंपरिक व्यवस्था में लाभकारी परिवर्तन लाने और नयेपन पर प्रतिक्रिया से बचने में आंदोलन का समर्थन करने वाले विद्वानों की व्याख्यात्मक भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। ‘मेहर’ इस्लामी कानून की एक महत्वपूर्ण संस्था है जिसका सीधा संबंध महिलाओं के सशक्तिकरण से है। हाल के दिनों तक, यह विशेष रूप से इस्लामी कानून के तहत सिद्धांतों और पारंपरिक प्रथाओं द्वारा विनियमित किया गया है। बेशक, अधिकांश लोग आज तक उनके बारे में अंजान बने हुए हैं। माना कि प्रयास अभी भी जारी है और इसे और आगे ले जाने की जरूरत है।

मेहर मूल रूप से एक ‘उपहार’ है, जो एक मुस्लिम पति की ओर से उसकी पत्नी को शादी के समय उसकी ईमानदारी और उसके प्रति प्यार के प्रतीक के रूप में दिया जाता है। आसान शब्दों में कहें तो मेहर धन की वह राशि है जो कि किसी औरत को उसके पति द्वारा या पति के संरक्षक द्वारा उसके विवाह के समय दी जाती है। उपहार का विषय पैसा या कोई अन्य मूल्य वाली वस्तु हो सकती है। मेहर की कोई उच्च सीमा नहीं है। यह पत्नी द्वारा कितना भी रखा जा सकता है। यह केवल पत्नी की स्वीकृति पर निर्भर करता है। मेहर के रूप में दी गई वस्तु और संपत्ति पर, स्वामित्व विशेष रूप से पत्नी के पास होता है। पत्नी को मेहर संपत्ति का पूर्ण स्वामित्व प्रदान करना महिलाओं को संपत्ति के अधिकार प्रदान करने और उन्हें एक समान वैवाहिक स्थिति सुनिश्चित करने के लिए इस्लाम द्वारा अपनाए गए क्रांतिकारी उपाय को दर्शाता है। इतना निर्धारित होने के बाद, यह उन विवाहित महिलाओं को, जो पूरे इतिहास में कभी भी इस तरह की स्थिति से वंचित रही थीं, वैवाहिक बंधन के समापन और उसके बाद पुरुषों के साथ समान कानूनी स्थिति में लाती है।

मेहर का उद्देश्य

मुस्लिम विधि में मेहर का उद्देश्य विवाह के अंतर्गत एक ऐसा माध्यम प्रदान करना है, जिसके द्वारा पति अपनी पत्नी की प्रतिष्ठा को अभिव्यक्त करें। इसका दूसरा उद्देश्य, पति द्वारा पत्नी को मेहर केवल पत्नी के लाभ और उसके इस्तेमाल के लिए दिया जाता है। इस रूप में मेहर का मतलब होता है, पत्नी के लिए किसी संपत्ति या धन राशि की व्यवस्था करना ताकि शादी से अलग होने के बाद वह असहाय न रहे।

मेहर की प्रकृति 

मेहर का वर्तमान स्वरूप पैगंबर मुहम्मद साहब ने शुरू किया था और हर मुस्लिम वैध विवाह के लिए यह एक अनिवार्य अंग बना दिया गया। मुस्लिम विधि का मेहर रोमन विधि के “डोनाशिओ प्रोप्टेर नुप्टीएस” से कुछ-कुछ मिलता-जुलता है। रोमन विधि के अंतर्गत ‘डोनाशिओ प्रोप्टेर नुप्टीएस‘ स्वेच्छा पर निर्भर था, लेकिन मुस्लिम विधि के अंतर्गत यह अनिवार्य है। इसके बिना विवाह मान्य नहीं है। भारतीय न्यायालयों और विधिवेत्ताओं ने कई बार मेहर को विक्रय की संविदा में उपस्थित प्रतिफल के समान माना है। मेहर और विक्रय की संविदा के बीच अक्सर यह दिखाया जाता रहा है। पत्नी की तुलना संपत्ति से और मेहर की तुलना मूल्य से की जाती है लेकिन यह गलत है।

मेहर के प्रकार 

मुस्लिम विधि में मेहर के दो प्रकार हैं:

  • उचित मेहर या रिवाजी मेहर: इसे ‘मेहर ए मिस्ल’ के नाम से भी जाना जाता है। यदि मेहर की राशि विवाह के समय निश्चित न की गई हो तब उस स्थिति में पत्नी उचित मेहर की हकदार होती है, चाहे विवाह की संविदा इस शर्त पर हो, कि पत्नी मेहर की प्राप्ति के लिए कोई केस दायर नहीं करेगी। 

प्रश्न यह है कि जिनकी विवाह के समय मेहर की राशि निर्धारित नहीं की गई थी उसे कैसे निर्धारित किया जाए? मुस्लिम विधि के अनुसार उचित मेहर की धनराशि या संपत्ति का निर्धारण करते समय पत्नी पक्ष की महिलाओं के मेहर के साथ-साथ, वहां के रिवाज़ और निम्न कई बातों को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा जैसे:

  • पत्नी का व्यक्तिगत गुण।
  • पत्नी के पिता का सामाजिक स्तर।
  • पत्नी के पितृ कुल की स्त्रियों को दिया गया मेहर।
  • पति की आर्थिक स्थिति।
  • स्थानीय रिवाज
  • तत्कालीन परिस्थितियां

निश्चित मेहर: इसे ‘मेहर ए मुसम्मा’ के नाम से भी जाना जाता है। यदि विवाह की संविदा में मेहर की धनराशि या संपत्ति का उल्लेख होता है तो ऐसा मेहर निश्चित मेहर कहलाता है। अगर विवाह के पक्षकार वयस्क हैं तो वह मेहर की धनराशि विवाह के समय खुद तय कर सकते हैं। मेहर की धनराशि लिखित और मौखिक दोनों प्रकार से तय की जा सकती है। यदि किसी अवयस्क के विवाह की संविदा उसके संरक्षक द्वारा की जाती है, तो ऐसा संरक्षक विवाह के समय मेहर की धनराशि निर्धारित कर सकता है और संरक्षक द्वारा निर्धारित मेहर बालक के ऊपर बाध्यकारी है।

पत्नी मेहर के रूप में कितनी भी धनराशि पति से मांग सकती है। मेहर के रूप में पत्नी द्वारा मांगी गई धनराशि की व्यवस्था पति करेगा, चाहे वह धनराशि उसकी शक्ति से परे हो या उसके भुगतान के बाद उसके उत्तराधिकारियों के लिए कुछ भी नही बचे। लेकिन यह धनराशि 10 दिरहम से कम नहीं होनी चाहिए। चूंकि मेहर विवाह के लिए एक ज़रूरी शर्त है, इसीलिए ऐसे मुसलमानों के लिए जो बहुत गरीब हो, उनके लिए इस्लाम में यह निर्देश है कि वे मेहर के एवज़ में अपनी पत्नी को कुरान की शिक्षा दे सकते हैं।  

निश्चित मेहर दो प्रकार की होती है:

  • तुरंत देय मेहर इसे ‘मेहर ए मुअज्जल’ भी कहते हैं। वह मेहर जो कि मांग करने पर देय होता है ‘तुरंत देय मेहर’ कहलाता है। पत्नी विवाह के बाद कभी भी तुरंत देय मेहर की मांग कर सकती है। पति और पत्नी के बीच समागम होने से मेहर के भुगतान पर कोई प्रभाव नहीं होता है। पत्नी पूरे मेहर की या उसके एक हिस्से की मांग कभी भी कर सकती है और पति को मेहर की मांग करने पर उसका भुगतान करना ज़रूरी है। जहां पत्नी का मेहर शीघ्र या तुरंत देय मेहर है और अभी तक उसका भुगतान नहीं किया गया है और ऐसे में यदि पत्नी पति के घर से चली जाती है या फिर पति के साथ सम्भोग करने से मना कर देती है तब ऐसी स्थिति में पति अपनी पत्नी के खिलाफ सहवास अधिकारों की बहाली के लिए न्यायालय में मुकदमा कायम नहीं कर सकता है।
  • स्थगित मेहर: इसे ‘मेहर ए मुवज्ज़ल’ भी कहते हैं। ‘मुवज्जल’ शब्द ‘अजल’ शब्द से निकला है, जिसका मतलब है कि समयावधि। मृत्यु या विवाह विच्छेद या समझौता के द्वारा किसी निश्चित घटना के घटित होने पर दिया जाने वाला मेहर स्थगित मेहर कहलाता है। उदाहरण के रूप में अगर पत्नी और पति के बीच यह तय हुआ है कि जैसे ही पति दूसरा विवाह करेगा उसे तुरंत मेहर का भुगतान करना पड़ेगा।

मृत्यु या विवाह विच्छेद या संविदा के द्वारा किसी निश्चित घटना के घटित होने से पूर्व पत्नी इस प्रकार के मेहर की मांग नहीं कर सकती है, बल्कि केवल पति ही ऐसा मेहर पत्नी को इन घटनाओं से पहले दे सकता है। पति विवाह के पश्चात किसी भी समय मेहर में अपनी मर्जी से वृद्धि कर सकता है। लेकिन वह उसमें अपनी पत्नी की अनुमति के बिना कमी नहीं कर सकता है। उसी प्रकार विवाह के पश्चात पत्नी अपनी स्वतंत्र सहमति से मेहर की पूरी धनराशि को छोड़ सकती है, लेकिन पति की सहमति के बिना उसमें कुछ और धनराशि नहीं जोड़ सकती।

कई महिलाएं मेहर के अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठती हैं लेकिन पितृसत्तात्मक सोच के कारण मेहर का अधिकार अभी भी सभी महिलाओं की पहुंच से दूर है। जब तक खुद मुस्लिम महिलाएं अपने इस हक़ को नहीं जानेंगी और उसके लिए आवाज़ नहीं उठाएंगी तब तक पुरुष पक्ष द्वारा उनके इस हक़ को बड़े सुकून से खाया जाता रहेगा।

स्थगित मेहर के मामले में, पति मृत्यु या तलाक या निर्दिष्ट घटना के होने तक मेहर का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं है। पति स्थगित मेहर का भुगतान करने के लिए तभी उत्तरदायी होगा जब या तो विवाह विघटन हो गया हो, या फिर कोई निर्दिष्ट घटना (जिसके होने पर मेहर देय हो) हो गई हो। पति की मृत्यु के बाद पत्नी पति के उत्तराधिकारियों से मेहर का भुगतान करने की मांग कर सकती है। ऐसे में पत्नी अपने मृत पति की संपत्ति में से अन्य असुरक्षित लेनदारों के साथ ही ऋण संपत्ति से प्राप्त करने की हक़दार होगी।   

मेहर की विषयवस्तु 

इस्लाम में यह कहा गया है कि वह कुछ भी जो कि माल की परिभाषा में आता है और जिसका कोई अस्तित्व है, मेहर की विषय वस्तु बन सकता है:

  • कोई भी वस्तु जिसका कोई मूल्य हो

निम्नलिखित वस्तुएं मेहर की विषयवस्तु बन सकती हैं:

  • एक मुट्ठी खजूर  
  • जोड़ी जूते 
  • अगर पति एक दास है तब उसकी अपनी बीवी के लिए सेवाएं 
  • बीवी को कुरान पढ़ाना 
  • कोई भी चीज जो कि माल की परिभाषा में आती हो- 

मुस्लिम विधिवेत्ताओं के अनुसार कोई भी वस्तु जो कि माल की परिभाषा में आती है, मेहर की विषय वस्तु बन सकती है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि कोई भी वस्तु जैसे कि जमीन से प्राप्त माल या फिर किसी बिजनेस से प्राप्त रक़म या पति द्वारा दिए गए उधार से प्राप्त रक़म या इंश्योरेंस पॉलिसीज, मेहर की विषय वस्तु बन सकते हैं।

  • मेहर केवल निश्चित वस्तुओं का हो सकता है

एक पति ने अपनी बीवी को अगले साल उसकी जमीन पर पैदा होने वाली फसल का माल मेहर के रूप में देने का करार दिया। यहाँ पर क्योंकि मेहर निश्चित नहीं है, वह अगले साल आने वाली फसल से प्राप्त होने वाले माल को निश्चित नही करती है, तो यह एक वैध मेहर नहीं है।

मेहर का महत्त्व 

मुस्लिम विधि में मेहर पत्नी का पूर्ण अधिकार है, और यह उससे उसका पिता या कोई अन्य रिश्तेदार उसकी अनुमति के बिना नहीं ले सकता फिर चाहे उस व्यक्ति ने उस महिला की शादी का पूरा खर्चा ही क्यों न उठाया हो। यह अधिकार इस्लाम के आने के बाद महिलाओं को मिला। इस्लाम से पूर्व, जब एक आदमी अपनी बेटी का विवाह करता था, तो वह उसके मेहर को अपने पास रखता था।

मेरे एलएलएम के समय जब मैंने इस विषय पर रिसर्च की तो पाया कि अपनी बेटी की शादी में लाखों रुपये खर्च करने वाले लोग मेहर में केवल 107 रुपये या 786 रुपये रखवाते हैं। वह भी बेटी से बिना पूछे और बेटी भी लोक लाज में चुप कर जाती है।

मेहर मुस्लिम विवाह का एक ज़रूरी हिस्सा है। अगर विवाह के समय विवाह संविदा में इसका उल्लेख न भी किया गया हो, तब भी विधि खुद संविदा के आधार पर उसकी पूर्व धारणा कर लेती है। यदि विवाह के पहले स्त्री अपने मेहर के अधिकार के त्याग का करार कर दे या अपने विवाह में मेहर न रखने की बात कर दें, तब यह करार अमान्य होता है। मेहर का इस्लाम में महत्व इसलिए है ताकि पति (उसके द्वारा) अपनी पत्नी को तलाक देने के अधिकार का मनमाने ढंग से प्रयोग न कर सके। यह पत्नी को आर्थिक सुरक्षा प्रदान किए जाने का एक भी एक रूप है। 

रूढ़िवादी सोच और पितृसत्तात्मक सोच ने मेहर के अधिकार को महिलाओं से दूर कर दिया है

विवाह में दिया गया मेहर महिला का पूर्ण अधिकार है लेकिन रूढ़िवादी सोच और पितृसत्तात्मक सोच ने मेहर के अधिकार को महिलाओं से दूर कर दिया है। विवाह के तुरंत बाद लड़के द्वारा महिला से इसे माफ़ कराना की कोशिश करना ताकि इसे दिया न जा सके और शादी के समय पिता या अभिभावक द्वारा महिला से मेहर की राशि तय ना करना उनकी पितृसत्तात्मक सोच का बताता है।

मैं अपने परिवार की पहली महिला थी जिसने पुरुषों द्वारा तय की गई मेहर की राशि को मानने से इनकार किया था और उसे बदलवाने के लिए कहा था। मैंने मौलवी साहब को साफ़ कह दिया था, “मेहर रखने का हक़ मेरा है और मुझे 786 रुपये का मेहर पसंद नहीं है। आप जाकर मेरा मेहर बदलवाएं।”

अशिक्षा, इस्लामी क़ानून की पूर्ण जानकारी का न होना और कुछ मौलवियों का महिलाओं के अधिकारों को उन्हें न बताने के कारण आज भी महिलाएं अपने इस अधिकार के बारे में अच्छे से नहीं जानती हैं। उनके अनुसार मेहर तय करने का हक़ उस व्यक्ति को है जो उनकी शादी करा रहा है। लेकिन असल में, मेहर की राशि तय करने का हक़ केवल महिला का होता है। हाँ, यदि महिला अपना अभिभावक किसी व्यक्ति को चुन दे कि वह उसकी ओर से मेहर की राशि तय कर दे तो यह उस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है कि मेहर की राशि तय करते वक़्त सभी चीज़ों को संज्ञान में ले कर मेहर की राशि तय करे। 

महिला पक्ष के लोग डर के कारण मेहर की राशि कम तय करते हैं ताकि शादी में विघ्न न पड़े या लड़के वाले गुस्सा न हो जाएँ। महिला पक्ष को यह सोचना चाहिए कि जो अधिकार इस्लाम ने महिला को दिया है उसके उपयोग से डर कैसा ? दहेज़ लेते समय तो लड़के पक्ष के लोग नाराज़ नहीं होते तो मेहर देते समय उनका कलेजा क्यों फटने लगता है ? दहेज़ का इंतज़ाम करते समय लड़की के घर वाले हर चीज़ बेहतरीन लाते हैं ताकि उनकी लड़की अच्छी चीज़ें उपयोग कर सके तो मेहर जोकि लड़की का पूर्ण अधिकार है वो नाम मात्र की रक़म क्यों तय की जाती है।

मेरे एलएलएम के समय जब मैंने इस विषय पर रिसर्च की तो पाया कि अपनी बेटी की शादी में लाखों रुपये खर्च करने वाले लोग मेहर में केवल 107 रुपये या 786 रुपये रखवाते हैं। वह भी बेटी से बिना पूछे और बेटी भी लोक लाज में चुप कर जाती है। हमारे यहां भी मेहर में 107 रुपये या 786 रुपये रखने का चलन है इसीलिए हमारी शादी में हमारे एक क़रीबी रिश्तेदार ने यही मेहर रखवा दिया। जब मौलवी साहब निकाह के लिए मेरे पास आये (इस्लाम में निकाह के लिए पहले लड़की की मर्ज़ी पूछी जाती है, जिसमें मेहर की धन राशि का भी उल्लेख होता है) तब मैंने मौलवी साहब से मेहर की इस धनराशि को क़ुबूल करने से मना कर दिया और अपनी पसंद का मेहर रखने के लिए कहा तो आस-पास खड़ी महिलाओं के कान खड़े हो गए। महिलाएं कानाफूसी करने लगे जैसे कि मैं निकाह से मना कर रही हूं और शादी से खुश नहीं हूं।

मेहर का इस्लाम में महत्व इसलिए है ताकि पति (उसके द्वारा) अपनी पत्नी को तलाक देने के अधिकार का मनमाने ढंग से प्रयोग न कर सके। यह पत्नी को आर्थिक सुरक्षा प्रदान किए जाने का एक भी एक रूप है। 

मैं अपने परिवार की पहली महिला थी जिसने पुरुषों द्वारा तय की गई मेहर की राशि को मानने से इनकार किया था और उसे बदलवाने के लिए कहा था। मैंने मौलवी साहब को साफ़ कह दिया था, “मेहर रखने का हक़ मेरा है और मुझे 786 रुपये का मेहर पसंद नहीं है। आप जाकर मेरा मेहर बदलवाएं।” पास खड़े भाई और चाचा ने भी मेरा साथ दिया और लड़के पक्ष के लोगों को जाकर मेहर बदलने का कहा। चूंकि मेरे पति शिक्षित हैं और महिला अधिकारों के लिए खड़े भी होते हैं तो उन्होंने मेरा मेहर मान लिया। कई महिलाएं मेहर के अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठती हैं लेकिनपितृसत्तात्मक सोच के कारण मेहर का अधिकार अभी भी सभी महिलाओं की पहुंच से दूर है। जब तक खुद मुस्लिम महिलाएं अपने इस हक़ को नहीं जानेंगी और उसके लिए आवाज़ नहीं उठाएंगी तब तक पुरुष पक्ष द्वारा उनके इस हक़ को बड़े सुकून से खाया जाता रहेगा।


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