इंटरसेक्शनलधर्म कैसे सिनेमा और मीडिया ने मज़बूत की मुसलमानों के प्रति रूढ़िवादी सोच की नींव

कैसे सिनेमा और मीडिया ने मज़बूत की मुसलमानों के प्रति रूढ़िवादी सोच की नींव

इस अध्ययन में पाया गया है कि वैश्विक आबादी का एक चौथाई हिस्सा होने के बावजूद मुसलमानों को टेलीविज़न पर काफी कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है। साथ ही जिन सीरीज या फिल्मों  में वे होते हैं, तो उनका चित्रण एक उथले स्टीरियोटाइप का होता है।

साल 2018 और 2019 के बीच प्रसारित होने वाले 200 से अधिक टीवी कार्यक्रमों पर पिछले साल एक रिसर्च यूनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया के एनेनबर्ग स्कूल फॉर कम्युनिकेशन एंड जर्नलिज्म के शोधकर्ताओं द्वारा की गई। इस रिसर्च के अनुसार दुनिया की 25% से अधिक आबादी मुस्लिम है। इसके बावजूद, रिसर्च में शामिल 200 शो में केवल 1% पात्रों का ही प्रतिनिधित्व मुसलिम किरदारों द्वारा किया है। इस अध्ययन में पाया गया है कि वैश्विक आबादी का एक चौथाई हिस्सा होने के बावजूद मुसलमानों को टेलीविज़न पर काफी कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है। साथ ही जिन सीरीज या फिल्मों में वे होते हैं वहां उनका चित्रण एक उथले स्टीरियोटाइप का होता है।

यह अध्ययन अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से स्क्रिप्टेड, एपिसोडिक श्रृंखला पर केंद्रित था। इन देशों में 2018 और 2019 के बीच प्रसारित होने वाले 200 से अधिक टीवी कार्यक्रमों पर यह रिसर्च की गई ताकि यह बेहतर ढंग से समझा जा सके कि लोकप्रिय शो में मुसलमानों को कैसे चित्रित किया जाता है। 

और पढ़ें: हिंदी फिल्मों में ‘प्यार’ पाने के लिए ज़रूरी होता है महिला किरदारों का ‘मेकओवर’

अध्ययन से पता चला कि 200 टीवी शो में केवल 12 सीरीज़ मुस्लिम थीं। इसके अलावा, उन मुस्लिम सीरीज़ में भी, मुस्लिम किरदारों का चित्रण या तो अपराधी या शारीरिक हिंसा के शिकार लोगों के तौर पर दिखाया गया था। शोधकर्ताओं के अनुसार, यह मुस्लिम चरित्रों की व्यापक रूढ़िबद्धता का हिस्सा है जो मुस्लिम चरित्रों के चरमपंथी और आतंकवादी होने के व्यापक रूढ़िवादिता में योगदान करते हैं।

इस अध्ययन के अनुसार, रिसर्च में शामिल इन शोज़ में पुरुष मुस्लिम पात्रों को अधिकतर हिंसक पात्र के रूप में दिखाया गया है। लगभग एक तिहाई मुस्लिम पात्र अन्य पात्रों के प्रति हिंसक थे, जिनमें से 40% के साथ हिंसा हुई थी। वहीं दूसरी ओर, मुस्लिम महिला पात्रों को अक्सर भयभीत और संकटग्रस्त दिखाया जाता है। उन्हें ज्यादातर धमकी और हिंसा के शिकार के रूप में चित्रित किया गया था। शोधकर्ताओं के अनुसार, इन चित्रणों का वास्तविक दुनिया पर प्रभाव पड़ता है कि दर्शक मुसलमानों के बारे में कैसे सोचते हैं। यह सिर्फ एक रिसर्च है जो प्रतिनिधित्व की बात करती है और बताती है कि मुस्लिम किरदारों को कैसे सिनेमा रूढ़िवादी नज़रिये से चित्रित करता है। लेकिन बात अगर भारतीय सिनेमा और मीडिया की करें तो वे भी इससे अछूते नहीं रहे हैं।

और पढ़ें: क्यों बॉलीवुड फिल्मों के ‘नायक’ हमेशा सवर्ण होते हैं?

इस अध्ययन के अनुसार, रिसर्च में शामिल इन शोज़ में पुरुष मुस्लिम पात्रों को अधिकतर हिंसक पात्र के रूप में दिखाया गया है। लगभग एक तिहाई मुस्लिमपात्र अन्य पात्रों के प्रति हिंसक थे, जिनमें से 40% के साथ हिंसा हुई थी। वहीं दूसरी ओर, मुस्लिम महिला पात्रों को अक्सर भयभीत और संकटग्रस्त दिखाया जाता है।

सिनेमा का मुसलमानों के प्रति दोहरा रवैया

सूचना के इस युग में, मीडिया समाज पर हावी है। सिनेमा जनसंचार और मनोरंजन का लोकप्रिय माध्यम है। इसने हमेशा समाज में संस्कृति और परंपरा के दस्तावेजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। किसी भी देश का सिनेमा उसके समाज को चरित्रवान बनाने में अहम भूमिका निभाता है। उस देश के सिनेमा को जब दूसरे देश/समुदाय के लोग देखते हैं तो वे उस देश/समुदाय के प्रति अपना एक दृष्टिकोण अपनाते हैं। हिंदी सिनेमा अब तक लगभग 100 साल का लंबा सफर तय कर चुका है। हिंदी सिनेमा में मुस्लिम महिलाओं का चरित्र भी ऐसा ही है। यह एक तरह का दर्पण है जो मुस्लिम महिलाओं के चरित्र के विभिन्न रंगों और उनके बदलते चित्रण को दर्शाता है।

भारतीय सिनेमा में मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व नगण्य रहा है। शायद ही कोई ऐसी फिल्म हो जो पूरी तरह से उन्हें समर्पित हो। फिल्मों में मुस्लिम महिलाओं की भूमिकाएं अक्सर कम या रूढ़िवादी होती हैं। 1970 के दशक से बॉलीवुड के समकालीन समय तक, उनका प्रतिनिधित्व मानदंडों के अनुरूप है, भले ही वे मानदंड धीरे-धीरे बदल गए हों। भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर से ले कर काफी सालों तक मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व आमतौर पर एक तवायफ़ के रूप में होता था। प्रसिद्ध हिंदी फ़िल्में ‘उमराव जान’ और ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में तवायफें मुस्लिम महिला होती थीं। वे राजाओं और नवाबों के शौक़ का सामान हुआ करती थीं।

सिनेमा में, मीडिया में एक गरीब, अशिक्षित मुस्लिम परिवार के चरित्र को चुनना, उन्हें हंसी पैदा करने या दर्शकों को आकर्षित करने के लिए शामिल करना एक पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी सोच का नतीजा है। यह किसी भी तरह से हास्यप्रद नहीं है बल्कि भारतीय मुस्लिम समुदाय को गलत तरीके से प्रस्तुत करता है।

उसके बाद मुस्लिम महिलाओं की इमेज एक बुर्काधारी, शांत स्वाभाव की अपने साथी पर आश्रित महिला के रूप में बनाई गई। जब सिनेमा एक समुदाय, विशेष रूप से मुसलमानों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने में संलग्न होता है तो इस धर्म के प्रति आम दर्शकों की रूढ़िवादी सोच को मज़बूती मिलती है। हिंदी सिनेमा मनोरंजन का एक ऐसा माध्यम हमेशा से इतना प्रभावशाली रहा है कि पर्दे पर दर्शाए गए किरदार ने दर्शकों के जीवन को छू लिया है। वे परदे पर दिखाए गए चरित्रों, उनके कार्यों को सच समझने लगते हैं। जब मुस्लिम महिला शब्द एक आम इंसान के दिमाग में आता है तो यह धारणा बन जाती है कि वह हर समय ‘बुर्का’ पहने एक शर्मीली लड़की होगी। उन्हें अपनी परंपरा के संरक्षक के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जब हम, मेरे महबूब, महबूब की मेहंदी, बहू बेगम जैसी पहले की फिल्में देखते हैं तो पाते हैं कि मुस्लिम महिलाओं का चरित्र चित्रण निष्क्रिय, आश्रित और हर मायने में असमान साथी का होता है।

और पढ़ें: तवायफ़ों की भूमिका को कैसे हिंदी सिनेमा भुलाता चला गया

सिर पर काला स्कार्फ़, हरे रंग के कपड़े, बुर्का, टोपी, हरा झंडा, हरे रंग का लहंगा, मेहंदी लगे हुए लाल बाल आदि कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें मुस्लिम समुदाय से जोड़ दिया गया है। वास्तविकता में हर मुसलमान इन रंगों और चीज़ों को अपने जीवन में नहीं अपनाता है। उदाहरण के तौर पर आयुष्मान खुराना की फिल्म, “ड्रीम गर्ल” एक ऐसी फिल्म है, जहां मुसलमानों को कुछ ऐसे ही स्टीरियोटाइप किया गया है। इस फिल्म में मुसलामानों से जुड़ी कुछ ऐसी चीज़ों को दिखाया गया है जो बिना सिर-पैर की हैं। उदाहरण- “मुसलमान हर चीज़ में हरा जोड़ते हैं”, “स्वच्छ मथुरा को हरा बना दिया”, “लंबे नाम वाले मुसलमान”, “मेहंदी (मेंहदी) से बालों को लाल करना।”

इसी तरह सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर सलोनी ने एक मुस्लिम महिला चरित्र, ‘नज़मा आपी’  के ज़रिए काफी प्रसिद्धि बटोरी। सलोनी ने नज़मा आपी के किरदार को इस तरह से दिखाया जो कि एक सीधी-साधी अनपढ़, दुपट्टे से खुद के सर को ढांपे हुए मुस्लिम महिला थी। नजमा के किरदार ने कम समय में काफी लोकप्रियता हासिल की लेकिन साथ ही मुस्लिम समाज के प्रति चलती आ रही रूढ़िवादी सोच को और मज़बूत किया।

सिर पर काला स्कार्फ़, हरे रंग के कपड़े, बुर्का, टोपी, हरा झंडा, हरे रंग का लहंगा, मेहंदी लगे हुए लाल बाल आदि कुछ ऐसे रंग हैं जिन्हें मुस्लिम समुदाय से जोड़ दिया गया है। वास्तविकता में हर मुसलमान इन रंगों और चीज़ों को अपने जीवन में नहीं अपनाता है।

भारतीय सिनेमा में मुस्लिम महिलाओं के चरित्र काफी हद तक सपाट रहे हैं। मुस्लिम महिलाओं की जागरूकता या अपने आप में उनकी राजनीतिक पहचान जैसे विचारों की खोज करने वाली शायद ही कोई फिल्म या किरदार हो। फिल्मों में बराबर प्रतिनिधित्व का अभाव है, दिखाए जाने वाले मुस्लिम पात्रों में अभिव्यक्ति की कमी है, और देखा जाए तो एक मुस्लिम महिला के जीवन के विभिन्न तार अभी भी अछूते हैं।

और पढ़ें: रामनवमी के मौके पर मुसलमानों के साथ हुई हिंसा और उनके ख़िलाफ़ बढ़ती नफ़रत इस देश को किस ओर ले जाएगी

मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह और नफरत को बढ़ावा देता मीडिया

मुसलमानों के प्रति एक और रूढ़िवादी सोच का परिणाम है अपराधियों का सामान्यीकरण है, भले ही वे संयोग से मुसलमान हो लेकिन मीडिया और सिनेमा उन्हें ‘अपराधी’ के बजाय ‘आतंकवादी’ के रूप में लेबल करता है। जब गैर-मुसलमानों द्वारा कोई आपराधिक गतिविधि की जाती है, तो उन्हें ‘अपराधी’  करार दिया जाता है। अपराधी अपराधी होते हैं चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। मुसलमानों के खिलाफ ऐसा पूर्वाग्रह क्यों?

जब न्यूज़ीलैंड में एक मस्जिद में एक व्यक्ति द्वारा फायरिंग की गई और 40 से अधिक नमाज़ियों को मार दिया गया तब मारने वाले के धर्म को मीडिया में नहीं उछाला गया। उसे एक दिमागी रूप से परेशान व्यक्ति बताया गया। वहीं यदि इसी प्रकार का कोई कार्य किसी मुस्लिम व्यक्ति द्वारा कर दिया जाता है तो मीडिया ट्रायल द्वारा उसे और उसके घरवालों को परेशान कर दिया जाता है। आरोप साबित होने से पहले ही उसे अपराधी घोषित कर दिया जाता है। मीडिया का यह दोहरा रवैया वैश्विक स्तर पर देखने को मिलता है।

मुसलमानों के प्रति एक और रूढ़िवादी सोच का परिणाम है अपराधियों का सामान्यीकरण है, भले ही वे संयोग से मुसलमान हो लेकिन मीडिया और सिनेमा उन्हें ‘अपराधी’ के बजाय ‘आतंकवादी’ के रूप में लेबल करता है।

टेलीविजन समाचार चैनल स्पष्ट रूप से सभी मीडिया प्लेटफार्मों में सबसे अधिक पक्षपाती हैं। देश में होने वाली किसी भी घटना को सांप्रदायिक रंग (मुस्लिम तस्वीर) देने से मुसलमानों की बदनामी होती है, जिसका शायद वे लोग (मुस्लिम विरोधी) आनंद लेते हैं। कोरोना के शुरुआती दिनों में तब्लीग़ी जमात द्वारा निजामुद्दीन पर एक धार्मिक सभा को यही लोग आतंकवादी सभा का नाम दे देते हैं। वे निजामुद्दीन मरकज तब्लीगी ज़मातियों के लिए ‘कोरोना जमात’ शब्द गढ़ने में आगे थे। एक न्यूज एंकर ने तो बाक़ायदा कोरोना जिहाद का फ्लोचार्ट भी बनाया।

पिछले कई सालों से, भारतीय टेलीविजन समाचार बहसों से उभरने वाली पत्रकारिता की गुणवत्ता अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ गई है। देश के प्रमुख समाचार आउटलेट (इक्का-दुक्का को छोड़ दें तो) धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ खुले तौर पर नफरत को बढ़ावा दे रहे हैं। इस प्रकार की बहसें प्राइम टाइम के दौरान होती हैं इसीलिए इस बहस के बड़े दर्शक वर्ग भी होते हैं। इस माध्यम ने देश की बढ़ती ‘मुस्लिम-विरोधी’ नफरत में बहुत योगदान दिया है। इनके द्वारा की जाने वाली भड़काऊ बहसों ने लोगों के दिलों में इतनी नफरत फैला दी है कि देश के मुसलमान खुद को दोयम दर्जे का नागरिक महसूस करने लगे हैं। टीवी समाचार बहसों ने देश के बड़े पैमाने पर इस्लामोफोबिया में योगदान दिया है। इसकी सड़ांध इतनी गहराई से घुसपैठ कर चुकी है कि इसके फैलाव को नियंत्रित करना बेहद मुश्किल हो गया है।

कुछेक न्यूज़ चैनल तो इतने भड़काऊ हो गए हैं कि मुस्लिम संबंधी हर मुद्दे में जिहाद शब्द को डालने लगे हैं, जैसे- कोरोना जिहाद, आईपीएस जिहाद, ज़मीन जिहाद, लव जिहाद, आर्थिक जिहाद, आदि। कर्नाटक के कॉलेज के हिजाब विवाद केस में भी मीडिया चैनल्स ने बहुत भयावह रोल अदा किया। कई वीडियो सामने आए जिसमें कि मीडिया रिपोर्टर्स हिजाब पहनी किशोर लड़कियों का पीछा करते हुए उनसे अजीबो-गरीब सवाल करते नज़र आए। लड़कियों के पढ़ने के अधिकार को हिजाब विवाद में नज़रअंदाज़ कर दिया गया और इन सब में मीडिया ने एक बड़ी भूमिका अदा की।

और पढ़ें: “हिजाब इस्लाम धर्म का अनिवार्य अभ्यास नहीं है” पूर्वधारणाओं पर टिका है कर्नाटक हाई कोर्ट का फ़ैसला

इस सबके अलावा पिछले कुछ वर्षों में बहुसंख्यकों के भीतर एकता की भावना पैदा करने के लिए भारत में सोशल मीडिया द्वारा और मीडिया चैनल्स द्वारा मुसलमानों के ख़िलाफ़ फेक न्यूज का प्रयोग काफी बड़े स्तर पर किया गया है। एक हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक दल को वोट देकर एक ‘आम दुश्मन’ से नफरत करने और उस ‘दुश्मन’ को हराने के लिए बहुसंख्यकों के बीच एकता की भावना पैदा की गई और उन्हें यह विश्वास दिलाया गया कि यही एक पार्टी है जो कि उनके अधिकारों की रक्षा करेगी। अगर ध्यान से देखा जाए तो मीडिया ने देश को इस नफरती माहौल में धकेलने में बहुत अधिक योगदान दिया है।

भारतीय मुस्लिम पुरुष विशेषकर महिलाएं चिकित्सा, शिक्षण, पत्रकारिता, व्यवसाय, खेल, शोधार्थियों, सामाजिक गतिविधियों जैसे कई क्षेत्रों में सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं। सिनेमा में, मीडिया में एक गरीब, अशिक्षित मुस्लिम परिवार के चरित्र को चुनना, उन्हें हंसी पैदा करने या दर्शकों को आकर्षित करने के लिए शामिल करना एक पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी सोच का नतीजा है। यह किसी भी तरह से हास्यप्रद नहीं है बल्कि भारतीय मुस्लिम समुदाय को गलत तरीके से प्रस्तुत करता है।

और पढ़ें: बात जब अल्पसंख्यकों की आती है तब न्यायपालिका को ‘मानवीय आधार’ और ‘पहला अपराध’ जैसे तर्क क्यों नज़र नहीं आते?


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content