असोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की हालिया रिपोर्ट कहती है कि हिंदुस्तान की राजनीति में अपराधियों का जमावड़ा बढ़ता ही जा रहा है। वर्तमान में कुल 763 में से 306 सांसदों ने अपने ऊपर आपराधिक मामलों के दर्ज होने की सूचना दी है। इनमें भी, 194 सांसदों के ऊपर गंभीर किस्म के आपराधिक मामले दर्ज हैं।
यह जग जाहिर है कि हिंदुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है; ताकि जनहित में कानून–कायदों का निर्माण किया जा सके। लेकिन इस व्यवस्था का सबसे भद्दा मज़क ये जनप्रतिनिधि ही बना रहे हैं। हमारी संसद में 21 सांसद ऐसे हैं जिनके ऊपर महिलाओं के साथ अत्याचार करने के मामले दर्ज हैं। वहीं, चार सांसद बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के आरोपी हैं यानी कानून बनाने वाले ही कानून को ठेंगा दिखाते हुए खुलेआम घूम रहे हैं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि इनसे महिलाओं के पक्ष में कानून बनाने की उम्मीद करना कितना जायज़ है? क्या लोकतंत्र केवल ढकोसला बनकर नहीं रह गया है? ऐसे तथाकथित अपराधियों का जमघट किस तरह के संकेत दे रहा है? राजनीति के अपराधीकरण की यात्रा किस मुकाम तक पहुंची है? इस यात्रा का अंत कितनी दूर है?
राजनीति का अपराधीकरण केवल केंद्र स्तर की राजनीति तक सीमित नहीं रहा। अब इसके दायरे में राज्यों की विधानसभाओं के साथ-साथ स्थानीय निकायों की राजनीति भी आ गई है। गौर करनेवाली बात यह है कि इसकी चपेट से न तो उत्तर भारत अछूता रहा है और न ही दक्षिण भारत। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक केरल के 79 प्रतिशत, बिहार के 73 प्रतिशत, महाराष्ट्र के 57 प्रतिशत, तेलंगाना के 54 प्रतिशत और दिल्ली के 50 प्रतिशत सांसदों के ऊपर आपराधिक मुकदमे दायर किए हुए हैं। नीचे दी गई तस्वीर को देखिए, इसमें राज्य के कुल सांसदों में आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसदों के प्रतिशत को दर्शाया है।
अगर बात करें राजनीतिक दलों की, तो कोई भी पॉलिटिकल पार्टी दूध की धुली हुई नज़र नहीं आती है। रिपोर्ट बताती है कि प्रमुख विपक्षी दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 53 प्रतिशत सांसदों के ऊपर आपराधिक केस दर्ज हैं। भारतीय जनता पार्टी के 36 प्रतिशत, जेडीयू के 62 प्रतिशत, आरजेडी के 83 प्रतिशत और आम आदमी पार्टी के 27 प्रतिशत सांसदों ने अपने ऊपर आपराधिक मामले होने की सूचना दी है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में भी ऐसे नेताओं की कोई कमी नहीं है। कुल 113 विधायकों ने अपने ऊपर आपराधिक केस होने की सूचना दी है। बीजेपी के 44, कांग्रेस के 25 और आम आदमी पार्टी के 13 विधायक महिलाओं के साथ हिंसा करने के आरोपी हैं। अगर राज्यों की विधानसभाओं के अनुसार आंकड़ों को देखें, तो सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल के 21 विधायक, दिल्ली के 13 विधायक और महाराष्ट्र के 12 विधायक महिलाओं के साथ हिंसा करने के आरोपी हैं।
नहीं थम रही है अपराधीकरण की यात्रा
16वीं लोकसभा में 34 प्रतिशत सांसदों ने अपने ऊपर आपराधिक मामले दर्ज होने की घोषणा की थी। वहीं 17वीं लोकसभा में ऐसे सांसदों का अनुपात बढ़कर 43 प्रतिशत हो जाता है। 14 वीं लोकसभा की तुलना में 16वीं लोकसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों के अनुपात में 44 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई थी। वहीं, 16वीं लोकसभा की तुलना में 17वीं लोकसभा में 26 प्रतिशत की। इन्हीं सांसदों में से कुछ सांसद प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल का हिस्सा बनते हैं। ज़ाहिर है, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों के अनुपात में आ रहे बदलाव का असर मंत्रिमंडल पर भी दिखेगा।
चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में
दिसंबर, 1999 में एडीआर ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की। इसमें यह मांग की गई थी कि चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक उम्मीदवार के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वह अपनी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा करे। दिल्ली हाई कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए नवंबर 2000 में सभी प्रत्याशियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया। इस फैसले को कई दलों ने मिलकर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। फिर केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश के माध्यम से इस फैसले को निरस्त करने की कोशिश की।
13 मार्च, 2003 को सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार बनाम एडीआर रिफॉर्म वाद में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए चुनाव लड़नेवाले हरेक प्रत्याशी को अपनी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा करना बाध्यकारी कर दिया। वहीं, बिहार विधानसभा चुनाव के समय सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में उपरोक्त निर्णय को और विस्तार दिया। प्रत्याशियों द्वारा पेश किए जाने वाले विवरण को सोशल मीडिया सहित कई पब्लिक प्लेटफार्म पर अपलोड करना अनिवार्य कर दिया।
राजनीति क्यों बनती जा रही है अपराधियों की पनाहगार
आज़ादी के तुरंत बाद की हुकूमत को चलानेवाले अधिकतर नेता स्वतंत्रता सेनानी थे। इतिहासकार श्रीनाथ राघवन बताते हैं कि 60 और 70 के दशक में कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने चुनावों में अपराधियों का सहयोग लिया। लेकिन, 1980 के दशक तक आते–आते अपराधियों ने ही सफेद कपड़े पहन लिए यानी मुख्यधारा की राजनीति में उतर गए। इसके पीछे वो तीन कारण बताते हैं। पहला, कांग्रेस पार्टी का कमजोर हो जाना। दूसरा राजनीति में प्रतिस्पर्धा का बढ़ जाना और तीसरा राजनीति में बिखराव।
लेखक मिलन वैष्णव अपनी किताब ‘When Crime Pays: Money and Muscle in Indian Politics’ में लिखते हैं कि राजनीति के अपराधीकरण के सबसे बड़े कारण हैं- राज्य का कमजोर होते जाना और संस्थाओं की साख में गिरावट आ जाना। जब राज्य, लोगों को बुनियादी सुविधाएं नहीं दे पाता है तब लोग किसी रॉबिनहुड को ढूंढते हैं और उसे सत्ता की चाबी सौंप देते हैं। मतदाता को इस बात की जानकारी होती है कि प्रत्याशी ने क्या-क्या कारनामे किए हैं, फिर भी उसे चुन लिया जाता है। 2014 के आम चुनाव से पहले एडीआर ने देशभर में एक सर्वे किया था। जिसमें यह ज्ञात हुआ था कि 55 प्रतिशत लोग अपराधी को सिर्फ इसलिए चुनते हैं क्योंकि वे अच्छा काम करवाता है। वहीं, करीब 25 प्रतिशत मतदाता अपराधी को इसलिए चुनते हैं क्योंकि वह उनकी जाति का होता है।
मिलन भी अपनी किताब में इस बात की ओर ध्यान खींचते हैं। राजनीति के अपराधीकरण को मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के जरिए समझाने की कोशिश करते हैं यानी मतदाता एक ऐसे नेता को खोजता है जो कानून को चुनौती दे क्योंकि संस्थाओं की खस्ता हालत के कारण कानून के रास्ते न्याय नहीं मिलता है। इन नेताओं से आम इंसान को सामाजिक सुरक्षा की गारंटी भी मिल जाती है। वहीं, अपराधी को एक ऐसा पेशा मिल जाता है, जहां उसे इज्ज़त मिलती है।
वहीं समाज के बीच मौजूद विभाजन लोगों के मन में उस नेता के प्रति जातीय गौरव का भाव पैदा कर देता है। और यहीं से ‘अस्मिता की राजनीति’ शुरू हो जाती है। इसकी एक बानगी देखिए– वर्ष 2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में मोकामा विधानसभा से अनंत कुमार सिंह, जेल में बैठे–बैठे चुनाव लड़ते हैं। करीब 52 प्रतिशत मतदाता अपना मत अनंत सिंह को देते हैं और लगभग 36,000 वोटों के साथ अनंत सिंह, चुनाव में जीत हासिल करते हैं। जब एक अदालती फैसले के कारण उनकी सदस्यता चली जाती है तब उपचुनाव में उनकी पत्नी नीलम देवी को प्रत्याशी बनाया जाता है। नीलम देवी, 53 प्रतिशत वोटों के साथ विधायक बन जाती हैं।
डॉ. भीमराव आंबेडकर का मानना था कि भारत में तब तक लोकतंत्र कामयाब नहीं होगा जब तक कि सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो जाती। नतीजा सभी के सामने है। भारत की संसद में आज भी महिला सांसदों की संख्या 15 प्रतिशत से भी कम है। वंशवाद और विचाराधारा विहीन राजनीति ने राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा दिया है। उदाहरण के तौर पर भंवरी देवी केस में शामिल राजस्थान के पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा और पूर्व विधायक मलखान सिंह जेल में सजा काट रहे थे। लेकिन, जनता ने उनकी संतानों को विधायक बनाकर विधानसभा में भेज दिया। चुनावी राजनीति का एक दुखद पहलू यह है कि इसमें जीत ही एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। राजनीतिक पार्टियां चुनावों में जिताऊ उम्मीदवारों को खोजती हैं। चूंकि अपराधियों के पास धनबल और भुजबल दोनों होते हैं, ऐसे में उनके जीतने की संभावना अधिक होती है।
राजनीति के अपराधीकरण से क्या फर्क पड़ा?
जनता का लोकतंत्र की संस्थाओं से विश्वास उठने लगा। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार वर्ष 1952 से 1970 के काल में लोकसभा औसत 121 दिन काम करती थी। वर्ष 2000 से केवल 68 दिन काम कर पा रही है। स्थायी समितियों को भेजे जाने वाले बिलों की संख्या में भी गिरावट आई है। अपराधी अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल कर उनके खिलाफ चले रहे मामलों को प्रभावित करते हैं। मिलन अपनी किताब में लिखते हैं कि केवल आपराधिक नेताओं की छवि को उजागर करना ही काफ़ी नहीं है। राजनीति को अपराधियों से मुक्त करने के लिए राज्य को बुनियादी सुविधाओं पर खर्च बढ़ाना होगा। कानून के इक़बाल को बुलंद करना होगा। संस्थाओं को फिर से मजबूत करना होगा। ताकि जनता का उसमें विश्वास बढ़े। लोकतंत्र का विकेंद्रीकरण कर हर घर तक उसे ले जाना होगा।