इंटरसेक्शनलजाति कैसे हमारे समाज में जातिवादी लोकोक्तियों का सामान्यीकरण होता चला गया

कैसे हमारे समाज में जातिवादी लोकोक्तियों का सामान्यीकरण होता चला गया

अक्सर तुलना करते हुए और अपनी श्रेष्ठता का दंभ भरते हुए लोग एक लोकोक्ति का प्रयोग करते मिल जाते हैं। 'कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली।' सारे संसाधनों पर 'भोज' का ही कब्जा रहेगा तो 'गंगू तेली' के पास जाहिर है कुछ नहीं होगा। वह बराबरी में कहीं से खड़ा नहीं होगा।

एडिटर्स नोट: यह तीन लेखों की एक सीरीज़ है। इन लेखों के ज़रिये लेखक ने हमारे आस-पास प्रचलित लोकोक्तियों के जातिवादी, महिला-विरोधी चरित्र की विवेचना करने की कोशिश की है। यह इस सीरीज़ का दूसरा लेख है।

“अहीर गड़रिया कुर्मी चोर
धर सारे का टँगरी तोर”

इस देश की जातिवादी सामाजिक संरचना में अहीर, गड़रिया, कुर्मी तथाकथित निचले पायदान पर आते हैं। वे कौन लोग हैं जो उनकी टंगरी (पैर) तोड़ने की बात करते हैं? ज़ाहिर है जो इस सामाजिक ढाँचे में तथाकथित ऊँचे पायदान पर हैं। जाति इस देश की सबसे पहली और अंतिम सच्चाई है। जाति के प्रश्न से टकराए बगैर हम इस देश की सामाजिक स्थिति को नहीं समझ सकते हैं। इस देश की तमाम भाषाओं में जातिवादी कहावतें भरी पड़ी हैं। इस कहावतों और लोकोक्तियों से गुजरकर ही असली तस्वीर को देखा जा सकता है। 

वरिष्ठ लेखक डॉ जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं, “दलितों का रहन-सहन और जीवन कैसा है, ग़ैर-दलित या उच्च-जातीय लोग उनके बारे में कैसा सोचते हैं तथा उच्च-जातियों के बारे में दलित किस रूप में देखते हैं, इन मुहावरों, लोकोक्तियों और कहावतों में यह सब प्रतिबिंबित होता है।” 

जातिवाद इस देश के लोगों की रगों में समाया हुआ है। ये कहावतें, लोकोक्तियाँ इस बात के द्योतक हैं। कहावतों के पीछे की एक यात्रा है। यह किसी लेखक द्वारा बंद कमरे में कल्पना के सहारे नहीं तैयार की जाती है। ये समाज में व्यापक रूप से प्रचलित है। इन कहावतों को केंद्र में रखकर सामाजिक संरचना को सबसे बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। 

पिछले लेख में हमने तुलसी के चौपाई ‘ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी’ पर बात की। यह चौपाई जितना स्त्रियों को लेकर घटिया है उतनी ही दलितों को लेकर भी। लोक में एक कहावत प्रचलित है जो लगभग इसी अर्थ को समेटे हुए है। “बड़ी जात समझावै से, छोट जात लतियावे से।” हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ‘ पढ़ते हुए एक कहावत से सामना हुआ। “कहे सुने से ठाकुर माने बाभन माने खाए। लिए दिए से कायथ माने सूद माने लतियाए।” मारने-पीटने का ज़िक्र कहावतों में अनायास नहीं आ गया है। वे तमाम लोग जो जाति व्यवस्था में तथाकथित निचले पायदान पर हैं उनके साथ हमेशा से हिंसा और अपमान से भरा व्यवहार किया गया है। 

जाति इस देश की सबसे पहली और अंतिम सच्चाई है। जाति के प्रश्न से टकराए बगैर हम इस देश की सामाजिक स्थिति को नहीं समझ सकते हैं। इस देश की तमाम भाषाओं में जातिवादी कहावतें भरी पड़ी हैं। इस कहावतों और लोकोक्तियों से गुजरकर ही असली तस्वीर को देखा जा सकता है। 

पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक शब्द-युग्म चलता है। ‘चमार’ के साथ सियार जोड़कर चमार-सियार बोला जाता है। एक जाति विशेष के लोगों को जानवर पुकारना सिर्फ़ भाषा में नहीं है, उनके साथ वैसा ही बर्ताव किया जाता है। तथाकथित निचली जाति के साथ जानवरों का नाम जोड़कर लगभग गाली की तरह भाषा में इस्तेमाल किया जाता है।

‘वह भी कोई देस है महराज’ के लेखक अनिल यादव इसे रेखांकित करते हुए लिखते हैं, “हिंदी की चमरपिलई, चमरकीट जैसी गालियों में उन्हें आधा जानवर आधा जाति में बदल दिया गया है. भंड़ुवागिरी, चमारपन, चमरचलाकी, चमरशौच, तेलियामसान, धोबियापाट, ठकुरसुहाती, बनियौटी, ठगविद्या, मुराही, भंड़ैती के पीछे छिपे लंबे किस्से हैं जिनमें एक जाति पर किसी दूसरी जाति की बौद्धिक, शारीरिक या चारित्रिक श्रेष्ठता का बखान किया गया है। अलग-अलग जातियों की औरतों की यौनिक विशेषताओं के भी ढेरों किस्से हैं जिनकी जड़ में कोई सौंदर्यशास्त्र नहीं जातीय नफ़रत और बलात्कार के दिवास्वप्न हैं।”

‘वनमानुष’ शब्द से हम सब परिचित होंगे। इसका शाब्दिक अर्थ यही है कि जो लोग वन में रहते हैं। इसे आदिवासियों को लक्षित करके प्रयोग किया जाता है। वह व्यक्ति जो नहाया न हो, गंदा दिख रहा हो, बाल बड़े हों यानी सामाजिक मान्यता के हिसाब से ‘सुंदर’ न दिख रहा वो उसे वनमानुष कह दिया जाता है। एक समुदाय के लिए जंगल उनकी अस्मिता का सवाल है, वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें गाली में तब्दील कर दिया गया है। ऐसे ही ‘चोरी चमारी’ शब्द का इस्तेमाल ख़ूब सुनने को मिलता है। चोरी को एक ख़ास जाति से जोड़ दिया जाता है। जबकि चोरी तो कोई भी कर सकता है। लेकिन जाति व्यवस्था में ऊपर बैठे लोग तय करेंगे कि किसकी पहचान किस तरह होगी। 

बिहार के कर्पूरी ठाकुर जब मुख्यमंत्री बने और सरकारी नौकरियों में पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दे रहे थे तो सवर्णों में आक्रोश था। कहा जाता था, “कर कर्पूरी काम पूरा, गद्दी छोड़ उठा उस्तारा।” कर्पूरी ठाकुर जाति से नाई थे। कैसे बर्दाश्त करते कि नाई मुख्यमंत्री बने।

“अहीर मिताई तब करो जब सब मीत मर जाय।” मित्रता इंसान का स्वाभाविक गुण है। वह जिसके इर्द-गिर्द रहेगा उनसे दोस्तियाँ करेगा। दोस्ती में कुछ विश्वास के पात्र होंगे कुछ नहीं। इसका जाति से क्या लेना-देना है? लेकिन एक जाति के लिए कहा जाता है कि उससे दोस्ती तभी करनी चाहिए जब बाकी दोस्त मर जाएँ यानी जब कोई विकल्प न बचे। इस जाति को लेकर भेदभाव का रवैया यहाँ तक है कि कहा जाता है, ‘अहीरों की बुद्धि बारह बजे खुलती है।’ इस बात के पीछे न तो कोई तार्किकता और न वैज्ञानिकता। 

अक्सर तुलना करते हुए और अपनी श्रेष्ठता का दंभ भरते हुए लोग एक लोकोक्ति का प्रयोग करते मिल जाते हैं। ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली।’ सारे संसाधनों पर ‘भोज’ का ही कब्जा रहेगा तो ‘गंगू तेली’ के पास जाहिर है कुछ नहीं होगा। वह बराबरी में कहीं से खड़ा नहीं होगा। सवाल तो ये होना चाहिए कि क्यों हमेशा राजा भोज ही श्रेष्ठ है? गंगू तेली की विपन्नता के पीछे कारण क्या हैं? और गंगू तेली ही क्यों कोई ब्राह्मण क्यों नहीं? क्योंकि सामाजिक ढांचे में ब्राह्मण तो ऊपर ठहरे तो कमतर दिखाने के लिए लोक की उक्तियों में गंगू तेली ही आएगा। 

‘वनमानुष’ शब्द से हम सब परिचित होंगे। इसका शाब्दिक अर्थ यही है कि जो लोग वन में रहते हैं। इसे आदिवासियों को लक्षित करके प्रयोग किया जाता है। वह व्यक्ति जो नहाया न हो, गंदा दिख रहा हो, बाल बड़े हों यानी सामाजिक मान्यता के हिसाब से ‘सुंदर’ न दिख रहा वो उसे वनमानुष कह दिया जाता है।

उत्तर प्रदेश में मायावती जब मुख्यमंत्री बनीं तो उन पर जातिगत टिप्पणियाँ की गई। आखिर एक दलित उसमें भी स्त्री प्रदेश को चलाएगी। सवर्णों को ये नागवार गुजरा था। बिहार के कर्पूरी ठाकुर जब मुख्यमंत्री बने और सरकारी नौकरियों में पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दे रहे थे तो सवर्णों में आक्रोश था। कहा जाता था, “कर कर्पूरी काम पूरा, गद्दी छोड़ उठा उस्तारा।” कर्पूरी ठाकुर जाति से नाई थे। कैसे बर्दाश्त करते कि नाई मुख्यमंत्री बने।

साल 2017 में जब योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने तब मुख्यमंत्री आवास को गंगाजल से साफ करवाया गया। इसके पीछे जातिवादी रवैया था क्योंकि उससे पहले उस घर में एक पिछड़ी जाति का व्यक्ति रहता था। लोक में ऐसी ही एक कहावत प्रचलित है, “चमार के देव की जूते से पूजा” यानी अपमान सिर्फ़ उस जाति के लोगों का ही नहीं उनके नायकों का, उनके देवों का भी होगा। अंबेडकर को लेकर किस तरह की बात इस देश का सवर्ण समाज करता रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। 

पिछली पीढ़ी या उससे एक पीढ़ी और पीछे जाएँ तो लोगों का नाम देखकर उनकी सामाजिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। तथाकथित निचली जाति के लोगों का नाम ऐसे ही कुछ भी रख दिया जाता था। कुछ अच्छा नाम रखने पर उन पर तंज कसा जाता। जैसे इस कहावत को देखें, “चमार की बेटी नाम राजरानी।” इस कहावत का इस्तेमाल तब किया जाता है जब नाम के अनुरूप गुण न मिलते हो पर ये पूर्वाग्रह भेदभाव को ही लक्षित करता है। 

कहावतों में सत्ता किस तरह काम करती है इसे समझना हो तो इस लोकोक्ति को देखें, ‘अपने-अपने घर सब ठाकुर।” ठाकुर शब्द क्या यूँही प्रयोग में आ गया है? नहीं, यह शब्द इसलिए आया है क्योंकि ठाकुर के पास हमेशा से सत्ता रही है। जमीनों पर इनका कब्जा रहा है। यह शब्द ही प्रभाव के लिए इस्तेमाल किया जाता है। नाम के साथ एक जाति विशेष में ‘प्रताप’ जुड़ता है। ये उनके प्रभुत्व को दिखाने के लिए है। जो भी जहाँ प्रभावशाली होगा वहाँ ठाकुर होगा। 

“अहीर मिताई तब करो जब सब मीत मर जाय।” मित्रता इंसान का स्वाभाविक गुण है। वह जिसके इर्द-गिर्द रहेगा उनसे दोस्तियाँ करेगा। दोस्ती में कुछ विश्वास के पात्र होंगे कुछ नहीं। इसका जाति से क्या लेना-देना है? लेकिन एक जाति के लिए कहा जाता है कि उससे दोस्ती तभी करनी चाहिए जब बाकी दोस्त मर जाएँ यानी जब कोई विकल्प न बचे।

भेदभाव खानपान के स्तर पर सबसे अधिक होता है। आज भी गाँवों में दूसरी जातियों ख़ासकर दलितों के लिए अलग बर्तन का इस्तेमाल किया जाता है। कई जगहों पर सवर्ण दलितों का बनाया हुआ नहीं खाते हैं। उनकी रसोई अपवित्र हो जाती है। एक कहावत है, “चमार को भैया कहो तो वह चौके में घुस आता है।” इसे उस स्थिति में इस्तेमाल करते हैं जब कोई व्यक्ति भाव देने पर सिर पर चढ़ने लगे। लेकिन इसके मूल में व्याप्त भेदभाव को याद रखना होगा। 

जातिवाद इस देश के लोगों की रगों में समाया हुआ है। ये कहावतें, लोकोक्तियाँ इस बात के द्योतक हैं। कहावतों के पीछे की एक यात्रा है। यह किसी लेखक द्वारा बंद कमरे में कल्पना के सहारे नहीं तैयार की जाती है। ये समाज में व्यापक रूप से प्रचलित है। इन कहावतों को केंद्र में रखकर सामाजिक संरचना को सबसे बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। 


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