इंटरसेक्शनलजेंडर बात प्रचलित लोकोक्तियों में छिपी स्त्री-विरोधी सोच की

बात प्रचलित लोकोक्तियों में छिपी स्त्री-विरोधी सोच की

ऐसी कितनी लोकोक्तियों से हमारी भाषा भरी पड़ी है। भाषा में वही है जो समाज में है। जब हम समानता की बात करते हैं तो हमें भाषा के इस स्तर पर आकर समानता तलाशनी होगी। 

एडिटर्स नोट: यह तीन लेखों की एक सीरीज़ है। इन लेखों के ज़रिये लेखक ने हमारे आस-पास प्रचलित लोकोक्तियों के जातिवादी, महिला-विरोधी चरित्र की विवेचना करने की कोशिश की है।

हम सब एक समाज में रहते हैं। हर समाज की अपनी भाषा होती है। इसी भाषा में हम बातचीत करते हैं, अपने मनोभावों को व्यक्त करते हैं, विचार करते हैं। हर भाषा की अपनी लोकोक्तियाँ होती हैं। लोकोक्ति यानी लोक में प्रचलित उक्ति। अलग-अलग विद्वान इसे अपने तरीके से परिभाषित करते हैं। डॉ भोलानाथ तिवारी के अनुसार, “विभिन्न प्रकार के अनुभवों, पौराणिक तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों और कथाओं, प्राकृतिक नियमों और लोक विश्वास आदि पर आधारित चुटीला, सारगर्भित, सजीव, संक्षिप्त लोक प्रचलित ऐसी उक्तियों को लोकोक्ति कहते हैं जिनका प्रयोग बात की पुष्टि या विरोध, सीख तथा भविष्य कथन आदि के लिए किया जाता है।” जबकि धीरेन्द्र वर्मा लोकोक्तियों को ग्रामीण जनता का नीतिशास्त्र कहते हैं। 

आमतौर पर इसे ‘गागर में सागर’ भरना माना जाता है यानी कम बोलकर भी अधिक कह जाना। किसी भी समाज की संरचना को लोकोक्तियों के माध्यम से सबसे प्रमाणिक तौर पर देखा जा सकता है। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण है। लेकिन साहित्य एक कला है और कला में प्रक्षेपण का खतरा लगातार बना रहता है। लोकोक्तियों में सामाजिक स्थिति एकदम नग्न रूप में प्रतिफलित होती है। समाज में जिस तरह से लोग सोच रहे हैं, व्यवहार कर रहे हैं वही लोकोक्तियों में दर्ज हो रहा है।

छोटी कक्षाओं से ही हमें लोकोक्तियाँ और मुहावरे पाठ्यक्रम में पढ़ाये जाते रहे हैं। हमारे लिए भी याद करके परीक्षा में लिखने भर जितना ही, वे उपयोगी रहे। ये लोकोक्तियाँ और कहावतें जाति के स्तर पर, जेंडर के स्तर पर और विकलांगों के प्रति बहुत क्रूर हैं। ये लोकोक्तियाँ समाज के उस सच को जाहिर करते हैं जहाँ जाति के आधार पर लोगों से भेदभाव किया जाता है, जहाँ स्त्रियों की दशा कितनी बदतर है, जहाँ विकलांगों पर या तो मज़ाक बनाया जाता है या हीन समझा जाता है। 

स्त्री किसी भी जाति, धर्म की हो जबसे ज्यादा वही शोषित होती है। इस देश के लोग यह कहने में बिल्कुल नहीं हिचकते हैं कि यत्र नारी पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता। लेकिन उन्हीं मनु ने स्त्रियों के खिलाफ़ क्या-क्या लिखा उसे छिपा लिया जाता है। तुलसीदास की एक पंक्ति जो लगभग लोकोक्ति की तरह ही इस्तेमाल की जाती है, “ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥” हर साल इस पर विवाद खड़ा होता है और तुलसी के बचाव में कैसे-कैसे तो तर्क दिए जाते हैं जिसे हास्यास्पद के सिवा और क्या कहा जा सकता है। बहुत स्पष्ट है कि तुलसी की दृष्टि उस समाज से अलग नहीं है जहाँ शूद्रों और स्त्रियों का शोषण किया जाता है। 

ये समाज विधवाओं को लेकर कितना क्रूर रहा है। इस संरचना को समझने की ज़रूरत है। बेमेल विवाह इसी समाज में होता रहा है यानी साठ साल के बूढ़े का विवाह 18-20 साल की बच्ची से कर दिया जाता था। स्वाभाविक है कि वह कम उम्र में विधवा हो जाएगी। अब उसके लिए इस समाज में यह प्रावधान था कि या तो वह सती हो जाए या आजीवन सादगी से रहे। विधवाओं की उपस्थिति को किसी भी ‘शुभ’ आयोजन में पाप समझा जाता है। कोशिश तो यही रहती है कि उन्हें इस तरह के आयोजन से दूर रखा जाए। विधवाओं को लेकर य समाज क्या सोचना है उसे समाज में प्रचलित लोकोक्तियों से समझा जा सकता है।

ये लोकोक्तियाँ और कहावतें जाति के स्तर पर, जेंडर के स्तर पर और विकलांगों के प्रति बहुत क्रूर हैं। ये लोकोक्तियाँ समाज के उस सच को जाहिर करते हैं जहाँ जाति के आधार पर लोगों से भेदभाव किया जाता है, जहाँ स्त्रियों की दशा कितनी बदतर है, जहाँ विकलांगों पर या तो मज़ाक बनाया जाता है या हीन समझा जाता है। 

एक लोकोक्ति है, “राँड का रोना और पुरुरवा का बहना व्यर्थ नहीं जाता।” पुरवाई हवा जब चलती है तो कहा जाता है कि बारिश होगी और विधवा स्त्री ने किसी को शाप दे दिया तो उसका बुरा होकर रहेगा। यह सब यहीं नहीं थमता है। दूसरी लोकोक्ति में कहते हैं,”राँड के आगे गाली क्या।” विधवा होने को गाली में तब्दील कर दिया गया है। एक स्त्री जिसका पति मर चुका है तो अब उसका जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया है। पुरुष के बिना ये समाज स्त्री की कल्पना ही नहीं कर सकता है। 

पुरुषों का चरित्र बहुत ‘लचीला’ होता है। इन्हें हर बार कोई स्त्री पदभ्रष्ट करती है। अपना विवेक तो है नहीं स्त्री जिधर चाहे मोड़ सकती है। लोक में ही कहावत है, “राँड, साँड, सीढ़ी, संन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशी।” पुरुष ‘धर्म’ के काम से काशी जा रहे हैं जहाँ उन्हें विधवा स्त्री से खतरा है कि इनकी मनोरथ पूर्ति में बाधा बन जाएगी। एक स्त्री जिसका पति मर गया हो उसकी तस्वीर किस तरह उभरती है आपके मन में? कुछ-कुछ वैसा ही जैसा फिल्मों में दिखाया जाता है। एक स्त्री सफेद साड़ी में उदास बैठी हुई है। रंग सिर्फ़ उसके कपड़ों से नहीं, जीवन से भी गायब है। हँसना उसके लिए अपराध है। “अरे! इतने के बाद भी कैसे बेशर्मों की तरह हँसती है।”

स्त्री को इस समाज में रहस्य बनाकर रखा गया है। इसी रहस्य में वह देवी बना जाती है और पुरुषों द्वारा अहं तृप्ति का लक्ष्य भी। स्त्री को समझने की कोशिश ही नहीं होती है। उसे स्वयं अभिव्यक्ति करने का तो मौका ही नहीं दिया गया। हर बार सवाल उसके चरित्र पर आया। यह समाज कहता रहा, “त्रिया चरित ईश नहीं जाने।” क्या जानने की कोशिश की भी गई? रहस्य बनाने वाला, समझने वाला समाज भी तो यही है। 

अगर एक विधवा स्त्री ने शृंगार कर लिया तो समझो पाप कर दिया है। स्त्रियों के खिलाफ़ पुरुषों का हमेशा से अचूक हथियार रहा है उन्हें चरित्रहीन कह देना। समाज में अगर ये धारणा है तो लोकोक्ति में तो आनी ही थी। “विधवा होई के करै सिंगार, ओहि ते सदा रहो हुसियार।” हमारे घरों में अक्सर कहने-सुनने को मिलता है कि अब औरतों से पूछकर काम किया जाएगा। औरतें किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय की भूमिका में शामिल नहीं की जाती हैं। भले ही ये निर्णय उनसे जुड़ा हुआ क्यों न हो। शादी के बाद पुरुषों के लिए मजाक में कहा जाता है कि जोरू के गुलाम हो गए हो। समाज में तो धारणा यहाँ तक प्रचलित है, “लुगाई की माने सीख, दर-दर माँगे भीख।” 

स्त्री को इस समाज में रहस्य बनाकर रखा गया है। इसी रहस्य में वह देवी बना जाती है और पुरुषों द्वारा अहं तृप्ति का लक्ष्य भी। स्त्री को समझने की कोशिश ही नहीं होती है। उसे स्वयं अभिव्यक्ति करने का तो मौका ही नहीं दिया गया। हर बार सवाल उसके चरित्र पर आया। यह समाज कहता रहा, “त्रिया चरित ईश नहीं जाने।” क्या जानने की कोशिश की भी गई? रहस्य बनाने वाला, समझने वाला समाज भी तो यही है। 

“लुगाई के पेट में बात कहाँ पचे”, लगभग हर घर में इस लोकोक्ति का प्रयोग किया जाता है। स्त्रियों के बारे में धारणा बना ली गई है कि उसे जो बात बता दें वह सिर्फ़ अपने तक नहीं रखेंगी। जबकि ये सामान्य मनुष्य का स्वभाव है कि वह किसी से कुछ साझा करना चाहता है। लेकिन इस तरह की कहावतों में स्त्रियों को ‘अविश्वसनीय’ बनाने की मानसिकता रही है।

पिछले कुछ महीनों से पुरुषों ने फिर से वही राग अलापना शुरू कर दिया है जहाँ वह कहते हैं कि पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ घर तोड़ती हैं। इस बार बहाना बनीं एसडीएम ज्योति मौर्य। ज्योति पर उनके पति ने आरोप लगाया कि उन्होंने ज्योति को पढ़ाया-लिखाया और जब वह एसडीएम बन गयीं तो उसने मुझे छोड़ दिया। इसका प्रभाव ये पड़ा कि शादी के बाद जो लड़कियाँ पढ़ रहीं थीं या पढ़ने की इच्छा रखती थीं उन्हें पढ़ने से रोका जाने लगा। लोक में एक कहावत प्रचलित है, “शोख लड़की वर की आँख फोड़े।” शादी के बाद परिवार में कोई समस्या आती है तो उसका आरोप लड़की पर आता है कि वह घर तोड़ रही है। 

“लुगाई के पेट में बात कहाँ पचे”, लगभग हर घर में इस लोकोक्ति का प्रयोग किया जाता है। स्त्रियों के बारे में धारणा बना ली गई है कि उसे जो बात बता दें वह सिर्फ़ अपने तक नहीं रखेंगी। जबकि ये सामान्य मनुष्य का स्वभाव है कि वह किसी से कुछ साझा करना चाहता है। लेकिन इस तरह की कहावतों में स्त्रियों को ‘अविश्वसनीय’ बनाने की मानसिकता रही है। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को भी समझने की ज़रूरत है। जिस लोक में यह कहावत प्रचलित है वहाँ स्त्रियाँ दिन-भर में कितने लोगों से मिलती हैं? उसका दायरा घर तक सीमित रहा है। पुरुषों की सामाजिक स्थिति के हिसाब से यह कहावत तो पुरुषों के लिए होनी चाहिए क्योंकि वे ज्यादा लोगों से मिल रहे हैं और बात कहने की संभावना वहीं ज्यादा होगी। 

‘तुम्हारी बीवी तुम्हारे वश में नहीं है क्या?’, ‘तुम्हारे सामने बोलती निकलती है?’, हम सब इस तरह के संवाद से परिचित होंगे। पितृसत्तात्मक ढांचे में पुरुषों ने स्त्रियों को हमेशा ‘नियंत्रित’ करने की कोशिश की। आश्चर्य नहीं कि इस समाज में अगर ऐसी लोकोक्ति है कि लुगाई जिसकी जो दबाकर रखे। शारीरिक, मानसिक हिंसा से पुरुषों ने सदियों से यह किया है। तुलसीदास ने कहा था, “जिमि स्वतंत्र होईं बिगड़हिं नारी।” स्त्रियों की स्वतंत्रता से यह समाज कितना भयभीत रहता है। 

स्त्रियाँ कितने ही मोर्चों पर संघर्ष कर रही होती हैं। उनका ही शोषण होता और आरोप भी उन पर लगता है।’ज़रूर तुमने ही कुछ किया होगा’, ‘तुम्हारे ही साथ क्यों होता है?’, इन सब तरीकों से लड़कियों का चरित्रहनन होता है। समाज को लगभग क्लीनचिट देती हुई कहावत सामने आती है, “अपनी लड़की भली होती तो दूसरा क्यों गाली देता?” ऐसी कितनी लोकोक्तियों से हमारी भाषा भरी पड़ी है। भाषा में वही है जो समाज में है। जब हम समानता की बात करते हैं तो हमें भाषा के इस स्तर पर आकर समानता तलाशनी होगी। 


Comments:

  1. Manvendra Singh says:

    बेहद खुबसुरत लेख है, जिस उम्र में आपने समाज कि इन कुरीतियों को जाना परखा, वाकई खुबसुरत जीवन शैली होगी

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