इंटरसेक्शनलजाति सत्ता और जाति के गर्व में उन्मादी होता ये समाज आखिर कहां जा रहा है

सत्ता और जाति के गर्व में उन्मादी होता ये समाज आखिर कहां जा रहा है

इससे भी भयावह बात दिखी  कि इस अमानवीय व्यवहार के लिए  बहुत सारे लोग सोशल मीडिया पर इस वीडियो के कमेंटबॉक्स में जाकर ‘जय श्री राम’ कह कर इसे कृत्य को सही ठहरा रहे हैं। कॉमेंट बॉक्स में नारे लगाती यह भीड़ इतनी वहशी हो गई है कि अब उसका सारा मनुष्यबोध ही खत्म हो गया है।

जब एक सामंतवादी विचारधारा, ब्राह्मणवादी सत्ता धर्म और जाति की राजनीति करते हुए स्थापित होती है तो हाशिये की जातियों के मनुष्यों का जीवन और पीछे धकेला जाता है। आज भारतीय राजनीति का यही परिदृश्य है। वंचितों को हथियार बनाकर अपनी लड़ाई लड़ती यह सत्ता दिन-ब-दिन निरंकुश होती जा रही है। जातीय गर्व और सत्ता के मद में डूबा एक व्यक्ति का वीडियो सोशल मीडिया पर घूम रहा है जिसमें वह सड़क पर बैठे एक आदिवासी मनुष्य के मुंह पर पेशाब कर रहा है। क्रूरता की पराकाष्ठा पार करता यह व्यक्ति नशे में धुत है। ये घटना मध्य प्रदेश के सीधी की है।

अपराधी व्यक्ति का नाम प्रवेश शुक्ला है। शराब के नशे में यह आदमी वहां की सत्ता का बहुत ‘चहेता’ माना जाता है। लगातार वायरल हो रहे इस वीडियो को देखते हुए एक दहशत सी मन में उठती है कि मनुष्य कितना क्रूर हो सकता है। इससे भी भयावह बात दिखी  कि इस अमानवीय व्यवहार के लिए  बहुत सारे लोग सोशल मीडिया पर इस वीडियो के कमेंटबॉक्स में जाकर ‘जय श्री राम’ कह कर इसे कृत्य को सही ठहरा रहे हैं। कॉमेंट बॉक्स में नारे लगाती यह भीड़ इतनी वहशी हो गई है कि अब उसका सारा मनुष्यबोध ही खत्म हो गया है। आखिर कहां जा रहा है यह समाज। आरोपी को गिरफ्तार कर उस पर फिलहाल एनएसए भी लगाया गया है।

आदिवासी व्यक्ति के साथ जो अमानवीय उत्पीड़न हुआ वह सिर्फ शराब का नशा नहीं था। यह सत्ता की सामंती और जातिवादी सोच का नशा है। यह शक्ति का नशा है। यह वर्ण व्यवस्था में खड़े उस व्यक्ति का नशा है जो खुद को श्रेष्ठ समझता है यह जाति में डूबे अन्यायी समाज का नशा है। किसी देश के लिए यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि जाति, धर्म और संप्रदाय ही इस देश सच है, मनुष्य से मनुष्य का कोई संबंध ही नहीं है। आज देश के जनमन को दिन-ब-दिन इसे उसी तरफ धकेला जा रहा है। शायद यह बर्बादी ही इस देश की नियति थी। यह वह समय है जब जिस देश में सबसे बड़े संवैधानिक पद पर आदिवासी मनुष्य बैठा हो उसी देश में आदिवासी मनुष्य के साथ ऐसा बर्बर व्यवहार।

आदिवासी व्यक्ति के साथ जो अमानवीय उत्पीड़न हुआ वह सिर्फ शराब का नशा नहीं था। यह सत्ता की सामंती और जातिवादी सोच का नशा है। यह शक्ति का नशा है। यह वर्ण व्यवस्था में खड़े उस व्यक्ति का नशा है जो खुद को श्रेष्ठ समझता है यह जाति में डूबे अन्यायी समाज का नशा है।

ऐसा नहीं है कि ये सत्ता के मद में डूबा यह सवर्ण समाज पहली बार हाशिये के मनुष्य के साथ ऐसी बर्बरता कर रहा है। यह सदियों का अभ्यास है। आप इतिहास उठाकर पलटेंगे तो वह इन सत्ताखोर लोगों के कुकृत्यों से भरा पड़ा है। स्त्री और हाशिये का मनुष्य इनके लिए मनुष्य नहीं होता। उनसे बेगार करवाना, उनको अपमानित करना, उनका हर तरह का शोषण करना ये अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। आज मुंह पर पेशाब करने का वीडियो बन गया और सोशल मीडिया पर घूम रहा है वरना सदियों से स्त्री और दलित के साथ ऐसे अपराध ही नहीं इससे भी कहीं ज्यादा क्रूर और भयावह अपराध होते आ रहे हैं। कितने भयावह और क्रूर अपराध आदिवासी स्त्रियों के साथ हुए हैं। समय-समय पर बस खबर की तरह ऐसी हिंसा हमारे सामने आती रहती है। इनके ख़िलाफ़ न्याय का कोई ठोस कदम नहीं दिखाता।

बहुत पहले विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता पढ़ी थी ‘रायपुर बिलासपुर सम्भाग‘ जिसमें आदिवासी मनुष्यों के ट्रेन में चढ़ने पर उनके खुद के भय और संकोच के साथ तथाकथित शहरी सभ्य लोगों को जो व्यवहार है उसका बहुत जीवंत और मार्मिक चित्रण है। जब उन्होंने कविता लिखी होगी तो आदिवासी मनुष्यों की बैठने की जगह पर कचरा फेंकने के दुर्व्यवहार को कहते हैं लेकिन ये तथाकथित सभ्य समाज अब अपनी उस सभ्यता से कहीं आगे बढ़ चुका है। उनका वो दुर्व्यवहार अब उनकी हिंसा में बदल चुका है। सुविधा भोगी समाज की इसी मानसिकता को विनोद कुमार शुक्ल ने यहां कविता के इस अंश में चिन्हित किया है।

एक भी छूट गया अगर
गाड़ी में चढ़ने से
तो उतर जाएँगे सब के सब ।
डर उससे भी ज़्यादा है
अलग-अलग बैठने की बिलकुल नहीं हिम्मत
घुस जाएँगे डिब्बों में
खाली होगी बेंच
यदि पूरा डिब्बा तब भी
खड़े रहेंगे चिपके कोनों में
य उखरू बैठ जाएँगे
थककर नीचे
डिब्बे की ज़मीन पर ।
निष्पृह उदास निष्कपट इतने
कि गिर जाएगा उनपर केले का छिलका
या फ़ल्ली का कचरा
तब और सरक जाएँगे
वहीं कहीं
जैसे जगह दे रहे हों
कचरा फ़ेंकने को अपने ही बीच ।

ये सुविधा सम्पन्न जातियां दैहिक हिंसा के साथ कितनी मानसिक हिंसा भी करते हैं। युगों की ऐसी कंडीशनिंग ये सहते हुए भूले से रहते हैं कि कितनी पीड़ा और यातना ये जाति के नाम पर हाशिये के मनुष्यों को देते हैं। इसका हिसाब करने कभी हाशिये का मनुष्य बैठे तो पूरी मनुष्यता शर्मसार होगी। जातीय खांचे में बटे इस देश मे ये युगों से चली आ रही त्रासदी है। इन त्रासदियों के प्रभाव को जाति-शक्ति-सम्पन्न समाज कभी नहीं समझ सकता। आज जब इस समय में सारी खबरें सोशल मीडिया पर आ जाती हैं तो ये दिख रहा है कि लगातार हाशिये के जनों के दमन की खबरें आती रहती हैं। सत्ताखोर लोगों के अन्याय की एक खबर पर आप स्तब्ध ही रहते हैं कि दूसरी आ जाती है। दलितों-शोषितों-वंचितों के साथ अन्याय इस देश में तरह-तरह से होता रहता है जैसे कि अब ये संवेदना बस एक खबर भर रह जाती है जिसका सिलसिला इस सत्ता में थमता नहीं है एक खबर आती नहीं है कि दूसरी उससे भी भयावह ख़बर आ जाती है।

एक समाज को सत्ता जब खुद हिंसा की तरफ धकेलती है तो समय बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है। लेकिन इस कृत्य के ख़िलाफ़ सत्ता बुलडोजर-बुलडोजर खेल रही है। ऐसे जघन्य अपराध के लिए सत्ता अगर खुद जंगल कानून को स्थापित करके फासिस्ट चलन को बढ़ावा दे रही है तो आम जन में क्या संदेश जाएगा। लेकिन ये हिंसा का न्याय देश के जनमन को फासीवादी सोच को बढ़ावा देना है। ये समाज को अराजकता की तरफ ले जाने की कवायद है । आखिर ये किस तरह का न्याय है हम किस समाज में रह रहे हैं और किस दिशा में बढ़ रहे हैं। ये सत्ता की हनक और जातीय दंभ से ग्रसित आदमी क्या इसी एक अपराध पर रुक जायेगा इससे पहले भी उसने इस तरह के अमानवीय अपराध कमजोर लोगों पर किये होंगें और कल को थाने से छूटकर कर सत्ता की ताकत में रहकर वह फिर अपना वही अन्यायपूर्ण जीवन जिएगा।

अगर हम सिर्फ सतह से देखते हैं तो इस तरह के सामाजिक अपराध हमें एक एकल अपराध लग रहा है लेकिन ये एक बहुसंख्यक समाज का हाशिये के समाज के साथ किया गया सामुहिक अपराध है। शोषितों वंचितों के साथ हुई कोई हिंसा स्थानीय नहीं होती वो ग्लोबल होती है क्योंकि दुनिया में ताकत का ये कुख्यात खेल चलता है वहाँ जाति ,नस्ल ,धर्म और सम्प्रदाय के अलग अलग मसले होते हैं ।क‌ई मामलों में तो ये होता है कि अपराध जातीय बोध में होता है। पीड़ित कोई एक व्यक्ति भले रहे, लेकिन अपराध व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं रहता। गांवों में तो ये अपराध बहुत सामुहिक और सामाजिक स्वीकार्यता से होते आ रहे हैं।

एक समाज को सत्ता जब खुद हिंसा की तरफ धकेलती है तो समय बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हो जाता है। लेकिन इस कृत्य के ख़िलाफ़ सत्ता बुलडोजर-बुलडोजर खेल रही है। ऐसे जघन्य अपराध के लिए सत्ता अगर खुद जंगल कानून को स्थापित करके फासिस्ट चलन को बढ़ावा दे रही है तो आम जन में क्या संदेश जाएगा।

सवर्ण शिक्षक हाशिये की जाति के बच्चों के साथ जघन्य अपराध करते थे और उन्हें कभी कोई सजा नहीं हुई। पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में ये अपराध अभ्यास की तरह चलते हैं और इन अपराधों का समाज में ऐसी ट्रेनिंग हो जाती है कि यहां हर ताकतवर व्यक्ति अपने से कम ताकतवर के साथ या हर व्यक्ति अपने से हाशिये की जाति से अपराध करता है उन्हें अपमानित करता है जातिसूचक गालियां देता है। छुआछूत का भेदभाव करता है और इन तथाकथित उच्च जातियों के लोगों को इस सत्ता की हनक ने और ताकतवर कर दिया है। अब तक ऐतिहासिक रूप से चला आ रहा इनका श्रेष्ठताबोध आए दिन इनसे बर्बर अपराध करवा रहा है।


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