इंटरसेक्शनलविकलांगता विकलांगता के प्रति पूर्वाग्रहों को मज़बूत करने में भाषा की भूमिका

विकलांगता के प्रति पूर्वाग्रहों को मज़बूत करने में भाषा की भूमिका

योग्यता का सवाल इस देश में लगातार उठता रहता है। लेकिन सवाल तो यह भी है कि योग्यता का पैमाना तय कौन करेगा? वे तमाम लोग जो ख़ुद को योग्य बताते हैं और बाकियों को अयोग्यता का प्रमाणपत्र बाँटते-फिरते हैं उसका पैमाना क्या है? क्यों इस समाज में इस तरह की कहावत है जहाँ कहा जाता है, "अंधे के हाथ बटेर लगना।" दरअसल इस तरह की कहावतों में हम विकलांग व्यक्तियों की सारी उपलब्धियों और मेहनत को महज़ तुक्का कहकर खारिज कर रहे होते हैं। 

एडिटर्स नोट: यह तीन लेखों की एक सीरीज़ है। इन लेखों के ज़रिये लेखक ने हमारे आस-पास प्रचलित लोकोक्तियों के जातिवादी, महिला-विरोधी चरित्र की विवेचना करने की कोशिश की है। यह इस सीरीज़ का तीसरा और आखिरी लेख है।

‘दिखाई नहीं देता, अंधे हो गए हो क्या?’, ‘कबसे बुला रहा हूँ, बहरे हो जो सुनाई नहीं दे रहा’, इस तरह के संवाद से हम दैनिक जीवन में परिचित ही होंगे। इस तरह की भाषा प्रयोग कर हम विकलांगों के प्रति क्रूर हो रहे होते हैं। इसे ही एबलिज़्म या समर्थवाद कहा जाता है। एबलिज़्म विकलांग लोगों के प्रति भेदभाव और सामाजिक पूर्वाग्रह है, जो इस विश्वास पर आधारित है कि कुछ ख़ास क्षमताएं श्रेष्ठ हैं। 

भाषा की अपनी सत्ता होती है। भाषा को बरतने से पहले समझना होगा कि उसे गढ़ने वाले लोग कौन हैं। क्या यह अनायास है कि स्त्रियों के प्रति, दलितों के प्रति, विकलांगों के प्रति भाषा का रवैया ठीक नहीं है। जाति और जेंडर की तरह ही विकलांगों के लिए भाषा में इतनी कहावतें भरी हुई हैं जो उन्हें ‘हीन’, ‘असहाय’, ‘ख़राब’ साबित करती दिखाई देती हैं। 

जब कोई सरकार अच्छा काम नहीं कर रही होती और जनता से कट जाती है तो कहा जाता है कि ‘अंधी-बहरी’ सरकार है। इंदिरा गाँधी को ‘गूँगी गुड़िया’ कहा गया। क्या सत्ता के इस ढांचे को चुनौती देने के लिए हमारे पास ऐसी भाषा नहीं जो बिना विकलांगों को हीन बताये प्रयोग की जा सके? इसके साथ ही हमें हिंदी सिनेमा में हास्य की अवधारणा को समझने की ज़रूरत है। विकलांग किरदारों का इस्तेमाल विद्रूपता दिखाने के लिए किया जाता है। नायक एक ख़ास तरीके की ‘समर्थता’ वाले लोग हो सकते हैं। उसके इतर जो भी हैं मजाक बनाने के लिए हैं। यही हाल साहित्य में भी रहा है। हमारी भाषा विकलांगों के प्रति न्याय नहीं करती है।

सुश्रीता बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

जहाँ विकलांगों के प्रति भाषिक क्रूरता नहीं होती वहाँ भी उनके साथ भेदभाव ही होता है। उन्हें बार-बार एहसास कराया जाता है कि तुम अपने में ‘पूर्ण’ नहीं हो। तुम्हें सहारे की ज़रूरत है। उनका चित्रण ‘बेचारगी’ से किया जाता है। विकलांग जनों को बराबर समझने की बजाय हम उनसे सहानुभूति अधिक रखते हैं। यह सब उनके आत्मविश्वास पर बहुत असर डालता है। 1980 में एक फिल्म आयी थी ‘स्पर्श।’ यह फिल्म विकलांग लोगों के प्रति सहानुभूति रखने की बजाय बराबरी की वकालत करती है। नसीरुद्दीन शाह फिल्म में कहते हैं, “मुझे लगता है कि आपके एहसान मुझ पर बोझ बन गए हैं।” जो लोग समावेशी शिक्षा के पक्षधर उन्हें यह फिल्म देखनी चाहिए। 

लोक में एक कहावत है, “लँगड़ी घोड़ी मसूर का दाना।” इसका प्रयोग तब किया जाता है जब अयोग्य व्यक्ति को सम्मान मिलने लगता है। कभी ये अयोग्यता जाति विशेष को केंद्र में रखकर कही जाती है, कभी स्त्रियों को लेकर और कभी विकलांगों के लिए। ऐसी कहावतों की भरमार है। दूसरी कहावत में भी कुछ ऐसा ही भाव लक्षित है।”अंधा मुर्गा सड़ा धान, जैसा नाई वैसा जजमान।” स्त्रियों के ऊपर कही जाने वाली कहावतों में पहले तो उनका वस्तुकरण होता है फिर उन्हें असहाय बताया जाता है। उनको हमेशा किसी आश्रयदाता की आवश्यकता होती है। ‘अंधे की जोरू का देवर रखवाला।’ यह एक साथ स्त्रियों और विकलांगों के प्रति भेदभाव को दिखाता है। समाज ऐसी कहावतों में देवर-भाभी के चुटकुलों को चटकारे लेकर सुनाता है। 

भाषा की अपनी सत्ता होती है। भाषा को बरतने से पहले समझना होगा कि उसे गढ़ने वाले लोग कौन हैं। क्या यह अनायास है कि स्त्रियों के प्रति, दलितों के प्रति, विकलांगों के प्रति भाषा का रवैया ठीक नहीं है। जाति और जेंडर की तरह ही विकलांगों के लिए भाषा में इतनी कहावतें भरी हुई हैं जो उन्हें ‘हीन’, ‘असहाय’, ‘ख़राब’ साबित करती दिखाई देती हैं। 

तुम्हारी लंगी‘ की लेखिका और विकलांगता विमर्श पर मुखर होकर लिखने वाली कंचन चौहान एक कहावत का ज़िक्र करते हुए बताती हैं, “का पर करूँ सिंगार पिया मोरा आँधर।” 16-17 साल की उम्र में जब पहली बार यह मुहावरा किसी ने मजाकिया लहज़े में कहा था तब कुछ तो लगा था दिल पर धक्क से। मतलब कोई व्यक्ति नेत्रहीन है तो पहले तो उसे किसी का पिया होना ही नहीं चाहिए क्योंकि बुनियादी ज़रूरत तो वह पूरी ही नहीं कर पायेगा अपनी प्रिया की, जो है उसके श्रृंगार की तारीफ़, उसका अवलोकन (वैसे बड़े कम परसेंट देखे हैं हमने सीरियस प्रेम में श्रृंगार की तारीफ़ तक सीमित होने वाले लोग)। अगर बदकिस्मती से किसी प्रिया का पिया बन भी जाता है तो वह बेचारी तो बस मन मसोस कर ही रह जाती है, किसे दिखाने को करे श्रृंगार ? और पिया एवं प्रिया के बीच आम तौर पर इससे अधिक होता भी क्या है?” 

योग्यता का सवाल इस देश में लगातार उठता रहता है। लेकिन सवाल तो यह भी है कि योग्यता का पैमाना तय कौन करेगा? वे तमाम लोग जो ख़ुद को योग्य बताते हैं और बाकियों को अयोग्यता का प्रमाणपत्र बाँटते-फिरते हैं उसका पैमाना क्या है? क्यों इस समाज में इस तरह की कहावत है जहाँ कहा जाता है, “अंधे के हाथ बटेर लगना।” दरअसल इस तरह की कहावतों में हम विकलांग व्यक्तियों की सारी उपलब्धियों और मेहनत को महज़ तुक्का कहकर खारिज कर रहे होते हैं। 

साथ ही हमें हिंदी सिनेमा में हास्य की अवधारणा को समझने की ज़रूरत है। विकलांग किरदारों का इस्तेमाल विद्रूपता दिखाने के लिए किया जाता है। नायक एक ख़ास तरीके की ‘समर्थता’ वाले लोग हो सकते हैं। उसके इतर जो भी हैं मजाक बनाने के लिए हैं। यही हाल साहित्य में भी रहा है। हमारी भाषा विकलांगों के प्रति न्याय नहीं करती है।

एक लोकोक्ति तो लगभग सबकी ही जुबान पर रहती है। “राम मिलाये जोड़ी, एक अंधा एक कोढ़ी।” दो असमर्थ व्यक्तियों के साथ आने पर लोग इस लोकोक्ति का इस्तेमाल करते हैं। अपने मूल में ही ये समस्याग्रस्त है। ऐसी ही एक और कहावत है। “अंधा बुलावे लँगड़ा के” यानी मुश्किल वक़्त में असमर्थ व्यक्ति बुला भी रहा है तो किसी असमर्थ को ही। इस स्थिति में कोई सहायता नहीं हो सकती है। विकलांगों को असहाय बताने का संस्कार लोगों में गहरे समाया हुआ है। 

ये समाज विकलांगों को ‘बोझ’ कहने से नहीं हिचकता है। अपनी भाषा, कहावतों में बार-बार उन पर प्रहार करते रहते हैं। लोग उनसे बचकर निकलना चाहते हैं। लोक में कहावत है कि अंधे की दोस्ती जी का जंजाल। यह सब कहकर हम विकलांगों के पूरे अस्तित्व को कमतर बता रहे होते हैं। लड़कियों को बचपन से ही बताया जाता है कि वे पराया धन हैं। यह शब्द-युग्म अपने आप में ही ख़राब है। फिर लड़की अगर विकलांग हुई तो समझिए उसके साथ कैसा बर्ताव होगा। इसी समाज में लोकोक्ति कही जाती है, “कानी के बियाह को नौ सौ जोखिम।” एक लड़की की सार्थकता उसकी शादी में ही देखी जाती है। सामाजिक और भाषिक स्तर पर यह सब बहुत परेशान करने वाला है। 

योग्यता का सवाल इस देश में लगातार उठता रहता है। लेकिन सवाल तो यह भी है कि योग्यता का पैमाना तय कौन करेगा? वे तमाम लोग जो ख़ुद को योग्य बताते हैं और बाकियों को अयोग्यता का प्रमाणपत्र बाँटते-फिरते हैं उसका पैमाना क्या है? क्यों इस समाज में इस तरह की कहावत है जहाँ कहा जाता है, “अंधे के हाथ बटेर लगना।” दरअसल इस तरह की कहावतों में हम विकलांग व्यक्तियों की सारी उपलब्धियों और मेहनत को महज़ तुक्का कहकर खारिज कर रहे होते हैं। 

कंचन आगे बताती हैं, “हमारे इर्द गिर्द इन कहावतों को कहने वाले और कहकर हँसने वाले लोग हैं। यह समझने वाले लोग नहीं कि जिनको रोज़ इनसे जूझना पड़ता है उन पर क्या बीतती है इन उपहासी कहावतों को सुन कर! हम अपने आदिम स्वभाव से आगे बढ़ अगर इन मुहावरों से मुक्त हो सकेंगे तो शायद किसी व्यक्ति को कमतर समझने से भी आगे बढ़ सकें।”

जब हम समावेशी होने की बात करते हैं, संवेदनशील होने की बात करते हैं, लैंगिक-भेदभाव, जातिवाद से ऊपर उठने की बात करते हैं तो हमें भाषा के इस पक्ष को देखना-समझना पड़ेगा जो लोक में प्रचलित है। ये कहावतें क्रूरता ही हद तक समाज में प्रचलित हैं। भाषा की इस संरचना में बदलाव किये बगैर हम स्वस्थ परिवेश की कल्पना नहीं कर सकते हैं। हमें इन लोकोक्तियों पर सवाल करने की ज़रूरत है। इनको नज़रअंदाज़ करने की बजाय इनसे टकराकर सामाजिक ताने-बाने को समझने की ज़रूरत है। 


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