इंटरसेक्शनलजेंडर ओबीसी, अल्पसंख्यक कोटे के बिना पास ‘महिला आरक्षण बिल 2023’ महज एक राजनीतिक स्टंट!

ओबीसी, अल्पसंख्यक कोटे के बिना पास ‘महिला आरक्षण बिल 2023’ महज एक राजनीतिक स्टंट!

नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023 का मकसद लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षित प्रतिनिधित्व देना है। यह बिल एक्ट बनकर संविधान का 128वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम बनने जा रहा है।

नारी शक्ति वंदन अधिनियम कहिए या वुमन रिजर्वेशन बिल, तकरीबन 27 सालों से लंबित यह बिल 128वें संवैधानिक संशोधन विधेयक के रूप में मंगलवार, 19 सितंबर को नए संसद भवन में केंद्रीय कानून मंत्री, अर्जुन राम मेघवाल ने लोकसभा में पेश किया था। बुधवार, 20 सितंबर को लोकसभा ने बिल पास कर दिया जिसमें 454 सांसद बिल के पक्ष में थे और केवल दो एमपी विपक्ष में। इसके बाद ग्यारह घंटे तक राज्यसभा में बहस चली और 21 सितंबर को एक भी वोट विपक्ष में ना जाते हुए 215 सांसदों की सहमति से यह बिल राज्यसभा में भी पास हो गया।

नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023 का मकसद लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षित प्रतिनिधित्व देना है। यह बिल एक्ट बनकर संविधान का 128वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम बनने जा रहा है। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित जानकारी के अनुसार 2023 का विधेयक एक संवैधानिक प्रावधान में संशोधन का प्रस्ताव करता है, यानी, अनुच्छेद 239AA (दिल्ली के संबंध में विशेष प्रावधान), और तीन नए अनुच्छेद अर्थात् अनुच्छेद 330A, 332A और 334A को सम्मिलित करना। पहले दो क्रमशः लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 33 प्रतिशत पेश करने की मांग करते हैं।

माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस दिन को ऐतिहासिक कह रहे हैं क्योंकि इस बिल के एक्ट बनने के बाद 95 करोड़ रजिस्टर्ड महिला मतदाता, देश की आधी आबादी के लिए संसद के दरवाजे खुलेंगे। यह बिल आनन-फानन में संसद से पास तो हो गया है लेकिन इसमें जो कमियां हैं वे निसंदेह महिलाओं के एक वर्ग को भुगतनी होंगी। संसद में भी मनोज झा, राहुल गांधी ने बिल की कमियों पर बात की है। कई महिला सांसद जैसे मायावती, आतिशी को भी बिल में कमियों का ज्ञात था, बावजूद इसके यह बिल सर्वसम्मति से पास हुआ है।

महिला आरक्षण बिल राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाएगा जो एक लोकतंत्र में जरूरी भी है लेकिन बिल में मौजूद खामियों को लेकर कई सवाल बनते हैं। पहला, बिल में से अन्य पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक (प्रथमतः मुस्लिम) महिलाओं के लिए आरक्षण नहीं होना। दूसरा, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण पहले से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सांसदों के लिए तय आरक्षण में जगह देना ना कि वुमन रिजर्वेशन बिल में, तीसरा, आरक्षित चुनाव क्षेत्र सीट का रोटेशन, चौथा यह बिल पंद्रह साल के लिए मान्य होगा और आखिरी सवाल है इसके अमल का कि कब से यह प्रैक्टिस किया जाएगा।

एक-एक करके इन सभी सवालों को उठाते हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक (प्रथमतः मुस्लिम) महिलाओं के लिए बिल में आरक्षण नहीं है। अन्य पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए विधेयक में आरक्षण का प्रावधान ना करने का अर्थ है कि सत्ता पक्ष को यह लगता है कि इस वर्ग की महिलाओं का राजनीति में अच्छा प्रतिनिधित्व है। लेकिन आंकड़े अलग ही हकीकत बयां कर रहे हैं। धार्मिक अल्पसंख्यक महिलाओं के प्रतिनिधित्व को देखें तो 2 जुलाई 2022 के बाद से भारतीय जनता पार्टी का एक भी सांसद लोकसभा और राज्यसभा में मुस्लिम नहीं है और 31 राज्य सभाओं, केंद्र शासित प्रदेशों में एक भी मुस्लिम विधायक नहीं है। इंडियास्पेंड में छपी जानकारी के अनुसार साल 2019 में लोक सभा में 543 सीटों में से कुल चार ही सीटों पर मुस्लिम महिला नेता थीं यानी जिन मुस्लिम महिलाओं की जनसंख्या 6.9 प्रतिशत हैं उनका केवल 0.7 प्रतिशत ही प्रतिनिधित्व था। आंकड़े यह भी पुष्ट करते हैं कि लोकसभा में आज तक चार मुस्लिम महिलाओं से ज्यादा राजनेत्री रही ही नहीं हैं।

विधेयक के अनुसार अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 84 सीटों में से 28 सीटें अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। वहीं एसटी के लिए आरक्षित 47 सीटों में से 16 सीटें एसटी महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी।

अन्य पिछड़ा वर्ग के महिला प्रतिनिधित्व के आंकड़ों को लेकर इंटरनेट पर कोई स्पष्ट जानकारी मौजूद नहीं है। इंडिया टुडे में छपी जानकारी के अनुसार उत्तर प्रदेश विधानसभा में ऊंची जातियों का कुल प्रतिनिधित्व 2012 में 32.7 प्रतिशत से बढ़कर 2017 में 44.4 प्रतिशत हो गया है। ज़ाहिर ही इसमें इन समुदायों की महिलाएं भी शामिल हैं। इस आंकड़े को बाकी परिपेक्ष्य में रख कर भी परिस्थिति का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। दोनों वर्ग की महिलाओं को बिल में जगह ना देने का सीधा यह मतलब बनता है कि सत्ता पक्ष इन महिलाओं की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रखता है। अब सोचिए, क्या यह बिल हर महिला के लिए समावेशी है? क्या यह बिल देश की हर जाति, धर्म, वर्ग से आने वाली महिलाओं के लिए एक समान है? अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को बिल में आरक्षण ना देना। विधेयक के अनुसार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान है लेकिन संसद में पहले से तय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए आरक्षित सीटों में से ही इन समुदाय की महिलाओं के लिए एक तिहाई सीट आरक्षित रहेंगी।

संसद में एससी, एसटी महिलाओं की स्थिति

वर्तमान में लोकसभा की 543 सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जाति के लिए, 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए और 412 सीटें अनारक्षित हैं। द क्विंट में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ विधेयक के अनुसार अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 84 सीटों में से 28 सीटें अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। वहीं एसटी के लिए आरक्षित 47 सीटों में से 16 सीटें एसटी महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। शेष 137 सीटें सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी जबकि 275 सीटें अनारक्षित होंगी। संख्या देख रहे हैं? कहां एससी, एसटी की मिलाकर 44 महिला सीट हैं, वहीं सवर्ण महिलाओं को जाएंगी 137 सीट। संसद में किसी बहस पर किसका पलड़ा भारी रहेगा?

मुस्लिम महिलाओं, ओबीसी महिलाओं के लिए विधेयक में कोई जगह ना होना इस बात का सुबूत है कि सत्ता पक्ष इनसे जुड़े मुद्दों पर बिल्कुल भी गंभीर नहीं है और मुसलसल इन्हें दरकिनार कर रहा है। वहीं अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं को पहले से तय आरक्षण में सीट आरक्षित करना इस बात का प्रमाण है कि सत्ता पक्ष सीमित संख्या में ही इन वर्गों का प्रतिनिधित्व चाहता है लेकिन इस सीमित प्रतिनिधित्व से क्या कोई बड़ा सकारात्मक बदलाव संभव है? संख्या में कम रहना ही यह निश्चित कर रहा है कि दलित, आदिवासी महिलाओं के मुद्दों पर उन्हें सुना ही नहीं जाएगा, जब सुना ही नहीं जाएगा तो ऐसा प्रतिनिधित्व भला कैसे हितकारी साबित होगा? जिस समाज में कहने भर को महिला नेता के रूप में चुनी जाती है लेकिन वह क्या फैसले लेगी, कैसे लेगी इस चीज़ का निर्धारण पुरुष करते हैं उसमें भी सवर्ण पुरुष तो यह विधेयक कैसे सुनिश्चित करेगा कि दलित आदिवासी महिलाएं बराबरी से राजनीति में भाग लेंगी?

साल 2019 में लोक सभा में 543 सीटों में से कुल चार ही सीटों पर मुस्लिम महिला नेता थीं यानी जिन मुस्लिम महिलाओं की जनसंख्या 6.9 प्रतिशत हैं उनका केवल 0.7 प्रतिशत ही प्रतिनिधित्व था।

उदाहरण के रूप में देखिए कि पंचायत चुनावों में दलित, आदिवासी के लिए आने वाली आरक्षित सीटों पर महिला की सीट जब आती है तब उसके लिए प्रचार कैसे किया जाता है? प्रचार होता है फलां की पत्नी चुनावों में खड़ी हुई हैं। सरपंच पति की धारणा यहां से निकली, अब इस सरपंच महिला और उनके पति के फैसले भी कैसे लिए जाते हैं? गांव के सवर्ण जो चाहते हैं, वह होता है अब चाहे वह सवर्ण मुट्ठी भर हों। पंचायत चुनावों में दलित, आदिवासी का चुनाव टोकेनिस्टीक है। फिर यह विधेयक किन महिलाओं के लिए है? यह विधेयक सिर्फ़ सवर्ण महिलाओं के प्रतिनिधित्व का बिल बनकर रह गया है। क्या सवर्ण महिलाएं, देश की विभिन्न महिलाओं की प्रतिनिधि हैं? जेंडर इक्वालिटी की ज़रूर चाहिए थी लेकिन इस विधेयक ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस देश में सवर्ण महिला और सवर्ण पुरुष के बीच ही समानता स्थापित करना संसद का उद्देश्य है।

अगस्त 2022 की ही घटना है भाजपा नेत्री सीमा पात्रा ने घर में काम करने वाली आदिवासी महिला के साथ कितनी वीभत्स हिंसा की थी। रीता बहुगुणा जोशी ने 2009 में दलित नेत्री मायावती को लेकर बेहद ही शर्मनाक बयान दिया था। वहीं हाल ही में मणिपुर में हुई हिंसा को लेकर खुद महिला एवं बाल विकास मंत्री, अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी ने कोई कांफ्रेंस नहीं की और न ही उस जगह जाकर वहां का जायज़ा लिया। हाथरस में दलित बच्ची के साथ हुए गैंगरेप पर किसी महिला मंत्री, नेत्री ने पुख्ता एक्शन नहीं लिया था। सवर्ण महिला नेत्रियों के तमाम ऐसे काम मिल जाएंगे जो यह सिद्ध करते हैं कि वे खुद से अलग जाति, धर्म, वर्ग से आती महिलाओं के जीवन, दुख नहीं समझ सकती हैं, जब वे यह सब ना समझती हैं और न समझने की चाह रखती हैं तब ऐसे में हाशिए समुदाय के महिलाओं के लिए नीति निर्माण में क्या ही पुख्ता कदम ले पाएंगी? वे भी अपने समुदाय के सवर्ण पुरुष नेताओं के कदमों निशान पर ही चल रही होंगी।

आखिर कब लागू होगा बिल?

तस्वीर साभारः Al Jazeera

यह एक तरीके से राजनीति का सवर्णीकरण है जहां अवर्ण, आदिवासी, मुस्लिम पुरुष और ख़ासकर महिलाओं को राजनीति से बाहर के दरवाज़े दिखाने की चालें हैं। आरक्षित चुनाव क्षेत्र सीट का रोटेशन बिल में प्रावधान है कि हर डेलीमिटेशन एक्सरसाइज (परिसीमन अभ्यास) के बाद महिलाओं के लिए आरक्षित सीट बदली जाएंगी। यह बिल अभी भी तब प्रैक्टिस में आएगा जब इस बार परिसीमन अभ्यास पूरा हो जाएगा और उसके लिए 2021 में होने वाली जनगणना का पूरा होना ज़रूरी है जो अभी तक हुई नहीं है और क्योंकि 2024 में चुनाव हैं इसीलिए उससे पहले इसके होने के आसार नज़र नहीं आते हैं। जनगणना के बाद परिसीमन अभ्यास होगा जिसके पूरे प्रोसेस को चार से पांच साल लगते हैं यानी 2029 से पहले यह बिल प्रैक्टिस में आ जाएगा यह संभव होता नज़र नहीं आता है।

सीट के रोटेशन का मतलब है एक लम्बे वक्त तक सीट आरक्षित नहीं रहेगी जिसका अर्थ है महिला सांसद चुने जाने के मौके कम हो जाना। इस संदर्भ में एक आंकड़ा देखते हैं, पंचायती राज मंत्रालय के एक अध्ययन में सिफारिश की गई है कि पंचायत स्तर पर निर्वाचन क्षेत्रों का रोटेशन बंद कर दिया जाना चाहिए। द वॉयर में छपी रिपोर्ट के अनुसार लगभग 85% महिलाएं पहली बार चुनी गईं और केवल 15% महिलाएं ही दोबारा निर्वाचित हो सकीं क्योंकि जिन सीटों से वे चुनी गईं थीं, वे अनारक्षित थीं।

क्या इस बिल से राजनीति की दिशा बदलेगी?

संसद में महिला आरक्षण बिल के लागू होने पर अभिनेत्री ईशा गुप्ता ने यह इशारा दिया है कि विधेयक का अधिनियम बनने के बाद वह भी राजनीति में आ सकती हैं क्योंकि परिवार पहले से राजनीति में है। सवर्ण महिलाओं में भी ज़्यादा मौके राजनीति में पहले से स्थापित पुरुष नेताओं के घरों की महिलाओं के लिए खुलेंगे। राजनीति में भाई-भतीजावाद, इस विधेयक की बदौलत जल्द बहन-भतीजीवाद भी शामिल हो जाएगा। सोशल मीडिया पर इस विधेयक पर दो पक्ष बने हुए हैं, विधेयक के पक्ष में और विपक्ष में। राजनीति का विपक्ष तकरीबन इस विधेयक के पास हो जाने पर राज़ी है वहीं बहुजन चिंतक कोटा विदिन कोटा की मांग करते नज़र आए थे। पीपल डेमोक्रेटिक पार्टी की महबूबा मुफ्ती, आप से आतिशी, बसपा से मायावती इस बिल के पक्ष में हैं। इंडियन एक्सप्रेस में छपी ख़बर के अनुसार बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा है, “संसद में पेश किये जा रहे महिला आरक्षण विधेयक में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए। हालांकि, पूर्व मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया कि उनकी पार्टी संसद में विधेयक का समर्थन करेगी, भले ही ये मांगें पूरी न हों।” थोड़ा टाल मटोल करते हुए सभी सांसद इसके पक्ष में ही आए हैं।

राजनीति का मकसद एक लोकतंत्र में बेहतर शासन करने का होता है, लोगों के हित में फैसले करने का होता है इसके लिए ज़रूरी है कि राजनेता जनता के जीवन से परिचित हों वरना वे समझ ही नहीं पाएंगे कि किस-किस तरीके की परेशानियों से रोज़ लोग लड़ते हैं। लेकिन इस विधेयक के बाद 33 प्रतिशत सीटों पर सवर्ण महिला जब आएंगी तब क्या वे नज़रिए में समावेशी होंगी? क्या वे यह सुनिश्चित कर पाएंगी कि नीति निर्माण में हर जाति, धर्म से आती महिलाओं के लिए हितकारी हो? महिलाओं के हित से ज़्यादा यह बिल जिस तरह 2024 के चुनावों से कुछ महीने पहले ही संसद में लाया गया है और आनन-फानन में पास भी किया गया है चुनाव से पहले जनता का मत हासिल करना है, यह एक चुनावी राजनीतिक स्टंट महसूस होता है।


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