इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़े मुद्दे पर मीडिया की कवरेज और पूर्वाग्रह

एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़े मुद्दे पर मीडिया की कवरेज और पूर्वाग्रह

आरोपियों ने उसे किस तरह से प्रताड़ित किया यह विस्तार से बताना अव्वल तो सर्वाइवर की निजता का हनन है दूसरा यह मुद्दे को सवालों से दूर कर इसकी गंभीरता को कम करता है। साथ हीं, ऐसी हेडलाइन किसी भी होमोसेक्सुअल पहचान वाले विद्यार्थी के मन में डर पैदा कर सकती है।

हाल ही में एक ख़बर आई कि जादवपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे स्नातक के एक छात्र ने यूनिवर्सिटी में हो रही रैगिंग से तंग आकर सुसाइड कर लिया। आरोप है कि कुछ सीनियर छात्रों ने लगातार उन्हें परेशान किया, होमोफोबिक टिप्पणियां और उनके साथ हिंसा भी हुई। फ़िलहाल इस पूरे मामले की जांच चल रही है और अभी तक 13 लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है। अब इसी घटना को कवर करती नवभारत टाइम्स की एक रिपोर्ट की हेडलाइन को देखें -“नंगा करके बुलाते गे, मौत से पहले मां से वो आखिरी बात…जादवपुर यूनिवर्सिटी रैगिंग कांड की पूरी कहानी।” 

तस्वीर साभारः Navbharat Times

असंवेदनशीलता और छिछलेपन की तमाम हदों को पार करता यह शीर्षक एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़े मुद्दों की कवरेज और पूर्वाग्रहों पर मीडिया की पोल खोलता है। रैगिंग, हिंसा और होमोफोबिया जैसे गंभीर मुद्दों को प्रकाश में लाने की बजाय रिपोर्ट लिखने वाले को यह बताना ज़्यादा उचित लगा कि सर्वाइवर के सुसाइ़ड करने से पहले आखिरी बार अपनी मां को क्या कहा होगा? उसे आरोपियों ने किस-किस तरह से प्रताड़ित किया और कैसे यह पूरा मुद्दा एक “रैगिंग कांड” बन जाता है। पीत पत्रकारिता को ही धर्म मान बैठे मुख्यधारा के इस पत्रकार को पता है कि अगर शीर्षक को सनसनीखेज नहीं बनाया तो लोगों को इसे पढ़ने में कोई रूचि नहीं होगी। इस ख़बर की कवरेज यह बताती है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को लेकर मीडिया जगत में भयंकर अज्ञानता और संवेदनहीनता है। 

मीडिया बड़ी आसानी से इन मुद्दों को उठा सकता था। बजाय इसके, मैरिज इक्विलिटी पर जितने भी टीवी कार्यक्रम हुए, मीडिया ने इसे कहीं न कहीं एक “शहरी संभ्रांत अवधारणा” बताकर इसकी गंभीरता को कम किया।

वैसे तो देश की एक भी यूनिवर्सिटी ऐसी नहीं है जो यह दावा कर सके कि उसका परिसर और हॉस्टल एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के विद्यार्थियों के लिए पूरी तरह से समावेशी और सुरक्षित है। ऐसे में कई बार विद्यार्थियों को अपनी पहचान छुपाकर रहना पड़ता है क्योंकि उन्हें हिंसा और अलगाव का खतरा होता है। यहां ख़बर की हेडलाइन मानो सर्वाइवर की पहचान को उसकी कमज़ोरी दर्शा रही है। पूरी रिपोर्ट में एक भी लाइन यह नहीं बताती कि होमोसेक्सुअलिटी सामान्य है और यह बिल्कुल प्रकृति के अनुकूल है। इसके उलट, ख़बर में होमोसेक्सुअलिटी को बीमारी समझने वाले उसी गेज की बू आती है जो समाज को संवेदनहीन और हिंसक बनाती है। 

आरोपियों ने उसे किस तरह से प्रताड़ित किया यह विस्तार से बताना अव्वल तो सर्वाइवर की निजता का हनन है दूसरा यह मुद्दे को सवालों से दूर कर इसकी गंभीरता को कम करता है। साथ हीं, ऐसी हेडलाइन किसी भी होमोसेक्सुअल पहचान वाले विद्यार्थी के मन में डर पैदा कर सकती है। इस पूरे प्रकरण को बिना किसी सनसनी के और भाषा की शालीनता बनाए हुए कवर किया जा सकता था। 

“क्या दामाद, पुत्रवधू जैसे शब्द ख़त्म हो जाएंगे?”

तस्वीर साभारः Aaj Tak

आप एक अन्य हेडलाइन को देखें, “क्या दामाद, पुत्रवधू जैसे शब्द ख़त्म हो जाएंगे?” आजतक के प्राइम टाइम कार्यक्रम में प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ कहा जा रहा यह कथन सेम सेक्स विवाह के संदर्भ में है। एंकर कार्यक्रम की शुरूआत में बताता है कि कैसे भारत एक थर्ड वर्ल्ड देश है और यहां की समस्याएं सड़क, पानी, बिजली है न कि समलैंगिक विवाह। यह तो अमरीका जैसे विकसित देशों की समस्या है। इसके बाद वह दर्शकों को बताता है कि कैसा होगा जब उनके बेटे-बेटियां सेम सेक्स विवाह करना चाहेंगे। सात फेरों में कौन आगे रहेगा, निकाह में “कुबूल है” पहले कौन बोलेगा जैसे बे-बुनियादी सवालों से एंकर ने बड़ी आसानी से पूरे मुद्दे की महत्ता को किनारे कर दिया गया। हद तो तब हो जाती है जब एंकर एक दाढ़ी मूंछ वाली स्त्री और बिना मूंछ वाली स्त्री की आधी-आधी फ़ोटो को जोड़कर दिखाता है और कहता है कि इसमें आप अपनी बेटी और दामाद दोनों को देख सकते हैं! 

मीडिया का फूहड़पन और पूर्वाग्रह

आखिर यह कैसा फूहड़पन है जो दीमक की तरह मुख्यधारा मीडिया के ज़मीर को शून्य कर चुका है? पूरे कार्यक्रम के दौरान एंकर इस बात पर ज़ोर देता है कि सेम सेक्स विवाह की मांग तो बस बड़े-बड़े शहरों में रहने वाले उच्चवर्ग के कुछ ख़ास लोग हीं कर रहे हैं, आम भारतीयों के लिए भुखमरी, बेरोजगारी और बढ़ती जनसंख्या असल चुनौती है। यह तुलना बेहद असंवेदनशील और बेबुनियादी है क्योंकि यह मांग देश के पूरे एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की ओर से है न कि केवल कुछ ख़ास लोगों की ओर से। क्या यह समझना इतना कठिन है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे होमोसेक्सुअल जोड़े भी शादी करने का अधिकार चाहते होंगे लेकिन संसाधनों की कमी और सामाजिक अलगाव के भय से वह अपनी मांग नहीं रख सकते? और देश में कौन-सा ऐसा तबका है जिसे विवाह करने पर कानूनी मान्यता नहीं मिलती? यह कितना भेदभावपूर्ण है कि हर व्यक्ति को जो मूलभूत अधिकार प्राप्त हैं वह हमें नहीं हैं। बेरोजगारी, भुखमरी जैसी समस्याओं से तो हम सब जूझ हीं रहे हैं, शर्मिंदगी की बात यह होनी चाहिए कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों को अपने मूलभूत अधिकारों के लिए भी लड़ना पड़ रहा है। 

तस्वीर साभारः India News

मीडिया बड़ी आसानी से इन मुद्दों को उठा सकता था। बजाय इसके, मैरिज इक्विलिटी पर जितने भी टीवी कार्यक्रम हुए, मीडिया ने इसे कहीं न कहीं एक “शहरी संभ्रांत अवधारणा” बताकर इसकी गंभीरता को कम किया। इंडिया न्यूज़ की इस हेडलाइन को देख लें, “सांस्कृतिक हमला या हक़ का सवाल?” यह असंवेदनशील शीर्षक लिखने की बजाय सत्ता से सवाल किए जा सकते थे कि आख़िर भारत उन देशों में कब शामिल होगा जहां की सरकार और समाज इतने समावेशी हैं कि लोगों को अपने बुनियादी अधिकारों के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन यहां तो उलट एलजीबीटी समुदाय पर ही सांस्कृतिक हमला करने का आरोप लगा दिया गया। मीडिया इस पूरे सवाल पर अपने पूर्वाग्रहों और सामाजिक रूढ़ियों को शय देती नज़र आई। 

इन पुरुष-प्रधान मीडिया संस्थानों में समावेशन, समान लैंगिक अधिकार और पितृसत्ता को चुनौती देते विचारों की कोई जगह नहीं है। हमें सचेत होकर हर ख़बर को पढ़ने-देखने की ज़रूरत है क्योंकि यही ज़हर न्यूज़रूम से निकलकर हमारे ड्राइंगरूम तक पहुंचता है। हम समझ भी नहीं पाते कि कब हम उसी ज़हर को अपनी समझ बना लेते हैं। साथ हीं, भारतीय समाज को इस मिथ्या से यथाशीघ्र निकलना चाहिए कि होमोसेक्सुअलिटी पश्चिम से आई हुई कोई अनोखी चीज़ है जो भारत में पहले से मौजूद नहीं थी। अगर कोई चीज़ पश्चिम से लाई गई है तो वह होमोसेक्सुअलिटी को पाप की श्रेणी में रखने वाली सोच और उससे पनपे काले कानून हैं। 

एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रति ज्ञान, उनके अधिकारों और विविधता की पहचान को विकसित करने में मीडिया बड़ी भूमिका निभा सकता है। लेकिन इससे अलग मीडिया बड़े स्तर पर एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रति पूर्वाग्रहों और रूढ़िवाद को मजबूत करने का काम कर रहा है। जिस तरह से अख़बार, टीवी, न्यूज़ चैनल पर एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों को दिखाया जाता है वह पूरी तरह से उनके अधिकारों का हनन और उनके ख़िलाफ़ नफ़रत की सोच को बढ़ावा देता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में GLAAD की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि टीवी पर एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रतिनिधित्व में बहुत कमी है।

क्वीयर समुदाय के प्रति मीडिया का नकारात्मक रवैया

मीडिया में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़े मुद्दों को लेकर 2020 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक़ समाचार मीडिया कवरेज एलजीबीटीक्यू अधिकारों पर धार्मिक रूप से पहचाने गए सोर्स का हवाला देता है जो एलजीबीटीक्यू समुदाय की समानता का विरोध करते हैं। क्वीयर समुदाय के प्रति नकारात्मक भावनों को बढ़ाने का काम करते हैं जिससे अमेरिका में एलजीबीटीक्यू+ लोगों के नैगेटिव और एंटी एलजीबीटीक्यू भावनाओं को बढ़ावा मिलता है। ‘चैलेजिंग द नैगेटिव मीडिया रिपोर्टिंग ऑफ द एलजीबी कम्यूनिटी’ नामक रिपोर्ट के अनुसार 43 फीसदी लोगों का मानना है कि गे लोगों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रहों को स्थापित करने में अख़बारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। रिपोर्ट के अनुसार साथ ही 14 प्रतिशत लोगों का मानना है बॉडक्रास्टशीट, अख़बार गे, लेस्बियन और बाईसेक्सुअल लोगों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रहों को मजबूत करते हैं।

असंवेदनशीलता और छिछलेपन की तमाम हदों को पार करता यह शीर्षक एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़े मुद्दों की कवरेज और पूर्वाग्रहों पर मीडिया की पोल खोलता है। रैगिंग, हिंसा और होमोफोबिया जैसे गंभीर मुद्दों को प्रकाश में लाने की बजाय रिपोर्ट लिखने वाले को यह बताना ज़्यादा उचित लगा कि सर्वाइवर के सुसाइ़ड करने से पहले आखिरी बार अपनी मां को क्या कहा होगा?

एलजीबीटीक्यू मुद्दों पर मीडिया, टीवी की भाषा एक बड़ी समस्या है। गैर-समावेशी भाषा पूर्वाग्रहों को जड़ करने और सामाजिक असमानताओं को बनाए रखने में भूमिका निभाती है। भारतीय मेन स्ट्रीम मीडिया हर लिहाज से एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रति नकारात्मक भाषा का इस्तेमाल करता है। हाल ही में डेक्नन हेराल्ड में प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के मुद्दों पर मीडिया की भाषा के लिए गाइडलाइंस जारी की है। एलजीबीटीक्यू+ पहचान और रिलेशनशिप को आरोपित करने वाले टर्म के इस्तेमाल करने से मना किया है। गाइडलाइंस में साफ तौर पर ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए इस्तेमाल रूढ़िवाद विचारों पर आधारित भाषा की बजाय समावेशी भाषा के इस्तेमाल करने को कहा गया है। 

ऐतिहासिक तौर पर मीडिया एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों का चित्रण नकारात्मक रूप से करता आ रहा है जो समुदाय के लोगों के प्रति सांस्कृतिक असहिष्णुता को दिखाता है। हमें सच में अपनी संस्कृति की परवाह है, तो हमें मानवाधिकार की इस लड़ाई को समझना होगा। मीडिया का गिरा हुआ स्तर इस बात को सुनिश्चित करता है कि वह महिलाओं, दलितों, मुसलमानों, विकलांगों, एलजीबीटीक्यू+ समुदाय और हाशिए पर मौजूद हर उन तबकों को लेकर बेहद असंवेदनशीलता से रिपोर्टिंग करता रहेगा, जिनका  प्रतिनिधत्व उनके संस्थानों में शून्य के बराबर है। यह हम दर्शकों को देखना होगा कि हम किस प्रकार के ज़हर का सेवन कर रहे हैं। हम अपने बच्चों के लिए यह कैसा समाज बना रहे हैं और उनके लिए कैसी भाषा चुन रहे हैं? हालांकि हमें अब यही पीत पत्रकारिता सामान्य लगने लगी है क्योंकि टीवी हमें बीमार, बहुत बीमार कर चुका है!


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