जब स्त्री अपने आसपास के संसार की घुटन से छटपटाने लगती है तो उस संसार के बरक्स वो मुक्ति का एक प्रतिसंसार अपनी फैंटसी से रचने लगती है जहाँ न्याय और समानता होती है, प्रेम होता है, यहाँ स्त्री प्रेम तो करती है लेकिन वो कोई पारम्परिक प्रेमिका नहीं है ये अधिकार और न्याय की जमीन पर खड़ी स्त्री का प्रेम है ये वहीं जाकर ठहरता है जहाँ मनुष्यों की भूख और यातना होती है। संघर्ष की जमीन से उपजा ये प्रेम कोई रीतिकालीन भावों पर आधारित प्रेम नहीं है। ये प्रेम मनुष्य में मनुष्य की प्रकृति और प्रकृति के सारे रंगों में ढला प्रेम है।
इस किताब को पढ़ते हुए लगातार ये लगता रहा कि ये संग्रह मुक्ति का एक प्रतिसंसार ही है लेकिन बात प्रतिसंसार में नहीं रहती है। यहाँ स्त्री चूँकि यथार्थ की दुनिया से टकराती रहती हैं तो उस टकराहट से जो कटुता द्वेष, व्यंग और अपशब्द मिले स्त्री ने उसी को अपनी कहन की जमीन बनायी। गुनहगार और बेशर्म औरतें ये मुहावरा पितृसत्ता के भाषायी छल से गढ़ा गया है। इस संग्रह की रची स्त्री खूब चीन्हती हैं संस्कृति और परंपरा के नाम पर बोया गया सत्ता का जहर। इसलिए इसी कविता में वो आगे पारम्परिक सभ्यता और इस नव संस्कृतिकरण के अमानवीय चेहरे को उघाड़ कर कहतीं हैं कि इतने सभ्य भी मत होना कि छत पर प्रेम करते कबूतरों का जोड़ा तुम्हें अश्लील लगे /और कंकड़ मार कर उड़ा दो उन्हें बच्चों के सामने से।
किताब को पढ़ते हुए लगता है कि यहाँ स्त्री जैसे इतिहास की भूलों को रगड़ कर मिटा देना चाहती हैं । उनके यहाँ स्त्री-पुरुष साथी हैं वे साथ चलकर मुक्ति का रास्ता तय कर रहे हैं। कविता में औरतें चौक पर शर्मशार की गई हैं, धकेल दी गयी हैं, गिरा दी गयी हैं लेकिन वे धूल झाड़कर उठ खड़ी होती हैं और भीड़ को चीरते हुए अपने प्रेमी का हाथ पकड़े गीत गाते निकल आयी हैं उस भीड़ से आगे। उनकी जमीन का पुरुष सामाजिक मान्यताओं से बाहर प्रेम करने के जुर्म में चौराहे पर लटका दिये गये हैं लेकिन आगे के दृश्यों में वही पुरुष गले का फंदा उतार कर उन्हीं तथाकथित श्रेष्ठो के अहातों से फूल चुन रहे हैं अपनी प्रेमिका के लिए।
इस कविता को पढ़ते हुए मुझे बार-बार अंदेशा होता है कि यह यथार्थ को छोड़ रही हैं लेकिन आगे चलकर दिख जाता है कि कविता यथार्थ को बदलने के लिए एक बेहद खूबसूरत फैंटसी रच रही हैं जहाँ न्याय और समानता है और रचनाकार का काम यही है कि वो एक समावेशी संसार की फैंटसी रचे और राज्य समाज उस फैंटसी को जमीन पर उतारने की कोशिश करे। इस संग्रह की कविताएं स्त्री-प्रतिरोध एक अनूठा प्रतिमान गढ़ती हैं। यहाँ स्त्री अपने आसपास के वातावरण में फैली हिंसा की जमीन को ही पलट देती हैं अर्थात उनके सदियों के पैने हथियार से की जा रही हिंसा को जिसमें प्रेम करती स्त्री को नंगा करके गाँव की गलियों में घुमाना, मुँह पर खालिक पोतना शामिल है लेकिन यहां इस कविता की स्त्री जिसे कविता कादम्बरी ने रचा है वो तो उनके बनाये गये लाज नाम के भय को उतार देती है और अपनी देह के उन फटे चिथड़े वस्त्रों को दान दे आयी है और दान भी किसे दे आयी है उन नग्न पुरुष मसीहाओं को और खुद दिगम्बरा बन कर घूम रही है।
ये विडंबना ही है कि पहले तो ये समाज स्त्री के भीतर शर्म लाज भरता है और सजा के नाम पर वो उसकी उसी लाज शर्म को स्त्री की देह से खींचता है। यहाँ स्त्री उनके दिये गए लाज शर्म के आवरण को उनके नंगेपन को या कहिए कि उनकी नंगई को लौटा देती है कि और खुद के लिए उसकी जरूरत को खारिज कर देती है। जाने कब से स्त्री को नंगा करने का चलन बना होगा शायद तभी से जब से उसकी देह को ढकने का चलन बना होगा। जाहिर है ये दोनों चीजे स्त्री को ढकना और उघाड़ना पुरुषों का बनाया हुआ प्रपंच है जो स्त्री को कमजोर करने उनके साथ हिंसा करने का एक जड़ हथियार है लेकिन आज की स्त्री जो मुक्ति के हर आयाम को छूना चाहती है वो अपने फटे वस्त्र जो कि पितृसत्ता द्वारा फाड़े गये हैं उनके पूज्यमान नंगे मसीहाओं को दान दे आयी है और खुद दिगम्बरा बन धरती आकाश नाप रही है। कविता के ये भाव पढ़ते हुए तुरंत महादेवी याद आती हैं।
इसी संग्रह की कविताओं की एक पंक्ति भी याद आती है कि हम वैश्या की गाली पर शर्मिंदा होने के बजाय एक बड़ा ठहाका लगातीं हैं/और उनकी बजबजाती परिभाषाओं पर थूक देती हैं। यहाँ स्त्री के वो बच्चे भी हैं जिन्हें अवैध कहा गया और जिंदा गाड़ दिया गया धरती की कोख में। यहाँ कविता एक ऐसे संसार स्वप्न देख रही हैं जहाँ ये बच्चे जिंदा हो उठे हैं रंग-बिरंगे फूल बनकर खिलखिला रहे हैं और वे सुदूर रेगिस्तान तक फैल गये हैं कविता के स्वप्न में उन्हीं बच्चों के श्यामल कोमल हाथों में धरती सहेज दी गयी है।
संग्रह के इसी कविता के अंत में कवियत्री अपनी मार्क्सवादी चेतना को धार देते हुए एक प्रेम का भी मैनिफेस्टो लिखने की अपनी साध को कहतीं हैं और होना भी चाहिये प्रेम का मेनिफेस्टो जिसे पढ़ते हुए हम प्रेम के पारंपरिक और भाववादी नजरिए से निकलकर हम प्रेम को संवेदना की द्वंदात्मक और भौतिकवादी दृष्टि से समझें। तुम्हारे साथ चलना /हवा में हाथ लहराकर /उसकी लहर-लहर पर /प्रतिरोध का गीत गाना है /और धरती के इंच-इंच पर प्रेम का मेनिफेस्टो लिखना है।
इसी तरह इस किताब की कविताओं की स्त्री लगातार फैंटसी और यथार्थ में आवाजाही करती रहती हैं और इसी में समाज के सत्य को उद्घाटित करते हुए अपनी कहन को धारदार बनाती हैं। संग्रह की लगभग सारी कविताएं प्रतिरोध की कविताएं हैं जिसमें कवियत्री पूर्वगामी ताकतों के अन्याय को चिन्हित करती हैं। सदियों से धर्म और देवताओं के नाम पर जो उन्होंने हमारे जनों को ठगा कविता उस ठगहारी को इस कविता में साफ-साफ चिन्हित करती हैं और मुठभेड़ करती हैं उनके बनाये भ्रम और भय से। वे चीन्हती हैं उस आरामतलब कौम को जो अपने आराम, सुख, भोग के लिए सदियों से छल प्रपंच का खेल खेलती हैं। जिनकी ताकत आज इतनी बढ़ गयी है कि वो संविधान को पलटने का ख्वाब देख रहे हैं। वे लोकतंत्र को मिटा देना चाहते हैं। स्त्रियों को कुचल देना चाहते हैं उनकी गरिमा को उनकी अस्मिता को मिटा देना चाहते हैं।
जनमन की आँखों में झूठ का डड़वा डालने का खेल वो लगातार खेल रहे हैं और ये देश का दुर्भाग्य ही है कि आज वो इसमें बहुत हद तक सफल भी हो गये हैं इतिहास में शायद ही ऐसा कभी घटित हुआ हो कि शोषित ही शोषक का हथियार बन गया है। हेजेमनी का ऐसा व्यापक स्वरूप शायद ही पहले कभी दिखा हो। लेकिन इन तमाम वंचनाओं के बाद भी ये झूठ फरेब का खेल एकदम से नहीं सफल होगा अभी उम्मीद है कि एकदिन लोग लौटेंगे उधर से हिंसा और घृणा का रंग उनकी आँखों से उतर जायेगा। उनकी सर्वग्राही परियोजनाओं के बाद भी कुछ जगहें बची हैं जहाँ न्याय और समता के बीज बोये जा रहे हैं जहाँ से मनुष्य की आदिम इच्छाओं के रंग-बिरंगे फूल खिलेंगे। ये उम्मीद बाकी है।
कविता कादम्बरी की रची गयी स्त्री जो नये मनुष्य की मुक्ति की कामनाओं से लैस है। इसलिए संग्रह की जितनी प्रेम कविताएं हैं वे निरी प्रेम कविताएं नहीं हैं हर प्रेम कविता प्रेम में विमर्श की कविता है। कविता हमेशा स्त्री और प्रेमिका होने से पहले मनुष्य के रूप में खड़ी मिलती हैं। लेकिन अपनी अस्मिता की पहचान को भी नहीं भूलतीं। कविता प्रेम करते हुए एकबार भी अपनी मुक्ति का विमर्श ढीला नहीं छोड़ती। ये आधुनिक मनुष्य के ढाँचे में बनी स्त्री है जिसे साथी से प्रेम तो है, प्रेम की प्रबल इच्छा भी है लेकिन मुक्ति की आकांक्षा के साथ क्यों कि स्त्री सदियों से प्रेम के नाम पर भी छली गयी है तो इसबार वो अपनी पतवार अपने प्रेमी को भी नहीं देना चाहती। अपनी मुक्ति की पतवार वो खुद थामकर रखेगी। इसलिए वे अपनी कविता में जिस पुरुष प्रेमी की रचना बार-बार करती हैं वो सिर्फ एक प्रेमी नहीं होता वो एक क्रांति का विचार है। वो आंदोलन की आवाज़ है। वो भूख और यातना के विरुद्ध मुठ्ठी ताने खड़ा मनुष्य है। ऐसे ही मनुष्य से उनकी स्त्री प्रेम करती है ।
लेकिन कवयित्री बस उतना आकाश नहीं देख रही हैं जितना प्रेमी के साथ दिख रहा है वो मुक्ति का वो आकाश माप आयीं हैं जहाँ स्त्री-पुरूष का भेद मिट जाता है और दोनों वहाँ मनुष्य बनकर खड़े हैं संघर्ष के साथी बनकर खड़े हैं । ये किताब पढ़ते हुए स्मिता पाटिल की स्त्री मुक्ति की चेतना पर बनी “सुबह” फ़िल्म याद आती रहती है जिसमें मुक्ति के रास्ते का उबड़ ख़बड़पन और तमाम तरह की कुरूपताओं के मिलने की सम्भावना होती है लेकिन उनसे घबरा कर या उस राह में भेटायी विद्रूपताओं से आयी उबकाई को हमें भीतर ठेलना होगा और उसी राह पर बढ़ते जाना होगा क्योंकि वही हमारी राह है वहीं हमारे अपने जन हैं हमें वहीं जाना और वही हमारी मुक्ति है उससे बगलिया कर हम एक साफ सुथरा सुविधाओं वाला जीवन तो जी लेंगे लेकिन आजीवन बेचैन रहेंगे छटपटाते रहेंगे और यही छटपटाहट तो हमारी चिन्ह है कि हम क्या हैं। शोषण और अन्याय के विरुद्ध बना हमारा मन मध्यवर्गीय चेतना में जीने के लिए बना ही नहीं है। मुक्तिबोध ने तो कब का कह दिया है कि जो उनके लिये विष है वही हमारे लिए अन्न है।
कविता कादम्बरी, मुक्तिबोध के इसी सत्य को अपनी कविताओं में लगातार उद्घाटित करती रहती हैं और इस तरह वो लगातार मध्यवर्गीय लेखन को खारिज करती रहती हैं उनकी कविताओं का केंद्र हमेशा वो भूखा-दुखा मनई रहा है जिसे कविता की करुणा और न्याय भरी दृष्टि हमेशा हेर लेती है। प्रेम करने के लिए भी वो उन्हीं मनुष्यों का चयन करती हैं जिनकी श्रम और संघर्ष करती देह साँवली और चमकदार है जो देह महज देह नहीं है संघर्ष और समता का निर्भीक विचार है। तुम्हारी सांवली चमकदार देह बस देह होती /तो कहीं आसान था अपने देह से उतार कर उसे किसी कोने में रख देना /लेकिन तुम्हारी देह बस देह नहीं है विचार है प्रतिपक्ष है वर्चस्व के रंग का शोषण का अत्याचार का ,अलगाव के विचार का जो खारिज करती है उस व्यवस्था को/जो प्रकृति के हर पूरक को विरोधी के रूप में चिन्हित करती है /तुम्हारी देह एरिस, डेमोस और फोबोस के यूनानी सौष्ठव के भयकारी मानकों का प्रतिपक्ष है /तुम्हारी देह आजादी का विचार है तुम्हारी देह प्रतीक है किसानों और मजदूरों के संघर्ष का और आदिम सहजीविता का /जिसके एक हाथ में धनुष तीर है और दूसरे में जंगल की औषधियां का कटोरा/तुम्हारी देह की बची आदिम गंध क्रांति है समूचे पूंजीवादी पुरुषवादी भभके के ख़िलाफ़ जिसमें पृथ्वी और स्त्री केवल भोग्या है।
कविता कादम्बरी जानती हैं कि सामन्ती समाज की सारी अन्यायी कड़ियाँ कैसे एक दूसरे से जुड़ी हैं इसलिए वो सामन्ती और पूंजीवादी व्यवस्था के सारे मूल्यों को बार-बार चिन्हित करके उनसे मुठभेड़ करती रहती हैं। डेलेरियम कविता में वे कहतीं हैं कि अगर आप स्त्रियों के अनुभव को/आंकड़ों में दर्ज करने से इनकार न करे तो आप पाएंगे कि ब्राह्मण स्त्रियों का सबसे ज्यादा बलात्कार ब्राह्मण पुरुषों ने ही किया क्षत्रिय स्त्रियों का बलात्कार सबसे ज्यादा क्षत्रिय पुरुषों ने और मुसलमान स्त्रियों का सबसे ज्यादा बलात्कार मुसलमान पुरुषों ने लेकिन दलित स्त्री के बलात्कार में जाट-पात और छुआछूत छोड़ने में सब बराबर प्रगतिवादी रहे।
कविता सामजिक और पारिवारिक सम्बन्धों के पाखण्ड को जानती हैं वो जानती हैं कि यहाँ कैसे न्याय की बात पर सम्बन्धों की दुहाई दी जाती है और समाज परिवार नाम की संस्था किसके शोषण और किसकी सुविधा के लिए बनायी गयी है। इस कविता को पढ़ते हुए नागार्जुन का उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ याद आता है। इसी कविता में आगे वो कहतीं हैं अगर ऐसा नहीं होता तो घर की बात घर के तहखानों में कभी न दबायी जातीं। अगर ऐसा नहीं होता तो परिचित बलात्कारी से रिश्तेदारी कभी न निभाई जाती। अगर ऐसा नहीं होता विवाह के बाद भी बलात्कार, बलात्कार ही रहता प्रेम नहीं कहलाता।
मानवीय संवेदनाओं और सरोकारों से लिखी गई इस संग्रह की कविताएं कमजोरों और शोषितों की आवाज़ है, उनकी आह है। लगातार एक मुठभेड़ है राज्य सत्ता और समाज सत्ता से। पितृसत्तात्मक ढाँचे में स्त्री की घुटन की अनकही दास्तानें हैं। जब लेखिका सविता सिंह कहती हैं पुरुषों ने स्त्रियों को खो दिया है, तो शायद वो इन्हीं स्त्री-पुरुष सरोकारों की तरफ इंगित कर रही हैं जहाँ स्त्री-पुरुष का हाथ साथी की तरह पकड़ती है लेकिन पुरुष की जो एक सामाजिक ट्रेनिंग वो उसे स्त्री के लिए मात्र मनुष्य नहीं बने रहने देती है। इसी तरह स्त्री कवि अनुपम सिंह के संग्रह का नाम है ‘मैंने गढ़ा है अपना पुरुष’, अजीब सी ये विडम्बना या बहुत पीड़ा है एक ख़ला है कि हमें प्रेम करने के लिए जो एक समानता का साथ चाहिये वो हमें इस संसार में मिल ही नहीं रहा है। हम अपने प्रेमी का ढाँचा अपनी फैंटसी से रच रहे हैं और शायद पितृसत्ता के समाज को दिखा रहे हैं कि देखो ये मनुष्य जो हमारा प्रेमी है जिसे हमने रचा है वो कैसा है। आज की स्त्री पारम्परिक ढाँचे के पुरुष एकदम खारिज कर रही है।
इस किताब में अपनी अस्मिता को दर्ज करते हुए स्त्री हाशिये के अपने जनों को एकबार भी नहीं भूलती। ये भूखे और उदास जन कविता कादम्बरी की कविताओं में एक गहन छाया की तरह डोलते रहते हैं। कवयित्री इन्हीं जनों के दुखों जैसे अपनी कविताओं में लगातार हरती-गुनती रहती हैं। उन्होंने बहुत सुंदर और सहज भाषा का इस्तेमाल किया है। कवयित्री भाव और संवेदना में ही नहीं अपनी भाषा में भी जो कहना चाहती हैं वो एकदम स्पष्ट है कि अब पूर्ण मुक्ति ही हमारा ध्येय है।