समाजकैंपस लैंगिक भेदभाव की सोच को बढ़ावा देने वाले मेरे स्कूल के अनुभव

लैंगिक भेदभाव की सोच को बढ़ावा देने वाले मेरे स्कूल के अनुभव

क्लास के किसी टॉपर बच्चे को मॉनिटर बनाया जाता था जिसका काम होता था कि वह सबके ऊपर नजर रखे। ख़ासकर लड़कियों के ऊपर अगर कोई लड़की किसी लड़के से बात कर रही है या फिर अध्यापक की इजाजत के बिना बाहर जा रही है। इन सबकी शिकायत करना उसका ड्यूटी होती थी।

मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव की रहने वाली हूं। मेरी बचपन की सारी पढ़ाई वहीं से हुई है। जब से मैंने स्कूल में दाखिला लिया कक्षा एक से लेकर बारहवीं कक्षा तक हमें हमेशा से ही लड़का-लड़की की अलग-अलग लाइन में बिठाया जाता था। हम एक दूसरे की तरफ देख भी नहीं सकते थे तो बात करना तो बहुत ही दूर की बात होती थी यह हमारे बीच खड़ी एक काल्पनिक दीवार की तरह महसूस होती थी जो हमें एक दूसरे के बारे में जानने समझने से रोकती थी।

क्लास के किसी टॉपर बच्चे को मॉनिटर बनाया जाता था जिसका काम होता था कि वह सबके ऊपर नजर रखे। ख़ासकर लड़कियों के ऊपर अगर कोई लड़की किसी लड़के से बात कर रही है या फिर अध्यापक की इजाजत के बिना बाहर जा रही है। इन सबकी शिकायत करना उसका ड्यूटी होती थी। फिर या तो मार पड़ती थी या फिर घरवालों को इन सब चीजों के बारे में शिकायत भेजी जाती थी। जब बात मार की आती थी तो लड़कों को बहुत बेरहमी से पिटा जाता था या उन्हें क्लास के बाहर हाथ ऊपर करके खड़ा कर दिया जाता था पर लड़कियों से उनके चारित्र पर सवाल किया जाता था कि तुम्हारे संस्कार कैसे है या फिर सोचा जाता था कि क्लास में बदतमीजी न करना लड़कियों का नैतिक कर्तव्य है। 

द गार्डियन की रिपोर्ट के मुताबिक़ स्कूल ड्रेस पहनना बच्चों के लिए एक गर्व की बात होती है। यह किसी बच्चे का किसी स्कूल से जुड़े होने की एक पहचान की तरह से इस्तेमाल होता है। स्कूल ड्रेस सभी को समान तरीके से जोड़ने और समानता की भी प्रतीक होती है। लेकिन बात जब स्कूल यूनिफॉर्म में जेंडर के आधार पर की जाए तो यहां कुछ और मायने भी निकलते हैं। अक्सर लडकों की ड्रेस में साधारण पैंट, शर्ट और जूते आते हैं। लेकिन लड़कियों की यूनिफॉर्म में जेंडर के आधार पर होने वाला भेदभाव और बंदिशें थोपी जाती है। फिर वह चाहे कक्षा पांच की लड़की हो या बारहवीं की उनके लिए स्कूल यूनिफार्म पर दिशा-निर्देश ज्यादा लागू होते हैं। अक्सर आज भी आठवीं के बाद अधिकतर स्कूल में लड़कियों के लिए स्कर्ट की जगह सलवार-कमीज का ड्रेसकोड होता है।

कभी-कभी हमारी अध्यापिकाएं हमें लड़कों के द्वारा किये जाने वाली हरकतों, यौन इशारों आदि से बचने के लिए हमें शिक्षा देती थी कि कभी भी अपने सिर को ऊपर उठा के मत चलो, रास्ते में जाते हुए इधर-उधर मत देखो, आंख उठा के भी लड़कों की तरफ मत देखो, लड़के बहुत बदतमीज होते हैं।

स्कूल में होने वाले इस व्यवहार की वजह से ही हमें सबसे पहले बॉडी शेमिंग की घटनाओं का सामना करना पड़ता है। बॉडी शेमिंग के मायनों से अलग ऐसी घटनाएं बच्चों के मन पर बहुत बुरा प्रभाव डालती है। मेरे स्कूल में एक दिन हमारी होम साइंस की अध्यापक ने मेरी एक दोस्त को बुलाकर कहा कि “तुमने दुपट्टा सही से नहीं डाला है इसको पिन अप करके आओ ताकि तुम्हारी छाती न दिखे, तुम जैसी लड़कियों की वजह से ही स्कूल का माहौल खराब होता है। पहले तो तुम लोग नंगे घूमते हो फिर जब लड़के कोई हरकत करते है तो तुम रोते हुए हमारे पास आते हो। अरे जब तुम लोग टेढ़ी-मेड़ी मांग निकल के चलोगी खुले बाल लहाराओगी तो लड़के तुम्हारी तरफ ऐसी ही हरकत करेंगे ही ना।”

तस्वीर साभारः KIS

इतना ही नहीं हमारी अध्यापिकाओं का यह भी मानना था कि जो लड़कियां साइंस पढ़ती हैं वह चरित्र से अच्छी नहीं होती है। वे बिगड़ी हुई लड़कियां होती हैं। दूसरी तरफ लडकों का मानना होता था कि ज्यादातर लडकियां पढ़ने में कमजोर होती है उनके पास सोचने की क्षमता नहीं होती तथा उनमें तार्किक समझ नहीं होती इसलिए उन्हें आर्ट के विषय ही पढ़ना चाहिए। कभी-कभी हमारी अध्यापिकाएं हमें लड़कों के द्वारा किये जाने वाली हरकतों, यौन इशारों आदि से बचने के लिए हमें शिक्षा देती थी कि कभी भी अपने सिर को ऊपर उठा के मत चलो, रास्ते में जाते हुए इधर-उधर मत देखो, आंख उठा के भी लड़कों की तरफ मत देखो, लड़के बहुत बदतमीज होते हैं। अगर कोई लड़का तुमसे रास्ते में जाते हुए बात करने की कोशिश भी कर रहा है तो उसे ध्यान मत दो। लड़कों की ओर देखकर हंसो मत और सब कुछ अपने घर में बताओ।

हमारे स्कूल में अक्सर लड़कियों के बैग की अचानक चैकिंग होती थी। अगर किसी के बैग में लिपिस्टिक, कंघी काजल, कोई गिफ्ट, फोन या अन्य समान मिलता था तो टीचर पहले खुद बच्ची को पीटती थी और स्कूल से निकालने की धमकी देते थे। उस बच्ची के घर में नोटिस भेजते थे और मिलने जाते थे। इतना ही नहीं आस-पास के एरिया में भी बातों को सनसनी करके फैलाया जाता था। इस तरह कई बार मां-बाप अपनी बेटी की पढ़ाई-लिखाई बंद करवा देते थे। 

बात जब स्कूल यूनिफॉर्म में जेंडर के आधार पर की जाए तो यहां कुछ और मायने भी निकलते हैं। अक्सर लडकों की ड्रेस में साधारण पैंट, शर्ट और जूते आते हैं। लेकिन लड़कियों की यूनिफॉर्म में जेंडर के आधार पर होने वाला भेदभाव और बंदिशें थोपी जाती है।

स्कूल में लैंगिक भेदभाव के मामले में कुछ अपने ही दोस्तों से बात की। हमारे स्कूलों की व्यवस्था पर अर्पित का कहना है, “यह व्यवस्था लड़के-लड़कियो में भेदभाव की भावना को पैदा करती है या यूं कहे कि बच्चों में स्थापित करने का काम करती है। सभी को समान न मानने वाली सोच की सीख दी जाती है। यह सोच शुरू से ही लड़कियों से बात करने में हिचकिचाहट, उन्हें समझने और एक आम इंसान जैसा ट्रीट करने से रोकती है जिस वजह से उन्हें बड़े होकर कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है।” इसी तरह छात्र दिलीप का कहना है, “लड़का-लड़की को अलग-अलग लाइन में बिठाना सही है लेकिन साथ में घूम नहीं सकते, बात नहीं कर सकते इतना ज्यादा पाबंदी नहीं होना चाहिए, थोड़ी  सख्ती भी जरूरी होती है ताकि सब साथ रहे।”

इस समस्या को हम फ्रेडरिक एंजल के झूठी चेतना के सिद्धांत से देख सकते हैं यह समस्याग्रस्त व्यवहार जो हम स्कूल में अपने अध्यापकों, साथियों और वहां काम करने वालों लोगों से सीखते हुए केवल एक बहुत बड़े लक्ष्य की तरफ ही देखते हैं। हमें यह मालूम नही पड़ता कि क्या सही है और क्या गलत है क्योंकि बचपन से ही हमारे दिमाग में इन सब चीजों को बिल्कुल साधारण बना दिया गया है। स्कूली शिक्षा व्यवस्था में स्थापित लैंगिक भेदभाव हर स्तर पर महिलाओं और लड़कियों के लिए असमानता के व्यवहार को जड़ करने का काम करता है। शिक्षा के माध्यम से जेंडर रोल्स को मजबूत किया जाता है। लड़कों और लड़की में अंतर है और दोनों को तय अलग-अलग व्यवहार करना चाहिए जैसी सोच को बढ़ावा दिया जाता है।

खेलों से दूर रखने की दी जाती थी नसीहत

तस्वीर साभारः BBC

स्कूल में जब भी सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे तो ज्यादातर लड़के दौड़, भाला फेंक, ऊंची कूद, वाद-विवाद प्रतियोगिता आदि में भाग लेते पर लड़कियों को रंगोली प्रतियोगिता, लेखन प्रतियोगिता, डांस और मेंहदी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। विशेष तौर पर लड़कियों को खेलों से दूर रहने के लिए कहा जाता है। हमारे कई अध्यापक बोलते थे कि तुम जाओगी दौड़ने दो मिनट में बेहोश होकर गिर जाओगी, इससे अच्छा है कि कमरे में बैठकर ही कला प्रतियोगिता में हिस्सा लो।

समाज में लैंगिक असमानता को खत्म करने में शिक्षा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। ऐसे में बहुत आवश्यक है कि हमारे शिक्षण संस्थान का माहौल समावेशी हो और लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ जानकारी देने वाला होना चाहिए। शिक्षक और पाठ्यक्रम में हर स्तर पर बदलाव करके हम मौजूदा भेदभाव को बढ़ाने वाले पैटर्न को बदल सकते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए संस्थानों और सरकारों को ज़रूरी कदम उठाने होंगे। एनसीआरटी और अन्य पाठ्यक्रम तय करने वाली संस्थानों को पाठ्यक्रम में मौजूद समस्याओं को स्वीकार करना होगा तथा जरुरी बदलाव करने की बहुत ही आवश्यकता है। सरकार को स्कूल में पढ़ने वाले अध्यापको को जेंडर न्यूट्रल शिक्षण की ट्रेनिंग प्रदान करने का प्रयोजन करना चाहिए तथा स्कूल में खेल-कूद के मध्याम से समस्याओं को आसान बनाकर बच्चों को शिक्षित करने का प्रावधान करना होगा। 


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