इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत खेत बेचकर ब्याह मंज़ूर लेकिन बेटी को खेत में हिस्सा देना नहीं!

खेत बेचकर ब्याह मंज़ूर लेकिन बेटी को खेत में हिस्सा देना नहीं!

पैतृक संपत्ति में बेटियों के अधिकार की नींव भारतीय समाज में इतनी कमजोर है कि सगे भाइयों से अपना हिस्सा लेने की तो बात दूर है स्त्रियां  अपने चचेरे भाइयों से हिस्सा नहीं ले सकती। यहां स्त्रियों के हिस्सा मांगने पर पिता खुद ही लाठी लेकर खड़े हो जाते हैं।

पैतृक संपत्ति में बेटियों की हिस्सेदारी को लेकर चाहे जितने कानून बन जाएं पर अभी तक इतने बरसों के बीत जाने के बाद भी गाँव-देहात में संपत्ति में बेटियों के हिस्से को लेकर एक जड़ परंपरा के लिए हठ में खड़ा पितृसत्तात्मक समाज ही दिखता है। गाँव में पिता बेटी का ब्याह धूमधाम से हो इसलिए खेत तो बेच देते हैं लेकिन उसी खेत में बेटी को हिस्सा कभी नहीं देते। यहीं नहीं बेटियों के अधिकारों को लेकर समाज इस कदर उदासीन है कि उनकी शिक्षा-रोज़गार के लिए भी वे कोई बड़ा निवेश नहीं करना चाहता लेकिन वही लोग बेटियों के ब्याह करने में बहुत बड़ी रकम खर्च कर देते हैं।

समाज में लोग लड़कियों को अगर पढ़ाई पूरी करवाकर नौकरी भी करने दे रहे हैं तो भी उन्हें निर्णय लेने का अधिकार और संपत्ति में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं देना चाहते हैं। पढ़ाई करके नौकरी करने के बाद भी वे उसी ढांचे में रहती हैं बल्कि उनका भावानात्मक और आर्थिक उपयोग करके पितृसत्ता के ढांचे को और मज़बूत कर लिया जाता है। जैसे कि वे नौकरी करके पिता-भाई की सहायता ही करें पैतृक संपत्ति में अपनी हिस्सेदारी की बात न करें।

यहां तक गांवों में देखा जाता है कि ब्याह दी गयी जिन लड़कियों के पास कोई आर्थिक साधन नहीं है, ससुराल में जो लड़कियां बहुत ही विपन्न अवस्था में रह रही हैं उनके लिए भी पिता और भाई संपत्ति में हिस्सा देने के लिए कतई तैयार नहीं दिखते। थोड़ी-बहुत आर्थिक सहायता देने के अलावा वे लड़कियों को ससुराल में पड़े रहने की हिदायत देते हैं। कहने का आशय है कि गवईं या कस्बाई क्षेत्रों में कहीं से भी कोई लड़कियों को संपत्ति में हिस्सा देने के लिए तैयार नहीं हैं। एक जड़ परंपरा और निजी स्वार्थ के कारण लोग इसके लिए इतने असंवेदनशील हो जाते हैं कि भूल जाते हैं कि लड़कियां भी उस संपत्ति की उतनी ही हकदार हैं जितने की लड़के होते हैं।

समाज में लोग लड़कियों को अगर पढ़ाई पूरी करवाकर नौकरी भी करने दे रहे हैं तो भी उन्हें निर्णय लेने का अधिकार और संपत्ति में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं देना चाहते हैं। पढ़ाई करके नौकरी करने के बाद भी वे उसी ढांचे में रहती हैं बल्कि उनका भावानात्मक और आर्थिक उपयोग करके पितृसत्ता के ढांचे को और मज़बूत कर लिया जाता है।

देश की आज़ादी के इतने साल बीत रहे हैं लेकिन अभी तक राज्य और समाज अपनी आधी आबादी के हिस्सेदारी को लेकर ऐसा नहीं बन पाया कि लड़कियों को भी उसी तरह उनका हिस्सा मिल जाना चाहिए जैसे लड़कों को मिल जाता है। राज्य की जवाबदेही पर अलग से बात हो सकती है क्योंकि राज्य ही ज़िम्मेदार होता है अपने नागरिकों के अधिकारों को लेकर। अगर स्त्रियों को लेकर राज्य की नियत स्पष्ट होती तो इस संपत्ति  अधिकार के लिए बने कानून का समाज में यह हश्र नहीं होता। आज स्त्रियां अगर कोर्ट-कचहरी जाकर अपना अधिकार लेना चाहती हैं तो समाज में उनके साथ या उनके परिवार के साथ अपराध घटित हो जाता है। इसका उदाहरण हर गाँव-जवार में किसी न किसी घटना के रूप में मिल जाता है जहां स्त्रियों ने पैतृक संपत्ति में अपना हिस्सा मांगा और मायके के पक्ष के लोगों ने आपराधिक ढंग से उसका प्रतिकार किया।

उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के अभिया गाँव की इंदु देवी ( बदला हुआ नाम)  के पिता इंटर कॉलेज में अध्यापक थे, पैतृक संपत्ति भी बहुत थी। पिता की आकस्मिक मृत्यु के कुछ दिन बाद इंदु देवी को अचानक किसी काम के लिए कुछ रुपये की ज़रूरत थी तो उन्होंने भाई से रुपये उधर मांगे क्योंकि उन्हें पता था कि पिता की सारी संपत्ति भाई को मिले हैं। भाई भी सरकारी नौकरी में था तो बहन को रुपये देने में कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन भाई ने उधार पैसे देने से इनकार कर दिया क्योंकि उसे संदेह था कि बहन रुपये लौटा नहीं पाएगी। इस घटना से नाराज़ होकर इंदु देवी के पति संपत्ति में इंदु देवी से हिस्सेदारी की बात करने लगे लेकिन उन्होंने  मना कर दिया कि उन्हें नहीं चाहिए पिता की संपत्ति में हिस्सा।

समाज में इसी तरह की जाने कितनी घटनाओं को देखकर स्त्रियां चाहकर भी हिम्मत नहीं कर पातीं पैतृक संपत्ति में हिस्सा लेने की क्योंकि इसका मतलब जन्मभूमि से एकदम से छूट जाना होता है। हमारी कानून व्यवस्था इतनी लचर है कि उन्हें न्याय नहीं मिल पाता। अदालतों में मुकदमे चलते रहते हैं और वे मायका देखने की आस लिये दुनिया से चली जाती हैं।

लेकिन बाद में एक और विषय में भाई द्वारा किए गए अपमान से आहत होकर उन्होंने पिता की संपत्ति में हिस्सा मांगा जिसका परिणाम ये हुआ कि उन्हें उनकी बीमार माँ से भाई ने मिलने नहीं दिया और गाँव-समाज सबने भाई का साथ दिया। इंदु देवी ने गाँव आकर कई बार माँ से मिलने की कोशिश की थी लेकिन भाई के कारण वह मिल नहीं पाई और माँ की मौत हो गई। हालांकि, माँ भी बेटे के ही पक्ष में खड़ी थीं। अब पैतृक संपत्ति पता नहीं इंदु देवी को हिस्सा मिल पाएगा कि नहीं लेकिन माँ और मायके से एकदम से छूट जाने की टीस उन्हें परेशान करती रहती है। समाज में इसी तरह की जाने कितनी घटनाओं को देखकर स्त्रियां चाहकर भी हिम्मत नहीं कर पातीं पैतृक संपत्ति में हिस्सा लेने की क्योंकि इसका मतलब जन्मभूमि से एकदम से छूट जाना होता है। हमारी कानून व्यवस्था इतनी लचर है कि उन्हें न्याय नहीं मिल पाता। अदालतों में मुकदमे चलते रहते हैं और वे मायका देखने की आस लिये दुनिया से चली जाती हैं।

पैतृक संपत्ति में स्त्रियों की हिस्सेदारी की राह बेहद कठिन है क्योंकि ज्यादातर स्त्रियों को खुद लगता है कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का कोई हिस्सा नहीं होता। थोड़ी-बहुत जिन में जागरूकता भी आती है इस अन्याय को लेकर तो वे ‘अच्छी बेटी’ होने के मोह से ग्रस्त होती हैं। सबसे बड़ी बात यहां भाई के साथ पिता भी बेटी को अपनी संपत्ति  में कभी हिस्सा नहीं देना चाहता। प्रतापगढ़ जिले के बघिया गाँव की रहनेवाली बबीता के पिता रामनाथ अभी जीवित हैं। बबीता का कोई भाई नहीं है। वह कहती हैं, “जब एकबार मायके में अपने अधिकार की बात कही तो पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलना तो दूर की बात कह भर देने से पिता ने डांट-फटकार लगाते हुए मायके से भगा दिया कि कहा कि कभी मत आना मेरे घर।” दरअसल पैतृक संपत्ति में बेटियों के अधिकार की नींव भारतीय समाज में इतनी कमजोर है कि सगे भाइयों से अपना हिस्सा लेने की तो बात दूर है स्त्रियां  अपने चचेरे भाइयों से हिस्सा नहीं ले सकती। यहां स्त्रियों के हिस्सा मांगने पर पिता खुद ही लाठी लेकर खड़े हो जाते हैं।

पैतृक संपत्ति में बेटियों के हिस्से को लेकर शुरू से अपराध की घटनाएं घटती रही हैं। कई साल बीत गए उत्तर प्रदेश जौनपुर ज़िले के धनियामऊ की घटना है। पिता की संपत्ति में अपना हिस्सा माँगने पर चचेरे भाइयों ने बहन की हत्या कर दी और केस इस तरह बना कि बहन ने प्रेम विवाह किया था इसलिए नाराज भाइयों ने ऑनर किलिंग की। जबकि मामला बेहद साफ था क्योंकि बहन की उम्र लगभग पचास साल की थी और प्रेम विवाह उन्होंने अपनी युवावस्था में किया था। इस मामले पुलिस वकील समाज सब परिवार की प्रतिष्ठा और मर्यादा का हवाला देकर मामले को दूसरी तरफ मोड़ दिए जबकि मामला सिर्फ पैतृक संपत्ति में बेटी के हिस्से से जुड़ा था।

गंवई इलाकों का तो यह हाल है कि आप कहीं बैठकर इस तरह की किसी एक घटना का ज़िक्र कीजिए आसपास के लोग पचास घटनाएं आपको गिनवा देगें। लेकिन पैतृक संपत्ति में बेटियों की हिस्सेदारी को लेकर सारी आपराधिक घटनाओं को वे न्याययोचित ठहराते हैं क्यों कि उनका मानना है कि जो स्त्रियां पिता की संपत्ति  में हिस्सा लेने की बात करती हैं वे ‘खराब स्त्रियां’ हैं। पैतृक संपत्ति अपने ही घर-घराने में रहे इस धारणा को वो बेहद पवित्र और न्याययोचित मानते हैं। अव्वल तो गाँव में सगे भाइयों से कोई लड़की हिस्सा लेने की बात करती ही नहीं और अगर चचेरे भाइयों में भी ये बात उठ रही है तो वहां भी लड़की को हिस्सा मिलना बेहद कठिन प्रक्रिया है। कोर्ट-कचहरी से आप मुकदमा दर्ज करके कुछ कर भी लें तो गाँव के आपराधिक वातावरण में जाकर हिस्सा लेना बेहद दुष्कर काम है।

पैतृक संपत्ति में बेटियों के अधिकार की नींव भारतीय समाज में इतनी कमजोर है कि सगे भाइयों से अपना हिस्सा लेने की तो बात दूर है स्त्रियां  अपने चचेरे भाइयों से हिस्सा नहीं ले सकती। यहां स्त्रियों के हिस्सा मांगने पर पिता खुद ही लाठी लेकर खड़े हो जाते हैं।

यहां पहले तो माता-पिता ही नहीं राज़ी होते। अगर हो भी गए तो परिवार-समाज के सामने उन्हें भी कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। पैतृक संपत्ति को लेकर जितने भी कानून बनते रहे हैं उनका कभी ठोस क्रियान्वयन नहीं हो पाता। दरअसल, इसके मूल में संपत्ति में स्त्रियों की भागीदारी को हमेशा से नकारने की धारणा का प्रभाव है। देखा जाए तो संपत्ति के अधिकार की जो स्थिति है वह महिलाओं के पक्ष में बहुत लचर है क्योंकि ससुराल में संपत्ति  का अधिकार पति के हाथ में होता है और मायके में पिता और भाई के इस तरह उनके पास सामाजिक अर्थो में बेहद कम शक्ति होती है। ये सामाजिक कारण ध्यान से देखा जाए तो संपत्ति से जुड़ा है। समाज में जो आर्थिक रूप से कमज़ोर होता है, समाज उसके पक्ष कभी खड़ा नहीं होता।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content