कवि दुष्यंत कुमार ने अपनी एक ग़ज़ल में यह शेर लिखा है कि “अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार, घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार।” इश्तेहारों में झूलती हमारी दिनचर्याओं में एक इश्तहार बरसों से हमारे दिमागों में घर करता रहा है चाहे उसे फॉर्च्यून सोयाबीन ऑयल की तरफ़ से लाया गया हो या अन्य खाद्य ब्रांड की ओर से, वह इश्तहार है “माँ के हाथ के खाने का स्वाद” से लेकर “घर का खाना, घर का खाना होता है।” माँ (महिलाओं) के हाथ का खाना सिर्फ़ घर तक सीमित रहा है और वहीं तक स्वादिष्ट इसीलिए होटल के शेफ समूह में महिलाओं की संख्या बहुत कभी नहीं बढ़ी है।
रसोई जब आधुनिकता के समय में पैसे कमाने का ज़रिया बनकर एक करियर क्षेत्र के रूप में हमारे सामने आई तभी उसमें से महिलाओं का हिस्सा छीन लिया गया। पैसा आखिरकार आर्थिक स्वतंत्रता की पहचान होती है, जिस रसोई ने बरसों से महिलाओं के दमन में भूमिका निभाई हो उसे आर्थिक स्वतंत्रता की निशानी कैसे बनाया जा सकता था। लेकिन बावजूद इसके ऐसी भी भला कोई दीवार है जिसे तोड़ा न जा सके? कुकिंग यानी पाक कला में करियर बनाने के लिए महिलाएं रूढ़िवाद की कई दीवारें तोड़कर इसमें धीरे-धीरे शामिल होने लगी, कम संख्या में ही सही लेकिन आई हैं।
गरिमा अरोड़ा का कहना है, “हम सुनना चाहते हैं कि भारत में शेफ, खाद्य इतिहासकार, खाद्य वैज्ञानिक, पाक प्रोफेसर और छात्र क्या सोचते हैं। इससे पहले कि हम एक नज़रिया तय करें, एक सोच का चयन करना बहुत महत्वपूर्ण है और उम्मीद है कि हम सभी एक साथ विचार-मंथन कर सकते हैं कि अगला कदम क्या होना चाहिए।”
आज पाक कला में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए विश्व में दिए जाने वाला सर्वोच्च समान मिशेलिन स्टार से भी महिलाएं सम्मानित हो रही हैं। स्टार प्रणाली पहली बार 1926 में शुरू की गई थी, जिसमें एक सितारा “एक बहुत अच्छे रेस्तरां” को दर्शाता था। दूसरे और तीसरे सितारे 1933 में जोड़े गए, जिनमें दो सितारों का अर्थ है “उत्कृष्ट खाना बनाना जो देखने लायक है।” भारत में यह ख्याति प्राप्त करने वाली पहली महिला शेफ हैं गरिमा अरोड़ा। उन्हें यह ख्याति 2018 में उनके बैंकॉक स्थिति रेस्टोरेंट ‘गा’ के लिए प्राप्त हुईं। थाई खाने और भारतीय खाने के मेल से बना इनोवेटिव खाना इस रेस्टोरेंट की ख़ासियत है। पंजाबी परिवार से आने वाली गरिमा शुरू से कुकिंग में करियर नहीं बना रही थीं। साल 2008 में पेरिस में स्थिति विश्व विख्यात कुकिंग स्कूल ‘ली कार्डों ब्ल्यू’ जाने से पहले वह पत्रकारिता में सक्रिय थीं। लेकिन उनका मन कुकिंग के क्षेत्र में पंख फैलाने का था। उन्होंने गगन आनंद, गॉर्डन रैमसे जैसे शेफ के साथ काम किया है। 2019 में उनके रेस्टोरेंट को दुनिया के टॉप पचास रेस्टोरेंट्स में शामिल किया गया। गरिमा अरोड़ा टीवी के मशहूर कुकिंग प्रोग्राम मास्टर शेफ में बतौर जज के रूप में भी नज़र आ चुकी हैं।
साल 2019 में शेफ गरिमा ने ‘फूड फॉरवर्ड इंडिया’ नाम से एक पहल शुरू की है, फूड फॉरवर्ड इंडिया का लक्ष्य भारतीय व्यंजनों की पुनः जांच, पुनर्मूल्यांकन और अंततः दुनिया के सामने फिर से पेश करना है। वह भारतीय खाने के साथ “कंफर्ट फूड” की जुड़ी हुई रूढ़िवादी धारणा को खत्म करना चाहती हैं। इसके लिए उन्होंने एक पूरा प्लान तैयार किया है जिसमें देश भर से ना सिर्फ प्रसिद्ध, बेहतरीन शेफ को शामिल किया है बल्कि फूड क्रिटिक्स (भोजन आलोचक) को भी शामिल किया है। इस संदर्भ में गरिमा अरोड़ा का कहना है, “हम सुनना चाहते हैं कि भारत में शेफ, खाद्य इतिहासकार, खाद्य वैज्ञानिक, पाक प्रोफेसर और छात्र क्या सोचते हैं। इससे पहले कि हम एक नज़रिया तय करें, एक सोच का चयन करना बहुत महत्वपूर्ण है और उम्मीद है कि हम सभी एक साथ विचार-मंथन कर सकते हैं कि अगला कदम क्या होना चाहिए।”
क्यों कुकिंग को पेशा नहीं बना पाती हैं महिलाएं
गरिमा अरोड़ा बेशक किसी प्रेरणा से कम नहीं हैं। लेकिन कुकिंग इंडस्ट्री में इतनी कम महिला शेफ होने के पीछे के कारण क्या हैं? तुर्की में एक सर्वेक्षण किया गया यह जानने के लिए कि कुकिंग करियर में महिलाओं की कम भागीदारी का कारण सिर्फ जेंडर भेदभाव है या कलनरी प्रोफेशन में जटिलता पाना भी एक कारण है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ गेस्ट्रोनॉमी एंड फूड साइंसेज में प्रकाशित जानकारी के मुताबिक़,”एक ऑनलाइन प्रश्नावली 227 पुरुष और महिला रसोइयों पर लागू की गई थी जो तुर्की में विभिन्न पाक संघों के सदस्य हैं। शोध के नतीजे बताते हैं कि तुर्की में रसोइयों को लगता है कि भर्ती प्रक्रिया के दौरान महिला आवेदकों और श्रमिकों को लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। गर्भावस्था को महिलाओं के प्रति लैंगिक भेदभाव का सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जाता है।
यह मानने के अलावा कि उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है, ऐसे अन्य कारण भी हैं जिनकी वजह से महिलाएं इस पेशे को नहीं चुनती हैं। इसका एक कारण यह है कि महिलाएं मानती हैं कि उनमें खाना पकाने का पेशा करने के लिए पुरुषों जितनी शारीरिक और मानसिक योग्यताएं नहीं हैं। दूसरा और सबसे चौंकाने वाला कारण यह है कि महिलाएं खाना पकाने के पेशे की छवि को अपने अनुकूल नहीं रखती हैं। भारतीय परिपेक्ष्य में इसके कारणों को समझें तो पहला कारण है महिलाओं के साथ जुड़ा रूढ़िवाद कि महिलाओं का काम ही है खाना बनाना और जिनका यह तय काम है हज़ारों वर्षों से तो यह एक कला कैसे हो सकती है। लोग महिलाओं द्वारा बनाए खाने को एक कला के रूप में देखते ही नहीं हैं। वहीं पुरुष जब इसी क्षेत्र में आते हैं तो तारीफ़ के हकदार बनते हैं और कमाते भी हैं। छोटे से उदाहरण से समझें तो हमारे गांव, शहर में फलां हलवाई प्रसिद्ध होता है, हलवाइन नहीं।
दूसरा कारण है जेंडर पे गैप, महिलाएं जब कल्नरी इंडस्ट्री में प्रवेश करती हैं तो भीतरी भेदभाव झेलने के साथ-साथ बराबर वेतन भी नहीं पाती हैं। उन्हें कम पैसे पर रखा जाता है और जब व्यक्ति के काम का आर्थिक मूल्य कम होता है तब वह अपना काम भी पूरी लगन से नहीं कर पाता है अंततः महिलाओं के काम करने की क्षमता प्रभावित होती है और इसका फायदा उनके अस्तित्व को कम ठहराकर उठाया जाता है। तीसरा कारण है कार्यक्षेत्र में असमानता, मानसिक और भावनात्मक तौर पर महिलाओं के दिमाग को रचने में हम एक सफल समाज हैं इसके लिए हम खुद को बधाई दे सकते हैं।
कार्य क्षेत्र जो भी हो हमने एक कामकाजी महिला की कौन सी छवि अच्छी होगी और कौन सी बुरी इसके मानक उसके कार्यक्षेत्र के प्रदर्शन पर नहीं बल्कि उसके घरेलू प्रदर्शन से तय की है अतः काम करते हुए भी वह बच्चों के प्रति कितनी जिम्मेदार है, घर के लोगों के काम ठीक से करती है या नहीं यही देखते हैं। इसमें अगर वह सफल है तभी वह एक सफल कामकाजी महिला भी है। लेकिन उसकी इन परिस्थितियों के प्रति उसका कार्यक्षेत्र कतई सहानुभूतिपूर्ण नहीं होता है। समानता को बहुत ऊपरी सतह से समझने वाला समाज और उसमें निहित संस्थानें यह पहचान ही नहीं पाई हैं कि समानता का अर्थ मौकों में बराबरी से है और परिस्थितियों को देखते हुए उचित कदम उठाने से भी। बावजूद इसके महिलाओं से देर रात काम कराना, उनकी क्षमता को उनकी घरेलू जिम्मेदारियों से मापने से परहेज़ नहीं करते हैं।
साथ ही महिलाओं को कम वेतन देना हमारी संस्थाओं की कार्यप्रणाली का हिस्सा तो है ही अंततः कुछ महिलाएं इससे तंग आकर काम छोड़ देती हैं। चौथा कारण मातृत्व दंड की शक्ल में महिलाओं के समक्ष आता है। वे ये जानकर खुश होती हैं कि वे माँ बनेंगी लेकिन उनका कार्यक्षेत्र कहता है तुम्हारी यही खुशी हमें मंजूर नहीं है, परिणामस्वरूप माँ बनना उनके कार्य क्षमता में, आर्थिक फायदे में गिरावट की तरह देखा जाता है। छुट्टी लेकर भी वेतन ले रही महिला से बेहतर वह उसे निकाल देना ही ठीक समझते हैं। कुकिंग इंडस्ट्री में महिलाओं की बढ़ोतरी के कई तरीके हो सकते हैं, सबसे अहम है महिलाओं की कुकिंग को एक जिम्मेदारी की तरह नहीं बल्कि कला के रूप में देखा जाए, ऐसी कला जो महिला को आर्थिक सशक्तिकरण भी दे।
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