अंग दान या ऑर्गन डोनैशन गंभीर अंग विफलता वाले रोगियों के लिए जीवन बचाने का एकमात्र उपाय और अवसर हो सकता है। जब कोई व्यक्ति अपने किसी अंग को कानूनी तौर पर या तो सहमति से, दाता जीवित हो या मौत के बाद, उसके निकटतम रिश्तेदार की सहमति से निकालने की अनुमति देता है, तो उसे ‘अंग दान’ कहते हैं। कई देशों में आज जहां मौत के बाद अंग दान कोई बड़ी बात नहीं, भारत में मौत के बाद अंग दान का दर असाधारण रूप से कम है। वैश्विक स्तर पर अमेरिका के बाद जीवित दाता ट्रांसप्लांट्स की दूसरी सबसे बड़ी संख्या भारत की है। लेकिन दक्षिण एशियाई देशों में केवल कुछ ही ट्रांसप्लांट्स मौत के बाद दाताओं से होते हैं। मौत के बाद अंग दान में कमी का एक कारण स्वास्थ्य देखभाल करने वालों और चिकित्सकों के बीच अंग दान के बारे में जागरूकता की भारी कमी है। पर इसकी एक बहुत बड़ी वजह सांस्कृतिक और सामाजिक रूढ़िवाद है, जो सामान्य आबादी को मौत के बाद अंग दान करने से रोकती है।
जीवित अंग दान ट्रैन्ज़्प्लैन्टेशन चिकित्सा में एक महत्वपूर्ण चिकित्सीय विकल्प के रूप में विकसित हुआ है। हालांकि इसमें कुछ चिकित्सीय और नैतिक समस्याएं हैं जो दूसरों के अंग के निर्भरता के साथ जुड़ी है। लेकिन इनमें सबसे महत्वपूर्ण चिंता यह है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक संख्या में जीवित अंग दाताओं के रूप में दान करती हैं। विभिन्न शोध और रिपोर्ट को देखें, तो मौत के बाद ट्रैन्ज़्प्लैन्टेशन और स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्रों में भेदभाव पर व्यापक रूप से चर्चा की गई है। लेकिन जीवित अंग दान में लैंगिक असंतुलन के मुद्दे पर बहुत ज्यादा शोध नहीं हुआ है। न ही यह मूलधारा में चर्चा का हिस्सा बन पाया है। द टाइम्स ऑफ इंडिया के खबर मुताबिक भारत में जीवित अंग दाताओं में 5 से 4 महिलाएं हैं जबकि इन अंगों को प्राप्त करने वालों में 5 में 4 पुरुष हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 1995 से 2021 तक के आंकड़ों से पता चलता है कि 36,640 ट्रैन्ज़्प्लैन्टेशन किए गए, जिनमें से 29,000 से अधिक पुरुषों के लिए और 6,945 महिलाओं के लिए थे।
अंग दान के क्षेत्र में अंतर पर सवाल क्यों जरूरी है
हालांकि महिलाएं और पुरुष दोनों अंग दान करते हैं, पर विभिन्न शोध के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाओं में जीवित अंग दाता होने की संभावना अधिक होती है। दुनिया भर में विशेषकर भारत में अंग दान को एक परोपकारी काम माना जाता है। मेडिसिन, हेल्थ केयर और फिलॉसफी की एक रिपोर्ट कहती है कि महिलाओं को उनकी परोपकारिता के लिए केवल बधाई देने के बजाय, हमें अंग दान के क्षेत्र में मौजूदा लैंगिक अंतर और भेदभाव के संभावित कारणों के विषय में सवाल खड़े करना जरूरी है। इस रिपोर्ट में आगे कहा गया कि इस क्षेत्र में निष्पक्षता और कमजोर समूह पर अनुचित दबाव के मामलों की जांच करनी होगी। अंग दान और ट्रैन्ज़्प्लैन्टेशन में लैंगिक अंतर का कारण मूल रूप से आर्थिक, व्यवहारिक या मनोसामाजिक कहा जा सकता है। लेकिन भारत में इसकी मूल वजह महिलाओं के स्वास्थ्य को नजरअंदाज़ करना, उन्हें परिवार में दोयम दर्जा मिलना और केयर गिवर के रूप में देखा जाना है।
महिलाएं भी शारीरिक समस्याओं का हो रही हैं शिकार
गैर सरकारी संस्था ऑर्गन इंडिया के अनुसार भारत में पीड़ितों को सबसे ज्यादा जरूरत किडनी यानि गुर्दे की है। इसके बाद पीड़ितों को हृदय और लिवर की जरूरत है। चिकित्सकीय विशेषज्ञों के अनुसार किडनी की बीमारियां किसी भी लिंग के व्यक्ति को हो सकता है। पुरुष और महिलाएं दोनों में किडनी की समस्याएं विकसित होने की समान संभावना होती है। नतीजन उनके लिए किडनी ट्रैन्ज़्प्लैन्टेशन की आवश्यकता के मामले भी समान होते हैं। लेकिन किसी पुरुष को अपने परिवार में किडनी दाता मिलने की संभावना बहुत अधिक होती है। अक्सर यह दाता उनके परिवार की एक महिला होती है।
समाज में महिलाओं के स्वास्थ्य और अधिकार के प्रति रूढ़िवादी विचार के कारण महिलाओं को यह विशेषाधिकार नहीं कि वह अपने किसी बहुत करीबी से इस बात की उम्मीद लगाए। उन्हें दाता मिलने की संभावना भी बहुत कम होती है। बहुत कम पुरुष ही किसी महिला रिश्तेदार को अंग दान करने के लिए आगे आते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया में साल 2021 में एक्सपेरिमेंटल एंड क्लिनिकल ट्रांसप्लांटेशन जर्नल के एक शोध आधारित ख़बर अनुसार भारत में 80 फीसद जीवित अंग दाता महिलाएं हैं जो मुख्य रूप से पीड़ित की पत्नी या मां होती हैं जबकि 80 फीसद अंग पाने वले पुरुष होते हैं।
महिलाओं पर क्यों है सामाजिक और पारिवारिक दबाव
महिलाओं की अधिक संख्या के पीछे एक वजह उनकी सामाजिक कन्डिशनिंग भी है। परिवार में ऐसे हालात होने पर वे इस बात का दबाव अधिक महसूस करती हैं और अधिक संवेदनशील होती हैं। हमारे देश में पुरुषों को मूल रूप से घर चलाने वाला समझा जाता है, जिसके काम और शरीर को ज्यादा अहमियत मिलती है। इसके उलट आम तौर पर महिलाओं के स्वास्थ्य को न सिर्फ नजरअंदाज़ किया जाता है, बल्कि अंग दान जैसे महत्वपूर्ण विषय में भी उम्मीद की जाती है कि यदि परिवार के लिए शरीर को दांव पर लगाने की जरूरत है तो वह पीछे नहीं हटेंगी। अध्ययन के अनुसार अगर महिलाओं के परिवार वाले उन्हें अंग दान करें तो महिलाएं खुद को दोषी समझती हैं और उन्हें अंग दान करने नहीं देती हैं। वहीं अगर पीड़ित एक पुरुष है और कमाने वाला है, तो पत्नी या माता-पिता को अंग दान करने की जिम्मेदारी महसूस होती है।
अंग दान के लिए मौजूदा कानून और समस्याएं
साल 1994 में मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम (टीएचओए) में चिकित्सीय उद्देश्यों के लिए मानव अंगों को हटाने, उनके स्टोरेज और ट्रैन्ज़्प्लैन्टेशन की एक प्रणाली बनाने और मानव अंगों में व्यावसायिक लेन-देन की रोकथाम के लिए इस अधिनियमित को बनाया गया था। टीएचओए को आज आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सभी राज्यों द्वारा अपनाया गया है। इसके 2011 के संशोधन हुए नियमों के अनुसार, यदि कोई जीवित व्यक्ति अंग दान करना चाहता है, तो इसकी इजाजत दो श्रेणियों के अंतर्गत दी जाती है। यदि कोई निकट का रिश्तेदार हो तो ट्रैन्ज़्प्लैन्टेशन की अनुमति अस्पताल के ‘सक्षम अधिकारी के माध्यम से दिया जाता है। यदि दाता कोई नजदीकी सगे-संबंधी नहीं है, तो ट्रैन्ज़्प्लैन्टेशन की अनुमति सरकार का नियुक्त किया हुआ प्राधिकरण समिति के माध्यम से दी जाती है।
आम तौर पर प्राधिकरण समिति से अनुमति पाना एक लंबी और थकाने वाली प्रक्रिया है, जिसके लिए संभव है कि परिवार में कोई मौजूद नहीं या तैयार नहीं। सरकारी प्रक्रिया में प्राधिकरण समिति के पूरी तरह जांच के बाद ही यह अनुमति दी जाती है। यह प्रक्रिया इस बात को सुनिश्चित करने के लिए की जाती है कि इसमें व्यावसायिक उद्देश्य या जबरदस्ती शामिल न हो। इसकी तुलना में चूंकि ‘सक्षम अधिकारी’ अस्पताल का नियुक्त किया गया समिति है, ट्रैन्ज़्प्लैन्टेशन की अनुमति मिलना आसान है। विभिन्न शोध और रिपोर्टों के अनुसार यह लगता है कि महिलाएं स्वेच्छा से प्रियजनों के लिए अंग दान कर रही हैं। ऐसे में अस्पताल का किसी भावनात्मक दबाव या जबरदस्ती का पता लगाना मुश्किल है।
अंग दान के मामले में मैंगलोर में अंग दान के प्रति टरशियरी देखभाल केंद्रों में स्वास्थ्य देखभाल चाहने वाले लोगों की धारणाओं और दृष्टिकोण पर एक शोध किया गया। इंडियन जर्नल ऑफ पैलीएटिव केयर में छपी रिपोर्ट अनुसार इस शोध में शामिल प्रतिभागियों में 59.6 फीसद ने अंग दान करने की इच्छा दिखाई। यह प्रतिशत महिलाओं में 64.1 फीसद था और उच्च सामाजिक और आर्थिक स्थिति वाले लोगों में यह दर 62.7 फीसद था। जरूरी है कि अंग दान को लेकर न सिर्फ मिथकों को दूर किया जाए, बल्कि इससे जुड़े रूढ़िवाद को भी दरकिनार कर सिर्फ चिकित्सकीय जरूरतों और नजरिए से अंग दान को देखा जाए। सर्वाइवर महिलाएं अपनी जरूरत में घर के पुरुषों का अंग दान करने पर खुदको कटघरे में न खड़ा करें, इसके लिए भी समावेशी नज़रिए की जरूरत है। लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि यह चिकित्सकीय निगरानी में की जाती है और यह जीवन का खत्म होना नहीं है।