पेट के निचले हिस्से में लगातार या रुक-रुक कर होने वाले दर्द को क्रोनिक पेल्विक पेन (सीपीपी) के रूप में परिभाषित किया जाता है। हालांकि यह दर्द कोई घातक रूप नहीं लेता। मगर इसकी समय सीमा अधिकतम 5 से 6 महीने तक की हो सकती है। क्रोनिक पेल्विक दर्द एक सामान्य स्थिति है जो पुरुषों और महिलाओं दोनों को प्रभावित करती है। लेकिन पुरुषों के तुलना में यह महिलाओं को ज्यादा प्रभावित करती है। महिलाओं में प्रजनन अंगों के विकारों के कारण पुरुषों की तुलना में सीपीपी का दर अधिक होता है। अक्सर महिलाओं के शारीरिक दर्द और समस्याओं को सामाजिक रूढ़िवाद के वजह से नजरंदाज किया जाता है। हालांकि महिलाओं में क्रोनिक पेल्विक दर्द बाहरी या ऊपरी तौर पर पीरियड्स, शारीरिक संबंध या गर्भावस्था से जुड़ा मुद्दा नहीं है। लेकिन इसे नज़रअंदाज़ करना किसी भी व्यक्ति को विकलांग कर सकता है या चिकित्सकीय नुकसान भी पहुंचा सकता है।
क्रोनिक पेल्विक दर्द केंद्रीकृत दर्द का एक रूप है, जहां अक्सर क्रोनिक दर्द के परिणाम से शरीर में दर्द की सीमा कम हो जाती है। जैसे, यदि कोई महिला एंडोमेट्रियोसिस से जूझ रही हैं, तो इस स्थिति से जुड़ा तीव्र दर्द तीन से छह महीने के समय सीमा के दौरान केंद्रीकृत हो सकता है, क्योंकि दर्द पुराना हो जाता है। सीपीपी पुरुषों में भी पाया जाता है जो पुराने पेरिनियल और पेनाइल दर्द के तौर पर जाना जाता है। आमतौर पर यह चिकित्सकों द्वारा बिना किसी कठिनाई के पहचाना जाता है और अक्सर इसे क्रोनिक प्रोस्टेटाइटिस का नाम दिया जाता है। अधिकतर मामलों में पाया गया है कि पुरुषों में यह समस्या गैर-संक्रामक रूप से बैक्टीरियल इन्फेक्शन या फिर प्रोस्टेट बढ़ने के कारण होती है।
महिलाओं को दर्द सहने की सीख देता समाज
आम तौर पर हमारे समाज में यह माना जाता है कि महिलाओं को पीरियड्स और प्रसव के साथ होने वाले दर्द से निपटने की क्षमता अधिक होती है। इन रूढ़िवादी सोच का सीधा-सीधा मतलब है कि महिलाओं के दर्द को ‘प्राकृतिक’ और ‘सामान्य’ समझा जाता है। इसलिए अमूमन भारतीय चिकित्सा की दुनिया में यह उम्मीद की जाती है कि एक महिला के तौर पर वह दर्द को जितना संभव हो सहेगी। एक चिकित्सक भी कई बार इसे गंभीरता से नहीं लेता। हालांकि क्रोनिक पेल्विक पेन जैसी समस्या का अनुपात पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ज्यादा है। लेकिन फिर भी यह गंभीर समस्या मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन पाई है। कई शोध से यह भी पता चलता है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में दर्द के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं और इसे व्यक्त करने की अधिक संभावना होती है। लेकिन उनके दर्द को अक्सर वास्तविकता के बजाय ‘अत्यधिक प्रतिक्रिया’ के रूप में देखा जाता है। महिलाओं को घर के बड़े-बुजुर्ग भी दर्द सहने और शिकायत न करने की सीख देते हैं। उनको कहा जाता है कि अच्छी महिला होने के लिए उन्हें स्थिति से समझौता करना और सहनशक्ति होना आवश्यक है। वहीं दूसरी ओर, कमर या शरीर से जुड़े दर्द से संबंधित शिकायत के मामलों में महिलाओं की संख्या ही अधिक है।
पितृसत्ता के कारण इलाज से दूर होते लोग
सामाज में दकियानूसी सोच के कारण पुरुषों को भी बचपन से ही सिखाया जाता है कि वह अपनी समस्या या भावनाओं का प्रदर्शन न करें। ऐसा करने से वो कमजोर साबित होंगे। छोटे-छोटे बच्चों को कहा जाता है कि तुम लड़के हो और लड़के रोते नहीं हैं। इस बात से साफ़ जाहिर होता है कि कैसे समाज में महिलाओं और पुरुषों के लिए बनाए गए दोहरी और रूढ़िवादी मान्यताएं न सिर्फ उनके मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़ सकती है बल्कि इससे उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। इस संकीर्ण मानसिकता से व्यक्ति के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव तो पड़ता ही है, साथ ही काफी समय से चले आ रहे पुरुष और महिलाओं के स्वास्थ्य समस्याओं के प्रति पितृसत्तातमक दृष्टिकोण को बढ़ावा मिलता है, जोकि गलत है।
पुरुष भी होते हैं पितृसत्ता का शिकार
हालांकि ज्यादातर क्रोनिक पेल्विक पेन को लेकर चर्चाएं महिलाओं से संबंधित होती हैं। लेकिन पुरुष भी इससे प्रभावित होते हैं। पर पितृसत्तातमक समाज में वे अपनी इस समस्या को सामने नहीं लाना चाहते। अधिकतर पुरुषों में देखा गया है कि वह अपने गुप्तांगों से जुड़ी समस्यायों को लेकर सामने नहीं आना चाहते। यहाँ तक कि वे सार्वजनिक रूप से डॉक्टर की सलाह लेने से भी बचते हैं। सालों से गुप्तांगों और उनसे जुड़ी समस्यायों को लेकर हमारी सोच जेंडर आधारित है। यौन और प्रजनन स्वास्थ्य या गुप्तांगों से जुड़ी समस्याओं पर सार्वजनिक या निजी दायरे में भी बातचीत नहीं होती। लोगों में इतनी जागरूकता नहीं है कि वह अपनी समस्याओं पर बात करे। सामाजिक रूढ़िवाद के कारण सिर्फ महिलाओं ही नहीं अगर पुरुषों की भी बात करें, तो हमारे समाज में खासकर पुरुषों में रूढ़िवादी सोच है कि यदि वे अपने यौन स्वास्थ्य या गुप्तांगों से संबंधित कोई परेशानी का ज़िक्र करेंगे, तो वह ‘नामर्द’ या ‘कमजोर’ कहलाएंगे।
महिलाओं में ज्यादा होता है क्रोनिक दर्द
महिलाओं में पुरुषों की तुलना में विभिन्न प्रकार के क्रोनिक दर्द सिंड्रोम का अनुभव होने की संभावना अधिक होती है। वे पुरुषों की तुलना में शरीर के विभिन्न अंगों में ज्यादा जगहों पर गंभीर दर्द की रिपोर्ट करती हैं। कई शोध के अनुसार महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक बार और गंभीर रूप से दर्द संबंधी बीमारियों से प्रभावित होती हैं। वे पुरुषों की तुलना में अधिक बार और कम दर्द सीमा के साथ दर्द की शिकायत करती हैं। कई शोध के अनुसार आज तक, महिलाओं के लिए क्रानिक दर्द के प्रबंधन के लिए कोई चिकित्सकीय विकल्प विशेष रूप से विकसित नहीं किया गया है। आज भी क्रानिक दर्द का उपचार काफी हद तक उन दवाओं का उपयोग करके प्रबंधित किया जाता है जो शुरू में अन्य बीमारियों के लिए विकसित की गई थीं। इनकी प्रभावशीलता सीमित है और पीड़ितों का इनके प्रति सहनशीलता भी समस्याग्रस्त है। सेंटर्स फॉर डिसिस कंट्रोल एण्ड प्रीवेन्शन की एक रिपोर्ट अनुसार हालांकि आज भी पुरुषों में प्रिस्क्रिप्शन दर्दनिवारक ओवरडोज़ से मरने की संभावना अधिक है। लेकिन यह अंतर पुरुषों और महिलाओं के बीच का कम हो रहा है। यह रिपोर्ट बताती है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में प्रेसक्रिप्शन दर्दनिवारक ओवरडोज़ से होने वाली मौतें अधिक तेजी से बढ़ी हैं। साल 1999 के बाद से पुरुषों में 265 फीसद की तुलना में महिलाओं के मृत्यु दर में 400 फीसद से अधिक की वृद्धि हुई है।
इसके अलावा गर्भवती महिलाएं जो किसी भी उद्देश्य के लिए प्रेसक्रिप्शन ओपिओइड का उपयोग करती हैं, वे एक अनोखी चुनौती पेश करती हैं क्योंकि गर्भ में नवजात को ओपिओइड विदड्रॉल सिंड्रोम विकसित होने का खतरा होता है। पिछले एक दशक में चिकित्सकों का दर्द नियंत्रण के लिए ओपिओइड की सलाह, अवैध ओपिओइड उपयोग और किसी लत के उपचार में चिकित्सकीय मदद के रूप में ओपियोइड के अत्यधिक और बार-बार इस्तेमाल से नवजात बच्चों में ओपियोइड विथ्ड्रॉअल सिंड्रोम की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है।
क्यों दर्द का मुद्दा जटिल है
दर्द के मामले में महिलाओं को महज संवेदनशील कहकर विषय की गंभीरता को नकारना सही नहीं। यह मुद्दा संवेदनशील या शक्तिशाली होने से कहीं अधिक जटिल है। इसमें जैविक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक कारक शामिल हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में दर्द के जूझने की स्थितियां विकसित होने की संभावना अधिक होती है। उदाहरण के लिए, महिलाओं में जोड़ों की आर्थ्रोप्लास्टी के बाद दर्द में पुरुषों के समान सुधार होने की संभावना कम होती है। इसका कारण स्पष्ट नहीं है और संभावित रूप से बहुआयामी है। विशेष रूप से व्यापक दर्द से जूझने वाली महिलाओं में संपूर्ण घुटने की आर्थ्रोप्लास्टी के बाद सुधार होने की संभावना कम होती है। आमतौर पर महिलाओं में दर्द अधिक होता है और दर्द के प्रति लिंग आधारित धारणा के कारण लिंग-आधारित प्रतिक्रिया को बदल सकता है। दर्द हर किसी को अलग तरीके से प्रभावित करता है। जरूरी नहीं कि इसका अनुभव समान हो। किसी के लिए यह प्रबंधित करने लायक हो सकता है जबकि किसी के लिए यह जीवन को बदलने वाला या कामकाज को ठप करने वाला। इसलिए चिकित्सा के मामले को हमें समावेशी दृष्टिकोण के देखने की जरूरत है।