बात लोक भाषाओं की हो या अन्य किसी भी भाषा की, यह अपने मिजाज से अपनी निर्मिति के सत्य को उद्घाटित करती है। यह बात भाषा तक नहीं सीमित है भाषा से जुड़े सभी अर्थ उसके प्रणेताओं से भी संबंधित है जैसे कोई लेखक, कवि, साहित्यकार, इतिहासकार, संस्कृतिकर्मी या समाजशास्त्री हो। उसकी भाषा उसकी प्रकृति को काफी हद तक उजागर करती रहती है। इसी तरह किसी समाज की भाषा उसके जीवन, रहन-सहन और वहां की संस्कृति के साथ सामाजिक सरोकारों को भी उद्घाटित करती रहती है। इसलिए यहां जब भाषा के आधार पर निर्मित भेदभाव की बात कर रही हूँ तो जाहिर सी बात है एक समाज के तमाम सांस्कृतिक भेदभाव को भाषा के आधार पर चिन्हित भी किया जाएगा।
एक गैरबराबरी और अवैज्ञानिक चेतना का समाज कैसे असंवेदनशील और क्रूर होता है इसका उदाहरण उसकी भाषा के गहरे अध्ययन से पता चलता है। जो समाज स्त्री होने, गरीब होने या विकलांग होने जैसी प्रकृतिक और सामाजिक दशा को गाली की तरह बरतता हो वो कितना न्यायपूर्ण और बराबरी का समाज होगा आप अंदाजा लगा सकते हैं। यहां मैं भाषा के भयभा (सौतेलापन) होने की बात कहते हुए उस संस्कृति और समाज को भयभा कह रही हूँ, उसके भेदभाव को दर्ज कर रही हूं। हालांकि ये शब्द भी उसी समाज की सोच और व्यवहार से निःसृत है लेकिन किसी संस्कृति की बोली-बानी और संवेदना को प्रकट करने के लिए उसकी भाषा ज्यादा सटीक और प्रवाहमान होती तो इस लिहाज से उनके व्यवहार को चिन्हित करने के लिए मुझे ये शब्द उपयुक्त लगा।
अवधी की लोकभाषा में जाने कितने ऐसे शब्द और कहन हैं जो हाशिये की जातियों की रहन-सहन, बोली-बानी ही नहीं उनकी कलाओं का भी अपमान करते हैं। जैसे ऐसा ही एक कहन है ‘धोबिया का गीत’। धोबी गीत एक कला है एक विशेष प्रकार के नृत्य और गीत के साथ उसे प्रस्तुत किया जाता रहा है। ये एक हाशिये के समुदाय की सांस्कृतिक विरासत है लेकिन लोक की भाषाओं में ये शब्द व्यर्थ की कही जा रही बात की तरह बरता जाने लगा। जैसे कोई किसी घटनाक्रम या बीती हुई बात या व्यवहार को बार-बार कह रहा है तो यहां लोग कहते हैं कि “तुमने तो फलां बात को या घटना को धोबिया का गीत बना लिया है” तो इस तरह दलित वर्ग की एक रोचक कला को व्यर्थ और बेमतलब होने के अर्थ में धकेल दिया है।
यह एक विडम्बना है और एक गम्भीर साक्ष्य है कि कैसे एक सुविधाओं से लैस समाज हाशिये के समाज को हेय दृष्टि से देखता है। उसकी कला और संस्कृति को हल्के मजाक में या बेहद भदेशपन की दृष्टि में देखता है। और उसे इस तरह बरतने लगता है जैसे वो कोई बड़ी मौलिक बात कह रहा हो। भाषा ही वो माध्यम है जो भेद खोलती है कि समाज में कितनी समानता और संवेदनशीलता है या सामाजिक और आर्थिक आधार पर उस समाज के भीतर जीवन रहन की कितनी गहरी खाई हैं। जब लोक की भाषाओं का अध्ययन हम उनकी जातीय, लैंगिक और आर्थिक आधारों पर करेगें तो देखेगें कि वहां बेहद भाषिक क्रूरता और हिंसा है। जेंडर को लेकर समाज हमेशा से गैरबराबरी से भरा और अन्यायपूर्ण रहा है।
यहां तक संवेदनाओं के अर्थ सामन्ती समाज ने अपने लिहाज से गढ़ लिया है जो बहुत अवैज्ञानिक और जड़ है। यहां रूलाई जैसी पवित्र अवस्था को बहुत कमजोर और कायरता का प्रतीक माना गया और उसे स्त्रियों की एक निजी क्रिया की तरह देखा गया। ‘औरतों की तरह रोना’ इसे कहावत की तरह बरता गया किसी भी पुरूष को रोते देख यहाँ हर कोई कहता कि क्या औरतों की तरह रो रहे हो, पुरुष क्या यहां औरतें ही पुरुषों को देखकर कहतीं हैं कि औरतों की तरह पुरुषों को नहीं रोना चाहिए। इस तरह की भाषायी हिंसा से एक समाज संवेदनशीलता को कमजोरी की तरह देखने लगा। हाशिये के वर्ग के साथ समाज जिस तरह से पेश आता रहा है रुलाई के साथ भी उसी तरह पेश आया और रुलाई को महज स्त्रियों की संवेदना मानकर उससे पुरुषों को तटस्थ माना। जैसे रोना सिर्फ स्त्रियों की संवेदना है उनकी निजी प्रकृति है पुरुष की प्रकृति में रुलाई नहीं है। और ये मिथ समाज में लोकोक्ति की तरह इस तरह बरता गया जैसे कोई जैविकीय सत्य हो।
इसी तरह विधवा-विलाप शब्द भी रुलाई की संवेदना से ही संबद्ध है जिसे बहुत हेय और एक प्रवंचना की तरह भाषा में बरता गया। एक स्त्री, समाज में हाशिये की मनुष्य है सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से विधवा स्त्री को बेहद हीन दृष्टि से देखता है। यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है कि उस विधवा स्त्री की रुलाई को उसने करुणा की दृष्टि से नहीं बल्कि बहुत हेय दृष्टि से देखता है। सामन्ती भाषा मे विधवा विलाप शब्द का प्रयोग बेहद विद्रूप अर्थ में किया जाता है। अर्थात भाषा और बोली के निर्माण में समाज में व्याप्त प्रबल पाखण्ड और क्रूर परम्पराओं के खतरनाक तत्वों की भूमिका प्रभावकारी है।
सामान्यतः तो समाज की संरचना ही भेदभाव और गैरबराबरी की नींव पर स्थापित दिखती है लेकिन लैंगिक भेदभाव को बरतने को लेकर समाज जितना कठोर रहा है उतना शायद ही किसी अन्य तरह के भेदभाव को लेकर रहा हो। जब लोक की भाषाओं में बोलियों को उधेड़ कर देखा जाये तो यहां लैंगिक भेदभाव के एक से बढ़कर एक प्रभाव दिखता है। ये प्रभाव इतने गहरे और जड़ पकड़ चुके हैं कि आज भी चीजें बहुत बदल नहीं पा रही हैं।
यहां कितने ही वाक्य, कहावतें, मुहावरें, कहकूत की तरह बरते जाते हैं जहां स्त्रीपक्ष का जीवन गौण रहता है या बेहद कमतर दृष्टि में दिखता है। जैसे एक शब्द है ‘नानी मरना’। नानी मरना शब्द का प्रयोग सामान्यतः खड़ी बोली में भी खूब प्रयोग होता है लेकिन क्या किसी का ध्यान जाता है कि नानी मरना ही क्यों इतना सामान्य है। दादी मरना या नाना, दादा मरना क्यों नहीं कहा जाता। इसका भी सम्बंध सीधे जेंडर से जुड़ा है चूंकि नानी हमारी माँ की माँ होती हैं और दादी पिता की माँ होती है और यहां पितृपक्ष ही हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है तो नानी के मरने की बात कही जाती है। दादा या नाना तो पुरुष हैं ही, तो उनके मरने की बात कैसे कही जा सकती है। इस तरह तमाम कहन यहां दिखाती है जहां स्त्रीपक्ष को दोयम दर्जे में रखा जाता है और उसे सत्य की तरह बातचीत में बरता जाता है। लैंगिक भेदभाव के इतने बारीक रेशे हैं कि बहुत ध्यान देने पर ही उनके सारे तार खुलते हैं और सब जाकर पितृसत्ता की अन्यायी ताकतों से जुड़ते हैं।
जब जड़ता और अतार्किकता किसी समाज में मान्य हो तब तार्किकता, परिवर्तन और प्रगतिशीलता को खारिज किया जाता हो तो निश्चित ही वह समाज अलोकतांत्रिक और पूर्वगामी होता है। अवध की लोकभाषा में एक कहकूत बेहद प्रचिलित है ‘गहन्नो गाना’। ये आमतौर पर किसी बात या घटनाक्रम को विवरण सहित कहने के लिए उस कथ्य को खारिज करने के लिए कहा जाता है कि “अच्छा गहन्नो मत गाओ”। इस कहन को एक व्यर्थता बोध की तरह बरता जाता है और इस बात को कमतर करने के लिए भी इसे स्त्रियों से जोड़ दिया जाता है कि तुम तो स्त्रियों की तरह विवरण दे रहे हो। यहां पितृसत्ता अपनी जड़ता और भेदभाव के बोध को स्त्रियों से जोड़कर स्थापित करती है कि तर्क और तथ्य तो स्त्रियों का जैविक गुण है पुरूष तो दो टूक कहता है। यहां सीधे पितृसत्ता तार्किकता और तथ्यात्मकता को खारिज करते हुए स्त्रियों की वैज्ञानिक दृष्टि को भी खारिज करती है कि स्त्रियां दुनिया भर का ब्यौरा बतलाती हैं पुरुष तो बहसबाज़ी नहीं करता। सामन्ती सोच व तानाशाही श्रेष्ठता का बोध सत्यापित करने के लिए वे स्त्रियों को और हाशिये के जनों को हमेशा कमतर और छोटा दिखाने के प्रयास करते हैं।
अगर भाषा के पूरे स्वरूप को समझा जाये तो वहां लैंगिक भेदभाव के स्पष्ट साक्ष्य मिलते हैं। जिसे भाषा का प्रथम पुरूष कहा जाता है वहीं से जाहिर है कि भाषा में प्रधान कौन है और गौण कौन है। बोलियों से भाषाएं बनी और बोलियां लोक की जाई थीं तो उन्होंने भाषा को अपना भेदभाव और असमानता का पाठ भी दिया और भेदभाव के क्रियान्वयन के लिए भाषा को एक हथियार की तरह भी बरता। भाषा के इस परिष्कार से भेदभाव और असमानता सतही तौर पर सुगढ़ दिखने लगी लेकिन जरा सा बोलियों की संरचना को उघाड़ा जाये तो उस संस्कृति का सारा सत्य सामने होता है जो अपनी पहचान के साथ अन्याय और संवेनहीनता को भी समेटे हुए है।
यहां देखना होगा कि देश, संस्कृति और भाषा सब अलग-अलग चीजें नहीं हैं। किसी भी देश की सभ्यता संस्कृति की श्रेष्ठता उसके सामाजिक न्याय पर निर्भर करती है और बोली भाषा उस संस्कृति के सामाजिक जीवन की दशा को चिन्हित करती है। वर्चस्व की सत्ता जिस तरह लैंगिक और जातीय आधार पर समाज में भेदभाव और अन्याय करती है उसके प्रभाव में भाषा में आ जाती है और जनमन में वो बोली भाषा एक पारम्परिकता की तरह बरती जाने लगती है लेकिन जब हम अर्वाचीन दृष्टि से भाषाओं को निरखते हैं तब प्राचीनता के मोह के कई बंध सहज ही टूट जाते हैं।