भारत एक विविध संस्कृतियों वाला देश है। हमारी बोली, भाषा, खान-पान, गीत-संगीत, धार्मिक प्रथाएं, पहनावा सभी एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न हैं। यही अंतर देश भर के नृत्य के रूपों में भी पाया जा सकता है। हमारे देश को शास्त्रीय नृत्यों के लिए जाना जाता है। इन्हीं में से एक है कथक। देश के कुल आठ शास्त्रीय नृत्य में कथक का एक विशेष स्थान है। ‘कथक’ शब्द की पैदाइश ‘कथा’ शब्द से हुई है। कथक की शुरुआत एक मौखिक परंपरा के रूप में हुई। भारत सरकार के वेबसाईट के अनुसार कथाकार या कहानी सुनाने वाले वे लोग होते थे जो अमूमन दंतकथाओं, पौराणिक कथाओं और महाकव्यों की उपकथाओं पर आधारित कहानियों का वर्णन करते थे। इस कहानी के रूप को ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए इसमें अभिनय, शृंगार और मुद्राएं जोड़ी गईं। इस तरह कथक के एक सरल रूप का विकास हुआ।
हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का मिसाल है कथक
ऐसा माना जाता है कि कथक भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में विकसित हुआ। अध्ययनों से पता चलता है कि कथक की उत्पत्ति वाराणसी में हुई और यह नृत्य शैली लखनऊ, जयपुर और उत्तर पश्चिम भारत के अन्य हिस्सों से होकर गुज़री। भारत में मुगल साम्राज्य की शुरुआत ने कथक नृत्य शैली को काफी प्रभावित किया और इसे एक नई दिशा मिली। मुग़ल सम्राट कथक नृत्य के संरक्षक थे और उन्होंने अपने शाही दरबारों में इस नृत्य शैली को सक्रिय रूप से जगह दी और बढ़ावा दिया। केवल कथक ही भारत का वह शास्त्रीय नृत्य है, जिसका संबंध हिन्दू और मुस्लिम दोनों संस्कृति से रहा है। यह कला हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदाय के एक संस्कृति के अनोखे मिश्रण को दिखाता है। इसके अलावा कथक शास्त्रीय नृत्य का एकमात्र वह रूप है, जो उत्तरी भारतीय संगीत से भी जुड़ा। मुगल संस्कृति से प्रभावित कथक नृत्य में आज भी मुगल काल में उभरा उर्दू ग़ज़ल और आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले वाद्ययंत्र इस्तेमाल किए जाते हैं। यह कथक को फ़ारसी तत्वों को खुद में जगह देने वाला एकमात्र भारतीय शास्त्रीय नृत्य बनाता है।
कथक को मुग़ल साम्राज्य में मिला बढ़ावा
ऐसा माना जाता है कि कथक का स्वर्ण काल मुगल वंश के तीसरे शासक अकबर के शासनकाल में था। अकबर के संरक्षण में, हिंदू और मुस्लिम परंपराओं की सबसे प्रभावशाली विशेषताओं का एकीकरण हुआ, जिससे एक समृद्ध इंडो-इस्लामिक कला और संस्कृति का जन्म हुआ। अकबर के बाद, उनके पुत्र जहाँगीर को भी कला के संरक्षण के लिए जाना गया। जहाँगीर के शासन काल में अन्य भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों के उलट, कथक का रूप विकसित हुआ। इसके बाद शाह जहाँ के शासन काल में भी कथक को बढ़ावा मिला। लेकिन शाह जहाँ के बाद, कथक और अन्य उत्तर भारतीय कला के रूपों के विकास और विस्तार में महत्वपूर्ण गिरावट आई। डॉन में छपी एक खबर में एशियाई देशों में संस्कृति, भूगोल, इतिहास, धर्म, शिल्प और रीति-रिवाजों की बेहतर समझ को बढ़ावा देने के लिए जाने जानी वाली संस्था एशियाई अध्ययन समूह के अध्यक्ष परवीन मलिक कहते हैं कि कथक वास्तव में धर्मनिरपेक्ष है, जिसमें मुगल दरबारों के वैभव, हिंदू मंदिरों के लोकाचार, फारसी कला रूपों के सौंदर्यशास्त्र और सूफीवाद के दर्शन के तत्व शामिल हैं।
कथक के सांस्कृतिक मूल्यों से तत्वों को नकारने और नृत्य के इतिहास के महत्वपूर्ण हिस्सों को पीछे छोड़ने से, कथक से जुड़े पेशेवरों को जानबूझ कर दूर किया गया। शायद इसलिए, कथक के नए चरित्र के निर्माण के बाद, जद्दनबाई जैसी कलाकारों का नाम सिर्फ इतिहास के पन्नों पर ही खोजने पड़ते हैं।
कथक से कैसे जुड़ गया विशेष जाति और धर्म
हमारे देश में कला के क्षेत्र में विविधता के साथ अगर कुछ उतने ही व्यापक रूप से मौजूद है, तो वह है जातिवाद, धर्म और संप्रदाय से जुड़ी भावना। भारत में मनोरंजन की दुनिया ने आम जनता को कथक का मतलब बहुत ही सीमित और रूढ़िवादी नजरिए से सिर्फ तवायफ़ों के जरिए बताया है। यहाँ भी तवायफ़ों के कथक में योगदान को कम, बल्कि उन्हें दोयम दर्जे की कोई महिला के रूप में दिखाया जाता रहा है। भारतीय समाज में कथक में बदलाव और इसका पतन ब्रिटिश साम्राज्य से शुरू हुआ। जिस नृत्य को विशेष रूप से नौच नर्तिकाओं और तवायफ़ों के माध्यम से जाना गया, उसे बाकायदा राष्ट्रवादी और ब्राह्मणवादी बनाने की कोशिश में यह एक धर्म और समुदाय तक सीमित हो गया। जहां कई लोक नृत्य किसी विशेष समुदाय से जोड़े जाते हैं, कथक शास्त्रीय नृत्यों में एकमात्र कला का वह रूप है जिसे धर्म से जोड़ा जाता है और कहीं न कहीं आज ऊंची जाति से भी जोड़ दिया गया है। आज देश में एक से बढ़कर एक कथक सिखाने के केंद्र हैं, जो समाज में सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के ही पहुँच में है।
आज कथित ‘राष्ट्रीय पहचान’ या ‘राष्ट्रीयता’ के साथ जुड़ाव के कारण, कथक सीखना एक कठिन काम हो गया है। आज इसमें भाषा, धर्म, जाति, सामाजिक शिष्टाचार, कपड़े, लैंगिक मानदंड, आर्थिक क्षमता और विभिन्न सामाजिक और संस्कृतिक मान्यताएं और प्रथाएं शामिल हो गई हैं जो नृत्य के सीखने-सिखाने के लक्ष्य को विफल करती है।
कैसे कथक को तवायफ़ों और मुस्लिम समुदाय से अलग किया गया
तवायफ़ की भूमिका के साथ नैतिकता का संबंध सीधे तौर पर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के प्रभाव से जुड़ा है। तवायफ़ों के धीरे-धीरे परिदृश्य से मिटने से, कथक का भी नाम उनसे अलग हो गया। आज़ादी की लड़ाई के वक्त आम लोगों के मन में शायद राष्ट्रवादी दृष्टिकोण तत्कालीन समय की मांग थी। इस दौरान कथक नृत्य में भी तवायफ़ों के योगदान को दरकिनार कर दिया गया। नृत्य के व्यापक इतिहास पर शोध से पता चलता है कि भारतीय स्वतंत्रता और उससे पहले के सालों से कथक के परंपरा का मौखिक प्रचार, हिंदू धर्म में कथक की भूमिका और स्थिति की एक विशिष्ट तस्वीर को चित्रित करने के लिए की गई। कथक के सांस्कृतिक मूल्यों से तत्वों को नकारने और नृत्य के इतिहास के महत्वपूर्ण हिस्सों को पीछे छोड़ने से, कथक से जुड़े पेशेवरों को जानबूझ कर दूर किया गया। शायद इसलिए, कथक के नए चरित्र के निर्माण के बाद, जद्दनबाई जैसी कलाकारों का नाम सिर्फ इतिहास के पन्नों पर ही खोजने पड़ते हैं।
राष्ट्रीय पहचान के प्रतीक के रूप में उभरा कथक
भारत की राष्ट्रीय प्रदर्शन कला एजेंसी, संगीत नाटक अकादमी के कथक के वर्गीकरण प्रक्रिया के माध्यम से, उस समय के सांस्कृतिक अभिजात वर्ग ने फैसला किया कि कथक और कुछ अन्य नृत्यों को औपनिवेशिक उत्पीड़न के बाद, भारतीय राष्ट्रीय पहचान के प्रतीक के रूप में चुना जाना चाहिए। भारतीय राष्ट्रवाद से यह जुड़ाव आज कथक को परिभाषित करता है और परेशान भी करता है। आज कथित ‘राष्ट्रीय पहचान’ या ‘राष्ट्रीयता’ के साथ जुड़ाव के कारण, कथक सीखना एक कठिन काम हो गया है। आज इसमें भाषा, धर्म, जाति, सामाजिक शिष्टाचार, कपड़े, लैंगिक मानदंड, आर्थिक क्षमता और विभिन्न सामाजिक और संस्कृतिक मान्यताएं और प्रथाएं शामिल हो गई हैं जो नृत्य के सीखने-सिखाने के लक्ष्य को विफल करती है। भले हमारे देश में जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए सरकार कोई ठोस कदम न लेती हो, लेकिन सामने से जातिगत भेदभाव को कोई समर्थन नहीं करता। आज भी यह समाज को अपने गिरफ्त में लिए हुए है। शास्त्रीय नृत्य भी इस प्रणाली से अछूता नहीं है।
कथक और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की पहुँच
कथक को राष्ट्रवाद से जोड़ने के कारण कहीं न कहीं लोगों के सामने यह अस्पष्ट है कि कैसे देश की धार्मिक प्रवृत्तियों और राजनीतिक बदलावों के साथ इसने अपने रूप को बदला है। आज दुनिया 20वीं सदी में कालका प्रसाद महाराज और उनके बेटे अच्छन, लच्छू और शंभू महाराज और पोते बिरजू महाराज को ही इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए जानते हैं। तब से आज तक कथक से मुस्लिम समुदाय और विशेषकर मुस्लिम महिलाओं का नाम कहीं खो चुका है। बदलते दौर में कथक के गलैमराईज़ेषण से आज शहरों या कस्बों में जो कथक ट्रेनिंग केंद्र चलते हैं, लगभग सभी में सिर्फ संभ्रांत परिवारों और ऊंची जातियों के बच्चे ट्रेनिंग लेते हैं। जरूरी है कि हम कला के इस रूप को सिर्फ कला के तौर पर देखें। किसी समुदाय, धर्म या जाति से जोड़ना किसी भी कला के विकास को रोकने और विकृत करने की कोशिश होगी।