आज धीरे-धीरे और टुकड़ों में ही सही, देश उस दौर तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है, जहां महिलाओं की पढ़ाई और नौकरी की बात हो रही है। समाज के आगे बढ़ने के लिए यह बहुत जरूरी है कि महिलाएं हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी निभाए। आज परंपरागत सामाजिक व्यवस्था से निकलते हुए वर्तमान परिदृश्य में लैंगिक समानता को कहीं अधिक व्यापक अर्थों में समझा रहा है। लेकिन चूंकि ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को हाशिये पर रखा जाता रहा है, सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी और अधिकारों की स्थिति को परखना बेहद ज़रूरी है।
महिलाओं के लिए बचपन से लेकर उनके युवावस्था तक पितृसत्तात्मक मानदंड इतने व्यापक हिते हैं कि जब वे पढ़-लिख कर नौकरी की तलाश में होती हैं, या नौकरी करती हैं, तो वे इनका प्रभाव अपने कामकाजी जीवन या कार्यस्थलों में भी अनुभव करती हैं। इस क्षेत्र में लैंगिक असमानता कई रूपों में दिखाई देती है जिसमें किसी कार्यस्थल के भीतर महिलाओं का पुरुषों की तुलना में कम प्रतिनिधित्व, वेतन और पदोन्नति में असमानता, यौन उत्पीड़न की घटनाएं, क्षमताओं को कम करके आंकना जैसी कई चुनौतियां शामिल हैं।
सामाजिक रूढ़ि से हो रहा है महिलाओं का नुकसान
किसी भी देश में महिलाओं की तरक्की विशेष रूप से उनके रोजगार के अवसर, चुनौतियां, आर्थिक स्वतंत्रता जैसे कारकों पर निर्भर करती है। आम तौर पर महिलाओं के परवरिश के दौरान परिवार से लेकर समाज उन्हें बताता रहता है कि वे कुछ निश्चित भूमिकाओं के लिए सही नहीं या नहीं कर पाएंगी। इसका अक्सर उनकी शिक्षा या काबिल होने से मतलब नहीं होता। भले आज महिलाएं नौकरी करने लगी हों, लेकिन उनके नौकरी ढूंढने से लेकर चुनौतियां और अनुभव सब बहुत अलग है। हार्वर्ड बिजनेस पब्लिशिंग में हेवलेट पैकर्ड के एक शोध आधारित रिपोर्ट अनुसार पुरुष अक्सर किसी पद के लिए तब भी आवेदन करते हैं जब वे केवल 60 फीसद आवश्यकताओं को पूरा करते हों।
इसके उलट, रिपोर्ट में पाया गया कि नौकरी के मामले में महिलाएं अधिक चयनात्मक होती हैं। वे कुछ ज्यादा सजग होती हैं। इसके कारण वे उन पदों पर आवेदन करती हैं जहां वे आवश्यकताओं के अनुसार 100 फीसद फिट करती हैं। दोनों प्रतिभागियों से इस सवाल पर कि क्यों उन्होंने ऐसा किया, पुरुषों के मुकाबले अधिक महिलाओं का इसके पीछे मुख्य कारण कि चूंकि वे योग्यताएं पूरी नहीं करती थीं, उन्हें असफल होने की संभावना थी।
लैंगिक पूर्वाग्रह आधारित महिलाओं के लिए नौकरी
अक्सर समाज में मौजूद रूढ़ियों के कारण महिलाओं के मामले में उनके पद से जुड़े रोज़मर्रा के कार्यों को संभालने या ज़िम्मेदारी लेने की क्षमताओं को कम मूल्यवान समझा जाता है। ऐसे में पुरुषों के काम को ही नहीं, उनके प्रदर्शन को भी बेहतर समझा जाता है। उनके नौकरी में बेहतर प्रदर्शन क्षमता का दावा किया जाता है। महिलाओं को सौंपे जाने वाले पद से जुड़ी ज़िम्मेदारियों और क्षमताओं को महत्वहीन समझते हुए महिला और पुरुषों के बीच एक अस्वस्थ प्रतियोगिता और असंतुलन को जन्म दिया जाता है। हालांकि आजकल महिलाएं सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए विभिन्न पेशे में अपनी पहचान और क्षमताएं दर्ज करते हुए और तमाम बंदिशों को तोड़ रही हैं। वे मेकैनिक से लेकर टैक्सी ड्राइवर तक, खाना पहुंचाने से लेकर डिलीवरी सेवाएं से लेकर सीईओ तक की नौकरी कर रही है। लेकिन इसके बावजूद, हम अपने आस-पास कई ऐसे विज्ञापन देखते हैं जिनमें किसी ‘फील्ड वर्क’ से जुड़ी प्रोफाइलों में ज़्यादातर पुरुष उम्मीदवारों की मांग की जाती है।
महिलाओं के रोजगार में लैंगिक पूर्वाग्रह की भूमिका
हार्वर्ड कैनेडी स्कूल का विकसित जेन्डर एक्शन पोर्टल के एक अध्ययन से पता चलता है कि पुरुष नौकरी के विवरण के शब्दों से कम प्रभावित होते हैं। उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि यह पुल्लिंग है या स्त्रीलिंग-कोडित है। इसके उलट, महिलाएं कुछ शब्दों को बहुत अलग ढंग से समझती हैं। वे पुरुषवादी शब्द जैसे ‘मुखर’, ‘व्यक्तिगत’, ‘श्रेष्ठ’ या ‘आक्रामक’ के प्रति कम रुझान महसूस करती हैं। सामान्य तौर पर, महिलाएं उन नौकरी के विज्ञापनों पर अधिक प्रतिक्रिया दिखाती हैं, जिनमें ‘जिम्मेदार’, ‘मिलनसार’, ‘समर्पित’ या ‘सहयोग’ जैसे शब्दों का उपयोग किया जाता है। यह सच है कि लैंगिक भेदभाव कई तरह से होता है जिनमें भाषा एक अहम भूमिका निभाती है। नौकरी के पोस्टिंग पर महिलाओं की प्रतिक्रिया दर बढ़ाने और भागीदारी को बढ़ाने के लिए, समावेशी भाषा और जेंडर न्यूट्रल शब्दों के इस्तेमाल कर संतुलित रूप में विज्ञापन दिए जाने की जरूरत है।
परिवार का पितृसत्तात्मक नज़रिया है बाधा
महिलाओं के जीवन में तमाम सामाजिक, नैतिक, जैविक और शैक्षिक बाधाएं हमेशा से ही मौजूद रहे हैं। नौकरी से जुड़े महिलाओं के फैसलों में परिवार का पितृसत्तात्मक नज़रिया और दखल अभी भी एक बाधा है। तमाम आंकड़ों के मुताबिक कोरोना महामारी के दौरान महिलाओं ने ज्यादा नौकरियां खोई और नौकरी में पुरुषों के तुलना में कम लौटीं। घरेलू भूमिकाओं को निभाते हुए पारिवारिक दबाव से, शादी के बाद घर संभालने और बच्चे की ज़िम्मेदारी की वजह से, उन्हें अक्सर अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है।
भेदभाव का सामना करती कामकाजी महिलाएं
अक्सर इंटरव्यू में बातचीत के कई दौर के बाद सैलरी नेगोसिएशन के समय ज़्यादातर महिलाएं कंपनी का कभी ‘सीवी में दिए अनुभव के आधार पर’ या कभी ‘पद के लिए अनुकूल न होने पर, फिर भी उन्हें रखा जा रहा है’, जैसे नेरेटिव का सामना करती हैं। ऐसे नेरेटिव का पुरूष कम ही सामना करते हैं क्योंकि नौकरी तलाशने में उन्हें कंपनी या संगठन से लिंग के आधार पर पहली प्राथमिकता मिलती है। यहां वे अक्सर सैलरी और अन्य सुविधाओं के संबंध में तोल-मोल करने में सफल रहते हैं। वहीं कई महिलाएं इस भावना से ग्रस्त होती हैं कि कपंनी उन्हें ले रही है यही काफी है। डर इस बात का बना रहता है कि नौकरी ढूंढ़ने में फिर से तमाम तरह की कठनाईयों से गुज़रना पड़ेगा।
अच्छे रोजगार में महिलाओं की चुनौतियां
पार्ट टाइम काम करने वाली महिलाओं की स्थिति और भी ख़राब है। 26 वर्षीय सांची इवेंट मैनेजमेंट में वालंटियर के तौर पर काम करती हैं। इवेंट मैनेजमेंट की कंपनी उन्हें किसी शादी या अन्य आयोजन में एक या दो दिन के पहले से तय पारिश्रमिक पर रखती है। वह बताती हैं, “कई बार इवेंट खत्म होने के बाद जब दिनों के अनुसार पारिश्रमिक देने की बात आती है, तो मुझे कई बार निर्धारित पारिश्रमिक से कम दिया जाता है। अपनी मेहनत से कमाई जाने वाली पेमेंट लेने के लिए पूरे दिन में किए गए हर एक काम को डिटेल में मैनेजमेंट को लगातार बता-बताकर संघर्ष करना पड़ता है।” ऐसी परिस्थितियों में महिला उम्मीदवार सैलरी ही नहीं बल्कि सौंपे जाने वाले कार्यों, प्रमोशन के अवसर और संसाधन आदि से जुड़ी ज़रूरी बातचीत में भी नेगोसिएशन की पहल नहीं कर पाती हैं। पितृसत्तात्मकता प्रक्रियाओं से गुज़रते हुए वे अक्सर अपने जैसी ही भूमिका पर बने रहने वाले पुरुषों की तुलना में कम कमाना चुनती हैं। वे योग्य होते हुए भी कम सैलरी और कम सुविधाओं में नौकरी करना चुनती हैं।
“कई बार इवेंट खत्म होने के बाद जब दिनों के अनुसार पारिश्रमिक देने की बात आती है, तो मुझे कई बार निर्धारित पारिश्रमिक से कम दिया जाता है। अपनी मेहनत से कमाई जाने वाली पेमेंट लेने के लिए पूरे दिन में किए गए हर एक काम को डिटेल में मैनेजमेंट को लगातार बता-बताकर संघर्ष करना पड़ता है।”
लैंगिक-संतुलन की पहल जरूरी
भारत में कई कंपनियां विशेषकर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां या एमएनसी विविधता, समता और समावेशिता का दावा करती है। इस विषय पर गुड़गांव की एमएनसी में सात साल से काम कर रही जॉली बताती हैं, “हमारे वर्क कल्चर में विविधता को गंभीरता से लिया जाता है। जैसे, लड़कों की तुलना में लड़कियों का अनुपात बेहद कम है, तो गाइडलाइन्स के अनुसार अगली नियुक्ति में महिलाओं की भर्ती को प्राथमिकता दिया जाता है। महिलाओं को कॉर्पोरेट जगत में आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करने के लिए ऐसे कदम जरूरी है। जिस कंपनी में मैं अभी काम कर रही हूं, वहां लगभग उसी देश के नियम और मानकों का पालन किया जाता है जहां वह मूल रूप से स्थापित है।”
आज महिलाओं की प्रगति में बाधाएं उत्पन्न करने वाले लिंग आधारित पूर्वाग्रहों और व्यवहारों से निपटने के लिए परंपरागत कार्यस्थलों में समान लैंगिक अवसर और संवेदनशीलता से जुड़ी नीतियों को स्थान देने पर अधिक बल दिया जाना ज़रूरी है। जरूरी है कि महिलाएं नौकरी खोजने के प्रयास में आत्मविश्वास की कमी, दबाव या तनाव का बोध न करे और कामकाजी परिस्थितियों में भी अपनी क्षमताओं और प्रतिनिधित्व को मजबूती से अभिव्यक्त कर सकें।