समाजकार्यस्थल क्यों कामकाजी महिलाओं के लिए अपना दृष्टिकोण बताना भी चुनौती है?

क्यों कामकाजी महिलाओं के लिए अपना दृष्टिकोण बताना भी चुनौती है?

अक्सर महिलाओं को हर चीज़ के लिए कार्यस्थल पर पुरुषों की तुलना में अधिक आलोचना सुननी पड़ती है। इसमें बोलने के तरीके से लेकर कपड़े पहनने के तरीके और उठने-बैठने के तरीके तक शामिल हैं। ऐसे में संवाद महिलाओं के लिए महज बातचीत नहीं, सोची-समझी नीति बन जाती है, जिसे उसे सोच-समझकर लागू करना होगा।

हर व्यक्ति के लिए संचार एक से दूसरे व्यक्ति तक कोई सूचना, लोगों से या खुद से जुड़ी सामान्य समझ को पहुंचाने का माध्यम है। स्वस्थ बातचीत दो या दो से अधिक लोगों के बीच तालमेल बैठाने में महत्वपूर्ण है। लेकिन यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब हम किसी कामकाज से जुड़े लोगों के बीच हो। संस्थाओं में गुणवत्तापूर्ण कामकाजी संबंध स्थापित करने और बनाए रखने के लिए दफ्तरों या काम के जगह में संचार महत्वपूर्ण है। इस सच्चाई को ध्यान में रखते हुए कि एक संगठन में विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यावसायिक पृष्ठभूमि से जुड़े लोग समान लक्ष्यों के लिए काम करने एक साथ आते हैं, कार्यस्थल में संचार और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

कई बार यह देखा जाता है कि नियोक्ता कार्यस्थल पर संचार के महत्व को नहीं समझते हैं और अपने विचारों, संगठन के लक्ष्यों या दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं करते हैं। जब किसी संस्थान में नियोक्ता खुले और स्पष्ट संचार को बढ़ावा देने वाला वातावरण बनाने में असमर्थ होते हैं, तो इसका कामकाज के संस्कृति, माहौल और काम करने वालों के उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। पर बात जब संवाद की होती है, तो समाज में अक्सर महिलाओं और पुरुषों के संवाद में अंतर पाया जाता है। यह न सिर्फ भाषागत अंतर होता है, बल्कि भाव-भंगिमा और तरीका भी अलग होता है।

कामकाजी जगह पर अमूमन महिलाओं को किसी के अधीन भूमिकाओं पर काम करने को कहा जाता है। उनकी आवाज़ और दृष्टिकोण को भी अक्सर खारिज किया जाता है या अनदेखा किया जाता है। इसलिए, कई बार भले ही वे ऊंचे पदों पर हों, उनकी बात उनके समकक्ष सुने या महत्व दे, यह कठिन होता है।

संवाद में लैंगिक भिन्नता को स्वीकारने की जरूरत

हमारे समाज में एक आम रूढ़ि है कि महिलाएं प्राकृतिक तौर पर कॉम्युनिकेटर यानि संचारक होती हैं। हालांकि ऐसे रूढ़ियों के अंतर्गत उन्हें कामकाजी दुनिया के पदानुक्रम में निचले स्थान की नौकरियों जैसे फ्रन्ट डेस्क और रीसेप्शनिस्ट के लिए महत्व दिया जाता है। लेकिन इस अवधारणा के बावजूद, कई बार उन्हें कार्यस्थल पर अपनी बात रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कामकाज के क्षेत्र में महिलाओं के विकास के लिए प्रभावी संचार आवश्यक कारक है। यह उन्हें अपने लिए खड़े होने, सीमाएं निर्धारित करने और प्रभावी ढंग से बातचीत करने में मदद करता है। लेकिन महिलाओं को ऐतिहासिक तौर पर सामाजिक, राजनीतिक और व्यावसायिक चर्चाओं से दूर रखा गया है। इस बहिष्कार का एक कारण समाज में मौजूद लैंगिक असमानताएं हैं, जिससे कामकाजी जगहें अछूता नहीं। सामाजिक मानदंडों, अलग-अलग रूढ़ियों और परवरिश में भिन्नता के कारण, महिलाओं और पुरुषों के संवाद में भिन्नता होना स्वाभाविक है। लेकिन कामकाजी जगह पर अमूमन महिलाओं को किसी के अधीन भूमिकाओं पर काम करने को कहा जाता है। उनकी आवाज़ और दृष्टिकोण को भी अक्सर खारिज किया जाता है या अनदेखा किया जाता है। इसलिए, कई बार भले ही वे ऊंचे पदों पर हों, उनकी बात उनके समकक्ष सुने या महत्व दे, यह कठिन होता है।

अक्सर महिलाओं को हर चीज़ के लिए कार्यस्थल पर पुरुषों की तुलना में अधिक आलोचना सुननी पड़ती है। इसमें बोलने के तरीके से लेकर कपड़े पहनने के तरीके और उठने-बैठने के तरीके तक शामिल हैं। ऐसे में संवाद महिलाओं के लिए महज बातचीत नहीं, सोची-समझी नीति बन जाती है, जिसे उसे सोच-समझकर लागू करना होगा।

तस्वीर साभार: Medium

क्या सचमुच महिलाओं की संचार आदतें अप्रभावी है          

चाहे संवाद के शब्दों में अंतर हो, आवाज़ या लहजे में, भावनात्मक अभिव्यक्ति में, या शारीरिक भाव-भंगिमा में, जिस तरह से पुरुष और महिलाएं संवाद करते हैं, उसके कारण यह हमें एक-दूसरे से अलग बनाती हैं। आम तौर पर यह माना जाता है कि महिलाएं ज्यादा अप्रत्यक्ष, विस्तार से और भावनात्मक तरीके से संवाद करती हैं, जो लोगों को अनिश्चितता और अधिकार की कमी लग सकती है। वहीं पुरुषों की संचार शैली को प्रत्यक्ष और संक्षिप्त माना जाता है। हमारी सामाजिक कन्डिशनिंग के कारण ऐसा लग सकता है कि महिलाओं की संचार शैली कमजोर है। यह कहा जा सकता है कि महिलाएं कार्यस्थल या आम तौर पर तालमेल स्थापित करने में ज्यादा सक्षम हैं, जो सहानुभूति और दूसरों से जुड़ने की उनकी क्षमता के कारण, प्रतिक्रिया को प्रोत्साहित करती है। वहीं पुरुषों की बातचीत आम तौर पर उनकी अपनी स्वतंत्रता पर केंद्रित होती है।

इस महत्वपूर्ण अंतर के कारण कई बार महिलाओं की बातों को कार्यस्थल पर जरूरी समझा ही नहीं जाता। अमूमन भावनात्मक बातों को लेकर उनके पीरियड्स और मूड स्विंग्स से जोड़ दिया जाता है। इन अंतर के कारण कार्यस्थल पर एक हद तक यह निर्धारित हो जाता है कि कामकाजी जगह में किसकी कितनी तरक्की होगी, किसकी सुनी जाएगी और लोग ऊंचे पदों पर बैठे लोगों की कैसी अवधारणा करेंगे। अक्सर ऊंचे पदों पर बैठे लोग अपनी सामाजिक कन्डिशनिंग के कारण ‘आत्मविश्वासी व्यक्ति’, ‘अच्छा लीडर’, या ‘अच्छा कर्मचारी’ की एक निश्चित अवधारणा को लिए चलते हैं। ऐसे में अगर उस छवि से भिन्न लोग अपनी जगह या पहचान बनाने की कोशिश करें, तो यह अधिक चुनौतीपूर्ण और मुश्किल होता है।

जब महिलाएं नेतृत्व करती हैं, तो उनके व्यवहार को बताने के लिए ‘दबंग’, ‘सख्त’ और ‘आक्रामक’ जैसे शब्दों का उपयोग किया जाता है। जब वे आपत्ति जताती हैं, तो ‘भावनात्मक’ और ‘तर्कहीन’ जैसे शब्द उनके व्यवहार के वर्णन के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

क्यों महिलाओं को काम के आधार पर नहीं देखा जाता

टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर मुताबिक कार्यस्थल पर महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक उत्पादक होती हैं। लेकिन लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव ने सदियों से महिलाओं को कार्यस्थल पर पीछे रखा है। समाज के बुनियादी ढांचे और पितृसत्तात्मक नियमों के तहत, देश में बिजनस करना, नौकरी में घुसना, ऊंचे पद तक पहुंचने जैसी लगभग सभी चीज़ें महिलाओं के लिए पुरुषों के मुकाबले ज्यादा मुश्किल है। इसकी वजह सिर्फ सामाजिक नहीं, बल्कि पारिवारिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक भी है। जब महिलाएं नेतृत्व करती हैं, तो उनके व्यवहार को बताने के लिए ‘दबंग’, ‘सख्त’ और ‘आक्रामक’ जैसे शब्दों का उपयोग किया जाता है। जब वे आपत्ति जताती हैं, तो ‘भावनात्मक’ और ‘तर्कहीन’ जैसे शब्द उनके व्यवहार के वर्णन के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

अमेरिकी वैश्विक व्यापार पत्रिका फॉर्च्यून की एक रिपोर्ट बताती है कि पुरुषों की तुलना में, महिलाओं को उनके काम की गुणवत्ता के बजाय उनके व्यक्तित्व के आधार पर आंका जाता है। अक्सर महिलाओं को हर चीज़ के लिए कार्यस्थल पर पुरुषों की तुलना में अधिक आलोचना सुननी पड़ती है। इसमें बोलने के तरीके से लेकर कपड़े पहनने के तरीके और उठने-बैठने के तरीके तक शामिल हैं। ऐसे में संवाद महिलाओं के लिए महज बातचीत नहीं, नीति बन जाती है, जिसे उसे सोच-समझकर लागू करना होगा। भागते-दौड़ते जीवन और चरम प्रतियोगिता में इन बातों पर अमल करना, न सिर्फ चुनौतीपूर्ण है बल्कि यह काम को भी प्रभावित कर सकता है।  

प्रभावी संवाद के बीच पहनावे की बात

धीरे-धीरे ही सही, पर आज कई महिलाएं समाज के नियमों के अनुसार तय किए गए भूमिकाओं से बाहर नौकरियां कर रही हैं। लेकिन मल्टी नैशनल कंपनियों में न सिर्फ अंग्रेजी बल्कि बड़े शहरों और विशेष जाति या धर्म को भी अहमियत दी जाती है। भले चुनिंदा महिलाओं के लिए शहरों में रहकर पढ़ाई और नौकरी आसान हो, पर हजारों महत्वाकांक्षी महिलाएं ऐसा नहीं कर पाती। आज भी अलग-अलग नौकरियों में महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे एक निश्चित तौर-तरीके और पहनावे को अपनाएगी या एक निश्चित रूप में दिखनी चाहिए। ऐसे में महिलाएं प्रभावी रूप से संवाद में सक्षम हो, तो भी उसे नकारा जाता है। सीधे तौर पर महिलाओं के गुणों के कारण नहीं, बल्कि बाहरी कारकों को बढ़ावा दिया जाता है। महिलाओं के लिए महज प्रभावी संवाद के माध्यम से ऐसी जगहों पर आगे बढ़ना चुनौतीपूर्ण है।

इस संदर्भ में एयर होस्टेस की ट्रेनिंग दे रहे हजारों संस्थान उदाहरण है। अमूमन ऐसे संस्थानों में महिलाओं को कौन से कपड़े पहनने हैं या किस तरह पहनने हैं, इसकी ट्रेनिंग भी दी जाती है। फ्रैंकफिन इंस्टीट्यूट ऑफ एयर होस्टेस ट्रेनिंग में ट्रेनिंग कर रही ईशा (नाम बदला हुआ) और उसकी सहेली बताती है, “हमें हफ्ते में कम से कम तीन या चार दिन साड़ी पहनकर क्लास जाना होता है। अगर ऐसा न करें तो हमारे अंक कम आएंगे।” अलग-अलग कार्यस्थल पर संचार में लैंगिक अंतर पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार सभी कर्मचारियों में युवा और उम्रदार महिलाएं पुरुष समकक्षों की तुलना में कम संचार करती हुई पाई गई। अध्ययन के अनुसार इसके पीछे एक कारण यह भी है कि कम उम्र की लड़कियां कार्यस्थल पर शर्म दिखाती हैं और रोजगार के अंत तक परिवार का बोझ उठाती महिलाओं को संकोच संवाद करने से रोकता है। हालांकि शोध के अनुसार 31 से 40 वर्ष से कम आयु की महिलाएं अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में काफी बेहतर संगठनात्मक संचार की।

अमेरिकी केबल व्यवसाय समाचार चैनल और वेबसाइट सीएनबीसी में छपी एक खबर बताती है कि महिलाओं को ऐसे पूर्वाग्रह काम पर तरक्की करने से रोकता है, जिनके नियंत्रण उनके हाथ में नहीं। इनमें संचार का तरीका और लहजा भी शामिल है। जिस समाज में लैंगिक असमानताओं के कारण महिलाओं और पुरुषों की भूमिका पहले से ही तय कर दिए गए हो, वहां न सिर्फ महिलाओं का कार्यस्थल पर प्रभावी रूप से संचार करना एक चुनौती है, बल्कि उन बाधाओं से निकलना मुश्किल है। इसलिए, कार्यस्थल पर सही मायने में लैंगिक समानता को बढ़ावा देना हो, तो रूढ़ियों को छोड़ समावेशी नजरिए को चुनना होगा।      

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