भारत में अक्सर लड़कों के लिए सपने देखे जाते हैं कि वे आईएएस या आईपीएस अधिकारी बनें। लेकिन साथ ही, इस विषय पर यह भी कहा जाता है कि यह बहुत कठिन है। बदलते समय में आज महिलाएं भी आईपीएस और आईएएस अधिकारी बन रही हैं। लेकिन जो पेशा आज हमें इतना स्वाभाविक और सामान्य लग रहा है, उससे महिलाएं एक समय पर कोसों दूर थी। इसलिए, कई भारतीय महिलाओं के लिए, विशेष रूप से उन लोगों के लिए, जिन्होंने भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) में सेवा की है, या सेवारत हैं, चोनिरा बेलियप्पा मुथम्मा एक मिसाल और प्रेरणा हैं। प्यार से ‘मुथु’ कहलाई जाने वाली चोनिरा बेलियप्पा मुथम्मा भारतीय सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली पहली महिला थीं। वह भारतीय विदेश सेवा में शामिल होने वाली पहली महिला और पहली भारतीय महिला राजनयिक यानि डिप्लोमैट भी थीं। अपने जीवन काल में वह बाद में पहली भारतीय महिला राजदूत भी बनीं।
चोनिरा बेलियप्पा मुथम्मा का जन्म 24 जनवरी 1924 को कोडागु जिले के विराजपेट में हुआ था। मुथम्मा स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बड़ी हुईं, जब भारतीय महिलाओं की हर मायने में मुक्ति और तरक्की की बात को आगे रखा जा रहा था। नौ साल छोटी उम्र में उन्होंने अपने वन अधिकारी पिता को खो दिया। मुथम्मा को उनकी विधवा मां ने बहुत समर्थन और प्रोत्साहन दिया, जिन्होंने जबरदस्त सामाजिक बाधाओं, पूर्वाग्रह और पितृसत्तात्मक मानदंडों के बावजूद, मुथम्मा सहित अपनी तीन बेटियों को शिक्षित किया। मुथम्मा ने अपनी स्कूली शिक्षा मदिकेरी के सेंट जोसेफ गर्ल्स स्कूल में पूरी की। उन्होंने महिला क्रिश्चियन कॉलेज, चेन्नई से तीन स्वर्ण पदक के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर ऑफ आर्ट्स की डिग्री भी हासिल की।
मुथम्मा के कामकाजी जीवन की शुरुआत
मुथम्मा साल 1948 में यूपीएससी परीक्षा उत्तीर्ण करके भारतीय सिविल सेवा में शामिल होने वाली पहली महिला बनीं। उस वर्ष वह भारतीय विदेश सेवा के लिए आवेदन करने वाले उम्मीदवारों की सूची में शीर्ष पर रहीं और साल 1949 में सेवा में शामिल हुईं। मुथम्मा को पहली बार पेरिस स्थित भारतीय दूतावास में तैनात किया गया था। वह लंदन के रंगून में एक डिप्लोमैट के तौर पर गईं और नई दिल्ली में विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान और अमेरिका डेस्क पर भी काम करती रहीं। उन्हें 1970 में हंगरी में भारत का राजदूत नियुक्त किया गया था। इस प्रकार वह सेवा के भीतर राजदूत नियुक्त होने वाली पहली महिला बनीं। बाद में, उन्होंने घाना के अकरा में राजदूत के रूप में कार्य किया। इसके बाद उन्होंने नीदरलैंड के हेग में भारतीय राजदूत बनकर सेवा भी की।
जीवन में लैंगिक समानता के लिए करती रही संघर्ष
कामकाजी जीवन के शुरुआत से ही मुथम्मा को लैंगिक समानता के लिए संघर्ष करना पड़ा। वह अपनी पसंद का क्षेत्र जोकि विदेश सेवा थी, पाने के लिए दृढ़ थी। लेकिन उनके साक्षात्कार लेने वाले यूपीएससी बोर्ड के सदस्यों ने, उन्हें इस सेवा में शामिल होने से कथित रूप से खराब अंक देकर निराश करने की कोशिश की। लेकिन इसके बावजूद, उन्होंने विदेश सेवा सूची में शीर्ष स्थान हासिल किया और 1949 में पहली महिला आईएफएस अधिकारी बनीं। लेकिन सेवा में लैंगिक असमानता तब भी खत्म नहीं हुआ था। जब मुथम्मा ने सेवा में प्रवेश किया, तो उनसे एक शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करवाया गया कि शादी होने के बाद वह अपनी नौकरी से इस्तीफा दे देंगी। भारत की पहली महिला डिप्लोमैट मुथम्मा में बहुत साहस था और उनकी लैंगिक असमानता को सहन न करने के प्रण के कारण वह आगे बढ़ती गईं। कई राजदूतों ने अपने मिशनों में उन्हें बतौर राजदूत अस्वीकार कर दिया। उन्होंने यह भी बताया कि किसी महिला को स्टेशन पर भेजना उचित क्यों नहीं था। आखिर में उन्हें पेरिस में भारतीय दूतावास के रूप में स्वीकार कर लिया गया। यहां आकर मुथम्मा को एहसास हुआ कि अन्य दूतावासों में भारतीय डिप्लोमैट और उनके साथियों को एक महिला सहकर्मी से समस्या थी।
मुथम्मा ने सरकार के सामने याचिका दायर की
मुथम्मा का लैंगिक पूर्वाग्रह और असमानताओं के कारण संघर्ष का सिलसिला इसके बाद भी चलता रहा। साल 1979 में, जब मुथम्मा को ‘योग्यता’ के आधार पर सेवा के ग्रेड 1 में पदोन्नति नहीं दिया गया, तो उन्हें विदेश मंत्रालय को अदालत में ले जाना पड़ा। उन्होंने कैबिनेट की नियुक्ति समिति (एसीसी) और विदेश मंत्रालय के खिलाफ एक याचिका दायर की। उन्होंने सरकार के सामने याचिका दायर की और बताया कि चूंकि वह एक महिला थीं, पदोन्नति में उनकी अनदेखी की गई। हालांकि मंत्रालय ने इस उम्मीद में कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को खारिज कर देगा, उन्हें तुरंत पदोन्नत किया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के बाद ही मामले को खारिज किया कि याचिकाकर्ता के उठाए गए मुद्दों को खारिज नहीं किया जा सकता है। उन्होंने याचिका के माध्यम से यह भी कहा कि आज भी सेवा में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव की परंपरा जारी है। विदेश सेवा में शामिल होने के बाद शादी करने पर इस्तीफा देने की बात भी भेदभावपूर्ण थी, जिससे नियुक्ति समिति के सभी सदस्य सहमत थे।
जब अदालत ने मुथम्मा के समर्थन में दिया ऐतिहासिक फैसला
भारतीय संविधान के अनुसार ये बातें भेदभावपूर्ण थीं। मुथम्मा ने यह भी कहा कि ऐसी कोई नियम नहीं होनी चाहिए, जहाँ किसी भी विवाहित महिला को सेवा में घुसने के बाद, शादी करने के लिए लिखित अनुमति लेनी पड़े। साथ ही, अगर सरकार यह निर्णय लेती है कि उसकी वैवाहिक प्रतिबद्धताएं उसके काम में बाधा है, तो उसे इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जाए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि ये नियम असंवैधानिक हैं। उन्होंने बताया कि कुछ जूनियर अधिकारियों को पदोन्नति दी गई, जिससे उनके करियर पर असर पड़ा। साल 1979 में न्यायमूर्ति वी.आर. की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पीठ ने एक ऐतिहासिक फैसले में उनके मामले को बरकरार रखा। मुथम्मा के मामले में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर के फैसले ने विदेश सेवा को ‘महिला द्वेषी’ बताया।
सिविल सेवा में भेदभाव को उजागर करती मुथम्मा
सेवाओं में लैंगिक भेदभाव के मौजूदगी को दिखाने के लिए, अय्यर ने भारतीय विदेश सेवा (आचरण और अनुशासन) नियमों के नियम 8 (2) का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि सेवा की एक महिला सदस्य को अपनी शादी संपन्न होने से पहले लिखित रूप में सरकार की अनुमति प्राप्त करनी होगी। शादी के बाद किसी भी समय, सेवा की एक महिला सदस्य को सेवा से इस्तीफा देने की आवश्यकता हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने यह सुनिश्चित किया कि आगे से आईएफएस में महिला अधिकारियों के लिए शादी करने के लिए सरकार की अनुमति लेना अनिवार्य नहीं होगा। कृष्णा अय्यर ने इस बात पर जोर दिया कि सिस्टम से लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए किसी रिट याचिका के इंतज़ार करने के बजाय, सभी सेवा नियमों में पड़ताल और बदलाव की आवश्यकता है। इसके बाद आखिरकार जुलाई 1980 में उन्हें ग्रेड 1 में पदोन्नत किया गया।
सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन
अपनी सेवानिवृत्ति के बाद भी, वह सक्रिय रहीं और एक निपुण लेखिका थीं। उन्होंने ‘द एसेंशियल कोडवा कुकबुक और ‘स्लेन बाय द सिस्टम: इंडियाज रियल क्राइसिस’ लिखीं। मुथम्मा सही मायने में अग्रणी थीं, जो समाज के भेदभाव खिलाफ लड़ती रहीं। उन्होंने समाज की पितृसत्तात्मक सोच के सामने हार नहीं मानी। उनका संघर्ष हमें समाज के पितृसत्तात्मक मानदंडों के खिलाफ मजबूत होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाता है। मुथम्मा को भारतीय सिविल सेवाओं में लैंगिक समानता के लिए उनके सफल अभियान के लिए हमेशा याद रखा जाएगा।