पिछले दिनों प्रौद्योगिकी के जरिए घर पर विभिन्न प्रकार की सेवाएं प्रदान करने वाली संस्था अर्बन कंपनी ने एक विज्ञापन जारी की। कंपनी ने विज्ञापन के माध्यम से दावा किया कि कोई भी काम छोटा नहीं है। बस काम मेहनत से करनी चाहिए। इस विज्ञापन में एक व्यक्ति को बाथरूम साफ करते हुए दिखाया जा रहा था। इस विज्ञापन में घर का बच्चा बताता है कि कैसे उसके स्कूल में शिक्षक ने कहा था कि यदि तुम अच्छी तरह से पढ़ाई नहीं करते हो, तो तुम्हें बड़े होने पर टॉइलेट साफ़ करने वाला बनना होगा। इसके प्रतिक्रिया में अर्बन कंपनी का कर्मचारी बच्चे के बयान में छिपी जातिवादी सोच को लापरवाही से नजरअंदाज करता है। साथ ही, वह किसी भी काम में परिश्रम के महत्व पर ध्यान देने को कहता है।
इस बात को स्थापित करने के लिए कंपनी आखिर में बताती है कि कोई भी काम ‘छोटा’ या ‘बड़ा’ नहीं होता। किसी भी काम को बड़ा, छोटा या मीडियम ‘सोच’ बनाती है। अर्बन कंपनी बड़े आराम से मामले की गहराई को नजरंदाज करते हैं। यह सिर्फ समस्या के सतह तक जाना है जोकि समस्या के जड़ तक जाना ही नहीं चाहता। सीधे तौर पर कंपनी देश में जाति-आधारित श्रमबल में भेदभाव और उसकी कठोर वास्तविकताओं को नजरअंदाज करती है। हमारे देश में, दलित, बहुजन या आदिवासी समुदायों को ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रखा गया है। जाति व्यवस्था आधारित श्रम विभाजन कोई मिथक नहीं, सच्चाई है जो आज तक चली आ रही है।
यह और भी बड़ी समस्या तब हो जाती है, जब अर्बन कंपनी जैसी कंपनियां, जो गिग श्रमिकों के शोषण, उन्हें कम वेतन देने और उचित वेतन की मांग करने पर, श्रमिकों को बेरहमी से निकाल देने के लिए जानी जाती हैं, ऐसे विज्ञापनों के माध्यम से खुद को उदार, श्रमिकों का हित चाहने वाली और समावेशी कंपनी बताती है। आज सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में रोजगार और दैनिक मजदूरी के मामले में; श्रम बाजार में जातिगत भेदभाव की मौजूदगी एक ऐसी चीज है; जिसे नजरन्दाज़ नहीं किया जा सकता। अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार पूरे भारत में किसी व्यक्ति के रोजगार के प्रकार और उसकी कमाई में सामाजिक पहचान महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
समुदायों का काम और जाति के आधार पर भेदभाव
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया भर में 260 मिलियन से अधिक लोगों के साथ काम और जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता है या उन्हें जाति-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ये समुदाय राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास के मामले में सबसे अधिक हाशिये पर हैं और बहिष्कृत हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में काम यानि श्रम बाजार को हमेशा से जाति के आधार पर बांटा गया है। इस बात की गहराई कितनी है, यह आप शमशान घाटों पर जाते ही समझ जाएंगे। यहां आम तौर पर सारे विधि, पूजा-पाठ पंडित करवाते हैं, जो कथित रूप से ऊंची जाति से होते हैं। वहीं मृत शरीर को उठाना, उन्हें साफ-सफाई करने की जिम्मेदारी दलित या महादलित श्रमिक करते हैं। एक छोटे से जगह में जातिगत रूप से बंटे इस कामकाज में, इन दोनों प्रकार के कर्मचारियों में कभी मेल-मिलाप नहीं होता। न ही वे अपने दायरे से बाहर जाकर दूसरे के काम के बीच आते हैं।
क्या नजरंदाज हो रहा है रोजगार में भेदभाव
हमारे देश में हर जाति से काम जुड़ा है, या हर काम से जाति। लेकिन यह भेदभाव सिर्फ वैतनिक नहीं बल्कि रोजगार के प्रकार और रोजगार सुरक्षा में भी है। इकोनॉमिक और पोलिटिकल वीकली की एक रिपोर्ट बताती है कि कुछ अध्ययनों ने हमें निजी श्रम बाजार में मजदूरी में भेदभाव पर ठोस प्रयोगसिद्ध साक्ष्य दिए हैं। लेकिन ये अध्ययन मुख्य रूप से मजदूरी दर में भेदभाव को केंद्र में रखकर किए गए, जिससे रोजगार भेदभाव नजरअंदाज होता है। जैसे, मैं अपने कोलकाता के घर पर जब कपड़ों की इस्त्री के लिए किसी व्यक्ति की खोज रही थी, तो मेरी मुलाकात राजेश रजक से हुई। मेरी बातचीत से पहले, मुझे उनके उपनाम की जानकारी नहीं थी। मैं अपनी तसल्ली के लिए पूछ रही थी कि वह कब से हमारे इलाके में काम पर आ रहे हैं या वह कब आ सकते हैं। मेरे ये पूछने पर उन्होंने अपनी जाति बताई और कहा, “काम में समस्या नहीं होगी। मैं रजक ही हूँ। मेरी जाति धोबी ही है।” इसके बाद मुझे विश्वास दिलाने के लिए उन्होंने अपनी जाति प्रमाणपत्र दिखाई। महानगर में रहते हुए, अन्य रोजगार विक्लप के बावजूद, अपनी जाति के मुताबिक काम करना वंशगत रूप से चला आ रहा है। ऐसी स्थिति न सिर्फ आर्थिक रूप से असमानता का कारण बनती है बल्कि यह रोजगार भेदभाव को बढ़ावा भी देती है।
जाति के आधार पर काम और वेतन
भारत में सामाजिक पहचान यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है कि कोई व्यक्ति देश में किस प्रकार का रोजगार करेगा और उसकी कमाई कितनी होगी। ऐतिहासिक रूप से, भारत में नागरिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन को जाति व्यवस्था नियंत्रित करती है। सामाजिक तौर पर अलग-अलग समुदायों के लिए अलग-अलग काम निर्धारित किए गए हैं, जो प्रणालीगत रूप में चलते रहते हैं। जाति-आधारित सामाजिक ढांचा अक्सर रीति-रिवाजों के माध्यम से चलती है, और इसे सामाजिक और आर्थिक रूप से लागू किया जाता है। चाहे कोई व्यक्ति किसी भी धर्म का क्यों न हो, हमारे देश में जाति विभाजन वंशगत चलती रहती है। सदियों से किसी समुदाय की जातिगत पहचान, उस समुदाय के सदस्यों की बुनियादी संसाधनों तक पहुंच और नियंत्रित करने की क्षमता से सीधे तौर पर जुड़ी है। इस व्यवस्था से जाति और वर्ग के बीच व्यापक अनुरूपता भी समझ आती है।
वाटरऐड ने साल 2018 में मैनुअल स्कैवेंजिंग में शामिल महिलाओं की स्थिति पर एक सर्वेक्षण किया था। सर्वेक्षण में शामिल मैनुअल स्कैवेंजिंग में लगे सभी लोगों को दलित समुदाय से पाया गया। सर्वेक्षण की माने तो, वे मात्र 30 रुपए से लेकर 2000 के बीच प्रति माह कमा रहे थे। वहीं कभी-कभी इन्हें पारिश्रमिक के बदले अनाज या रोटियां ही दी जाती हैं। आर्थिक भेदभाव से न सिर्फ श्रम बाजार में असमानता बढ़ती है, बल्कि इस भेदभाव का सामना करने वाले समुदाय की आय और गरीबी पीढ़ी दर पीढ़ी चलने की आशंका होती है।
जातिगत भेदभाव और श्रम बाजार में हालत
हमारे देश में जातिगत व्यवस्था और भेदभाव के कारण, किसी के लिए व्यक्ति के नाम के आधार पर, उसके काम का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं। आज भले अर्बन कंपनी जैसी संस्था विभिन्न लोगों को हर प्रकार के रोजगार दे रही है। लेकिन यह संख्या न सिर्फ मामूली है, बल्कि कंपनी के भीतर भी भेदभाव की कई खबरें मिलती हैं। भारत में रोजगार के बारे में बात करते समय तीन पहलुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। पहला है श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर)। सीधे शब्दों में कहें, तो इससे पता चलता है कि कितने भारतीय नौकरी की मांग कर रहे हैं। दूसरा कारक है बेरोजगारी दर और तीसरा है रोज़गार दर। गौर करें तो जाति-आधारित भेदभाव भारतीय श्रम बाज़ार, व्यापार और अर्थव्यवस्था की एक महत्वपूर्ण पहलू है। यह भेदभाव सीधे तौर पर सामाजिक सत्ता और पदानुक्रम से जुड़े हैं।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों पर आधारित रिपोर्ट अनुसार साल 2016-17 से 2022-23 तक प्रत्येक जाति के लिए श्रम बल भागीदारी दर में गिरावट आई है। वहीं तथाकथित ऊंची जातियों का एलएफपीआर अन्य सभी जातियों के मुकाबले सबसे कम 37.21 फीसद पाया गया। यानि ऊंची जातियों में नौकरियों की मांग सबसे कम पाई गई। साल 2016 के बाद से एलएफपीआर में सबसे बड़ी गिरावट अन्य पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति के बीच हुई है। हालांकि उच्च जातियों में रोजगार दर सबसे कम पाया लेकिन रोज़गार दर में सबसे बड़ी गिरावट अन्य पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति में देखी गई। 2018 के संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार, अनुसूचित जनजाति का हर दूसरा व्यक्ति और अनुसूचित जाति का हर तीसरा व्यक्ति गरीब रहता है।
भारतीय जाति व्यवस्था में न सिर्फ जाति पदानुक्रम बताया गया है, बल्कि जाति आधारित रोजगार भी बताया गया है। जाति से जुड़ा रोजगार और उससे जुड़ा वेतन में अंतर लोगों के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। एक ऐसे देश में जहां योग्यता और शिक्षा से ज्यादा जाति के आधार पर श्रम विभाजन हो, वहां महज मेहनत का गुणगान करना मायने नहीं रखता। इस भेदभाव से बढ़ती गरीबी, असमानता और हिंसा के रोकथाम के लिए जरूरी है कि हम न सिर्फ व्यापक नीति बनाएं बल्कि जातिगत भेदभाव को उपभोक्तावाद और चकाचौंध का जामा न पहनाए।