लैंगिक हिंसा समाज में मानवाधिकारों के उल्लंघन का एक गंभीर कारण माना जाता है। समाज चाहे कोई भी हो, सदियों से यह समस्या लगातार बनी हुई है। भारतीय समाज की बात करें, तो लिंग आधारित हिंसा हर उम्र की महिलाएं, लड़कियां और हाशिये पर रह रहे समुदाय सामना करते हैं। भारत की शिक्षा व्यवस्था पर गौर किया जाए तो परिस्थिति यह है कि स्कूलों में अलग-अलग तरह की लैंगिक हिंसाओं से जुड़ी घटनाएं आए दिन रिपोर्ट भी नहीं होती। स्कूलों में पढ़ने आ रही जो लड़कियां या अन्य हाशिये के समुदायों के साथ हुए लैंगिक हिंसा की घटनाओं को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है, जो लड़कियां कक्षा के भीतर और बाहर दोनों जगह पर लैंगिक हिंसा को अनुभव करती हैं। उन्हें इसके बारे में रिपोर्ट करने, इसके लिए मदद लेने और बातचीत करने से बचना सिखाया जाता है ताकि ‘स्कूल की प्रतिष्ठा’ और ‘घर और समाज की इज्जत’ को कोई ठेस न पहुंचने पाए।
ऐसे में ‘घर की इज्जत’ जैसी पितृसत्तात्मक मान्यता का चलन घरों से स्कूल की ओर होने लगता है। हालांकि स्कूलों को घर के बाद सबसे ‘सुरक्षित’ जगह माना जाता है, और ये समाज के दायरे में ही आते हैं। पर ये उन रूढ़ियों, मूल्यों और नियमों को बढ़ावा देने के लिए ही जाने जाते हैं जिन्हें इन्हें चुनौती देने की उम्मीद की जाती है। स्कूली व्यवस्था में लैंगिक हिंसा की घटनाओं को पहचानना या महत्व देना अभी भी हमारी शिक्षणशास्त्र की चिंताओं और दृष्टिकोण की गंभीरता से बाहर हैं। इसे पहचानने और इस पर प्रतिक्रिया जताने का कार्यभार हम पॉक्सो जैसे अधिनियम पर छोड़ देते हैं। कितने ही स्कूली शिक्षक होंगे जो पॉक्सो का पूरा नाम या उसके बारे में थोड़ी-बहुत भी जानकारी रखते होंगे।
कक्षाओं में लैंगिक असमानता पर बातचीत की कमी
इससे जुड़ा दिल्ली का ही एक बेहतरीन शैक्षिक संस्थान का किस्सा मुझे याद आता है। यहां रोज़ाना की तरह एक प्रोफेसर एम.एड. की क्लास लिया करते थे। एक लेक्चर के दौरान उन्होंने बातों ही बातों में अपने विद्यार्थियों से यह पूछ लिया कि पॉक्सो का फुलफॉर्म और अहमियत क्या है। नौ विद्यार्थियों में से किसी से भी इसका जवाब नहीं दिया गया। यहां इस किस्से का ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी है कि ये विद्यार्थी भविष्य के वही शिक्षक होंगे जिनके लिए लैंगिक असमानता और इससे जुड़ी हिंसा केवल कक्षाओं के बाहर की बातें होती हैं। ऐसे शिक्षक कक्षा में आने वाली बच्चियों के साथ हो रहे कई प्रकार के हिंसा के रूपों को न तो समझते हैं, न ही परख पाते हैं और न ही बच्चों को इनके बारे में जागरूक कर पाते हैं। कई मामलों में वे खुद ही उत्पीड़क भी होते हैं।
किशोरियों के सीखने में बहुत बड़ी बाधा है हिंसा
स्कूल में हो रही लैंगिक हिंसा किशोरियों के सीखने में एक बहुत बड़ी बाधा है। किशोरावस्था लड़कियों के जीवन में बहुत निर्णायक चरण होता है। इस उम्र में वे केवल शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक बदलावों से ही नहीं गुज़रती है, बल्कि एक ऐसी परिपक्वता की ओर बढ़ती है जहां उनसे समाज में वयस्क के रूप में भूमिका निभाने के लिए तैयार करने पर ज़्यादा जोर दिया जाने लगता है। लड़कियों के खिलाफ हिंसा का प्रभाव स्कूलों में लड़कियों के कम नामांकन, स्कूल में खराब प्रदर्शन, उच्च स्कूल छोड़ने की दर, किशोर गर्भावस्था, कम उम्र में शादी और यहां तक कि 15-24 वर्ष के आयु वर्ग में एचआईवी या एड्स की बढ़ती दर और मनोवैज्ञानिक ट्रॉमा का कारण बनता है। चूंकि स्कूल न सिर्फ सीखने-सिखाने की जगह मानी जाती है, बल्कि घर का दूसरा स्वरूप माना जाता है। इसलिए, स्कूलों के लिए यह और भी जरूरी हो जाता है कि वह अपनी जिम्मेदारी निभाए और लड़कियों के लिए एक सुरक्षित और स्वस्थ परिवेश की व्यवस्था करे। ऐसा परिवेश जहां वे अपनी समस्याओं को बेझिझक होकर कह सकें। जहां उन्हें पितृसत्तात्मक मानदंडों पर आधारित किसी विशिष्ट संस्कृति के अनुसार चलने और व्यवहार करने के लिए बाध्य न किया जाए।
स्कूलों में लैंगिक भेदभाव को पहचानने की पहली पहल
1986 के राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बाद इसकी समीक्षा के लिए साल 1990 में राममूर्ति की अध्यक्षता में केन्द्र सरकार ने एक समिति का गठन किया था। राममूर्ति समिति की रिपोर्ट महिलाओं की स्थिति, पिछड़े, वंचितों और अल्पसंख्यकों की शिक्षा की भी बात करती है। यह हमें बताने की कोशिश करती है कि शिक्षा के क्षेत्र में ख़ासकर स्कूलों में लड़कियों की कम भागीदारी और संस्थाओं का पितृसत्तात्मक रवैया केवल एक सामाजिक समस्या नहीं है। समिति ने स्कूलों में लैंगिक असमानता और हिंसा के कारण किशोरियों के अनुभव और जनसांख्यिकीय पहलुओं को भी शामिल किया गया। यह रिपोर्ट सुझाव देती है कि उचित प्रशिक्षण के ज़रिये लैंगिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त शिक्षकों के व्यवहार में सुधार लाया जा सकता है।
हिंसा के विभिन्न रूप हो सकते हैं
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार कम उम्र में शादी और घर के काम-काज लड़कियों के स्कूल छोड़ने के प्रमुख कारण हैं। लेकिन वहीं स्कूल में हिंसा, असुरक्षित वातावरण लड़कियों के स्कूल न जाने और पढ़ाई छोड़ने के कारक हैं। किशोरियों को न केवल स्कूल परिसरों में बल्कि स्कूल परिसरों के ठीक बाहर या स्कूल के रास्ते भी विभिन्न प्रकार के यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। हालांकि आज ऑनलाइन शिक्षा के प्रचलित होने से बाद से ऑनलाइन हिंसा भी बढ़ती हुई नजर आ रही है। लेकिन स्कूली हिंसा सिर्फ सहपाठियों तक सीमित नहीं रहती। इसमें दूसरे कक्षा के बच्चे, शिक्षक या स्कूल के कर्मचारी भी दोषी हो सकते हैं।
स्कूल में लिंग आधारित हिंसा में यौन हिंसा के अलावा हिंसा के कई प्रकार हो सकते हैं। यह अक्सर शिक्षकों और विद्यार्थियों के माध्यम से अन्य रूपों में घटती है। लिंग के आधार पर हिंसा में लैंगिक रूढ़िवादिता के आधार पर हिंसा, धमकाना या विद्यार्थियों को उनके लिंग, यौनिकता या पहचान के आधार पर लक्षित कर शर्मिंदा करना भी शामिल है। अक्सर छात्राएं स्कूल में घटने वाली हिंसाओं को किसी से साझा नहीं करती और कई बार वे खुद भी इसे ‘हिंसा’ के रूप में नहीं पहचान पाती। लेकिन ‘मौन’ रहने की इस संस्कृति का पता लगाने और इससे छात्राओं के निजी और सामाजिक विकास पर पड़ने वाले प्रभावों को उजागर करने के संबंध में बेहद कम शोध हैं।
शैक्षिक व्यवस्था में हस्तक्षेप क्यों जरूरी है
शिक्षा को सामाजिक बदलाव की एक व्यापक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। जब आंकड़े दिखाते हैं कि फलां देश या जगह में लैंगिक हिंसा की घटनाएं दिन पर दिन बढ़ रही है, तो इसका संबंध मूल रूप से शिक्षा की असल स्थिति क्या है, इसकी गहराई से भी होता है। ये दर्शाता है कि शिक्षा और जेंडर का जोड़ उतना दृढ़ नहीं है या यूं कहें कि हमारी शिक्षा व्यवस्था इस विषय पर उतनी सशक्त और संवेदनशील नहीं हो पाई है, जितनी जरूरत है। इसपर प्रश्न उठाना तर्कसंगत भी है क्योंकि ऐसे में शिक्षा की भूमिका पहली और अहम होती है। सबसे बड़ी चुनौती यह रहती है कि लैंगिक हिंसा की घटनाओं में शामिल व्यक्ति कोई विद्यार्थी भी हो सकता है, जिसकी उम्र छोटी हो। इसलिए किशोर और किशोरियों के लिए स्कूल के शुरुआती दिनों से ही हिंसा की पहचान, उसके प्रकार और बचाव के विषय पर बातचीत अनिवार्य होना चाहिए। कक्षा के भीतर और बाहर इस पर बातचीत का खुला माहौल, इसके खिलाफ कार्रवाई के प्रकार, नियम और चुनौतियों पर भी बात होनी चाहिए। ऐसे निर्णय सामूहिक स्तर पर उचित माने जाते हैं। लेकिन व्यवहार में स्थिति इसके विपरीत ही है।
हिंसा का मानसिक असर
कई किशोरियां कक्षा में शिक्षक से बात-बात पर मार-पिटाई के अलावा चोटी खींचने जैसी अन्य प्रकार के हिंसा का सामना करती हैं। 19 वर्षीय कंचन ने स्कूल में हिंसा की घटना बताते वक्त चोटी और बाल पकड़कर खींचने की बात मुझसे साझा की। साथ ही उन्होंने अपनी कक्षा में अन्य छात्राओं को इसे अनुभव करते हुए भी देखा है। हालिया दिनों में उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के एक सरकारी स्कूल का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें एक शिक्षिका अपनी छात्राओं के बाल खींचती और उन्हें थप्पड़ मारते नजर आती हैं। इसके बाद शिक्षिका को निलंबित कर दिया गया। हिंसा की ऐसी घटनाओं में केवल शारीरिक दंड ही शामिल नहीं है। बल्कि कुछ मामलों में जानबूझकर किसी छात्रा को निशाना बनाकर, उसके साथ दुर्व्यवहार करना और यातनाएं देना शामिल है। दिल्ली की 18 साल की भूमिका ने लड़कियों के एक सरकारी स्कूल से पिछले साल ही अपनी बारहवीं कक्षा पास की है। वो अपने आस-पास ऐसे कई तरह के अनुभव से गुज़र चुकी हैं जो साफ़ तौर से हिंसा की श्रेणी में आते हैं। कई बार वो दूसरी सहपाठियों के साथ होने वाली हिंसा की घटनाओं को भी देख चुकी हैं। भूमिका अपनी एक साथी सहपाठी सपना के साथ होने वाली आंखों देखी घटना मुझसे साझा करती हैं।
हिंसा के मामले में शिक्षक की भूमिका
भूमिका बताती हैं, “हमारी एक टीचर अक्सर सपना से नकारात्मक ढंग से बात करती थी। टीचर का उसके साथ किया जाने वाला बर्ताव क्लास में सभी को अपमानजनक लगता था। सपना एक बस्ती में रहा करती थी। वह पढ़ने में काफी अच्छी थी। एक दिन टीचर हम सबसे एक-एक कर हमारे परिवार का परिचय देने के लिए कहीं। वो सपना को ही सबसे पहले शुरू करने को बोलीं। सपना ने इसके बाद बताया कि उसके परिवार में उसकी माँ और एक बहन है। लेकिन टीचर ने आगे सपना से पूछताछ जारी रखा और पूछा कि उसके पिता कहां हैं। जवाब में सपना ने बताया कि उसके पिता नहीं हैं। इसके बाद टीचर उससे उसके पिता के विषय में और सवाल पूछती रहीं। तबतक सपना के शारीरिक हाव-भाव से सभी को यह बात झलक रही थी कि वो इसका जवाब नहीं देना चाहती है। सबको ऐसा लग रहा था कि वो किसी भी पल रो देगी।” भूमिका आगे बताती है, “यही नहीं कक्षा में किसी विषय से संबंधित कोई फाइल दिखाने या घर के लिए दिए गए टास्क दिखाने के मामले में भी टीचर सपना को ही सबसे पहले दिखाने को कहती थी।”
“टीचर ने आगे सपना से पूछताछ जारी रखा और पूछा कि उसके पिता कहां हैं। जवाब में सपना ने बताया कि उसके पिता नहीं हैं। इसके बाद टीचर उससे उसके पिता के विषय में और सवाल पूछती रहीं। तबतक सपना के शारीरिक हाव-भाव से सभी को यह बात झलक रही थी कि वो इसका जवाब नहीं देना चाहती है। सबको ऐसा लग रहा था कि वो किसी भी पल रो देगी।”
शिक्षकों को होना चाहिए संवेदनशील
सपना के मामले में दिखाई पड़ता है कि हमारे शिक्षक कितने असंवेदनशील और अमानवीय हो सकते हैं। अक्सर स्कूलों में ऐसे बर्ताव को सामान्य बताया जाता है, जिसके दुष्प्रभाव छात्राओं को ऐसी हिंसा सहने का अभ्यस्त बना देता है। शिक्षक आज भी छात्र-छात्राओं में ‘फेवरिटिज़म’ को बढ़ावा देने जैसी मानसिकता से ग्रस्त हैं। ऐसे में जिन विद्यार्थियों के साथ पक्षपात किया जा रहा होता है, उनके साथ शिक्षक उचित व्यवहार नहीं करते। ऐसे में कुछ विद्यार्थियों यह महसूस करने लगते हैं कि वो सामाजिक, शारीरिक और शैक्षणिक दृष्टि से दूसरे बच्चों की तुलना में अच्छे नहीं हैं। टीचर के इस व्यवहार के कारण सपना को काफी मानसिक आघात पहुंचा था। वह सभी विषयों की कक्षाओं में चुप-चुप रहने लगी थी। कुछ समय के लिए उसने खुद को स्कूल की तमाम गतिविधियों से समेट सा लिया था।
मानसिक समस्या से ग्रस्त होना बन रहा हिंसा का कारण
दिल्ली के आर.के. पुरम में रह रही बिहार की 18 वर्षीय प्रीति किसी ऐसे मानसिक समस्या से ग्रस्त है जिसकी जानकारी उसके माता-पिता को भी नहीं है। दिल्ली में उसके माता-पिता सब्जी बिक्री कर घर चलाते हैं। प्रीति को वे साल भर पहले ही दिल्ली ले आए थे ताकि उससे सब्ज़ी बेचने और घरेलू काम में मदद की जा सके। प्रीति बिहार में एक सरकारी स्कूल में पढ़ा करती थी। चौथी तक पढ़ने के बाद उसका स्कूल जाना इसलिए बंद करवा दिया गया क्योंकि उसे स्कूल भेजने के बाद भी वह अंग्रेजी और हिंदी की वर्णमालाएं, गिनती और पहाड़ों को न तो पढ़ सकती थी और न ही लिखने का कोई ज्ञान था। प्रीति के माता-पिता खुद जागरूकता के अभाव में इस बात को समझने में सक्षम नहीं थे कि प्रीति को सबसे पहले मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा और सहायता की जरूरत थी न कि ज्ञान के इन बेसिक्स को ग्रहण करने की।
कैसे हिंसा से बचाने के लिए स्कूल किया गया बंद
इसपर प्रीति के पिता कहते हैं, “प्रीति बचपन से ही मानसिक रूप में स्वस्थ नहीं है। हमने गांव में उसे चौथी तक पढ़ाया। उसके बाद उसे स्कूल भेजना बंद कर दिया क्योंकि उसे स्कूल की पढ़ाई समझ नहीं आती थी। वो धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी इसलिए उसे दिल्ली लाने का निर्णय लिया। कोई उसकी मानसिक स्थिति का गलत फायदा उठाकर उसके साथ कुछ न कर दे, इस सोच से मैं और मेरी पत्नी हमेशा डर में रहते हैं। अब प्रीति सब्ज़ी छांटने और ग्राहकों को सब्जियां थैली में डालकर देने जैसे काम में हमारा साथ देती है। घर से दुकान दूर नहीं लगाते। इसलिए वो घर से खाना-पानी लाने का काम भी कर देती है।” यह स्थिति हमें दर्शाती है कि कहीं न कहीं प्रीति को एक हिंसा से बचाने के इस कदम में दूसरे प्रकार के उत्पीड़न की ओर धकेल दिया गया। उसके लिए क्या सही है और क्या गलत है, इसके संबंध में वह निर्णय लेने में सक्षम भी नहीं है। जब हमारे देश में बात मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाओं की आती है, तो इसमें भी असमानता साफ़-साफ़ दिखाई देती है। मानसिक समस्याएं जैसे अवसाद से ग्रस्त गरीब और हाशिये पर रह रहे लोग इन सुविधाओं की पहुंच से अभी भी बाहर हैं। ऐसा ही कुछ प्रीति के परिवार ने भी अनुभव किया था।
हिंसा आजीवन प्रभावित कर सकता है
हिंसा की घटनाएं न केवल लड़कियों के शिक्षा के विकास पर बल्कि उनके स्वास्थ्य को भी हानिकारक रूप से प्रभाव करती हैं। कक्षा में पढ़ाई में मन न लगना, समझने-बूझने और निर्णय लेने में असक्षमता, रोज़ाना के कार्यों में आत्मविश्वास की कमी, चिंता और अवसाद, आस-पास के परिवेश से अलगाव बोध करना, ज़्यादा समय अकेले बिताना, किसी ट्रॉमा, दुर्घटना या हिंसा की घटना के बारे में बार-बार सोचना आदि समस्याओं से वे घिर सकती हैं। मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि इस अवस्था में अनुभव की जाने वाली हिंसा सदमे और आघात के रूप में जीवनभर बनी रहती हैं। ऐसे सदमे और आघात बाद में जाकर अवसाद का रूप ले सकते हैं। हमारे देश में किसी का मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझने की बात, खासकर महिलाओं और लड़कियों के संबंध में इसकी बात करना टैबू है। इसलिए, इसकी पहचान भी मुश्किल से होती है और जागरूकता में भी अत्यंत कमी है।
किशोरियों के साथ होने वाली शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक उत्पीड़न की घटनाओं के पीछे असल में पितृसत्तात्मक सोच गहराई से शामिल है। शिक्षा इस नींव को हिलाने और चुनौती देने में बेहद महत्वपूर्ण उपकरण है। शिक्षा से ही स्कूल और समुदाय का इन हिंसा के प्रति नजरिये और व्यवहार में बदलाव लाया जा सकता है।