समाजख़बर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में अदालतों को क्यों है छूट?

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में अदालतों को क्यों है छूट?

बाहर निकलने की दिक्कत, सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षित रहना और यहां तक कि घर और परिवार की पूरी जिम्मेदारी के बीच महिलाओं के लिए न पढ़ाई आसान है न काम। ऐसे में कोई कामकाजी महिला अपने कामकाज के जगह से न सिर्फ सहयोग बल्कि एक सुरक्षित वातावरण भी चाहती है, जहां उसे आगे बढ़ने का मौका मिले। कार्यस्थल पर यौन हिंसा न सिर्फ मनोबल तोड़ने का काम करती है, बल्कि उसके काम करने के अवसर को ही समाप्त कर देती है।

हमारे देश में महिलाओं को किसी भी क्षेत्र में काम करने में हजारों चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यहां महिलाओं का कार्यबल में घुसना ही एक बड़ी बात है। पढ़ाई से लेकर शादी न करने की लड़ाई तक, कॉलेज के चुनाव से लेकर ऑफिस में घुसने तक, महिलाओं का सफर कभी भी आसान नहीं होता। बाहर निकलने की दिक्कत, सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षित रहना और यहां तक कि घर और परिवार की पूरी जिम्मेदारी के बीच महिलाओं के लिए न पढ़ाई आसान है न काम। ऐसे में कोई कामकाजी महिला अपने कामकाज के जगह से न सिर्फ सहयोग बल्कि एक सुरक्षित वातावरण भी चाहती है, जहां उसे आगे बढ़ने का मौका मिले। कार्यस्थल पर यौन हिंसा न सिर्फ मनोबल तोड़ने का काम करती है, बल्कि उसके काम करने के अवसर को ही समाप्त कर देती है।

हर दिन कार्यस्थल पर यौन हिंसा की घटना मानसिक या शारीरिक रूप से कितनी गंभीर हो सकती है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में एक महिला सिविल जज ने भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ को एक खुला पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने एक जिला न्यायाधीश और उनके सहयोगियों के कथित रूप से यौन उत्पीड़न की शिकायतों की जांच पर एक साल में बहुत कम प्रगति होने से परेशान हो कर, अपना जीवन समाप्त करने की अनुमति मांगी है। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल अक्टूबर में केंद्र, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम (POSH) के तहत जिला अधिकारियों की नियुक्ति करने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी अफसोस जताया था कि कई राज्यों ने अपने मौजूदा नौकरशाही ढांचे के भीतर कानून की संस्थागत आवश्यकताओं को ‘बलपूर्वक’ फिट करने की कोशिश की है।

उत्तर प्रदेश में एक महिला सिविल जज ने भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ को एक खुला पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने एक जिला न्यायाधीश और उनके सहयोगियों के कथित रूप से यौन उत्पीड़न की शिकायतों की जांच पर एक साल में बहुत कम प्रगति होने से परेशान हो कर, अपना जीवन समाप्त करने की अनुमति मांगी है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह महसूस किया कि घरेलू कामगारों से लेकर छोटे प्रतिष्ठानों के कर्मचारियों तक, महिलाओं को उनकी पहुंच से परे कार्यस्थलों पर, यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक कानून के तहत सुरक्षा मिलने में कमी का सीधा सा कारण यह था कि उनकी शिकायतों को आगे ले जाने वाला कोई नहीं था। वहीं फोर्बस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की सबसे बड़ी पर्यावरण, सामाजिक और शासन अनुपालन (ईएसजी) शिकायत कंपनियों में कार्यस्थलों पर लंबित यौन उत्पीड़न के मामलों की संख्या में मार्च 2023 को समाप्त होने वाले वर्ष में 101 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। यह शिकायतों के एक बड़े बैकलॉग और कंपनियों के ऐसे मामलों को समय पर हल करने में असमर्थता दिखाती है।

न्यायालयों में क्यों नहीं मानी जाती है विशाखा गाइडलाइंस

हालांकि यह कोई पहली बार नहीं जब खुद न्यायालय में यौन हिंसा की घटनाएं हुई हो। लेकिन बात जब न्यायिक व्यवस्था और अदालतों की आती है, तब उम्मीद यही रहती है कि ऐसे संस्थान किसी भी यौन हिंसा की घटना को गंभीरता से ले और तुरंत कार्रवाई करे। साल 2019 की एक रिपोर्ट अनुसार सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व कर्मचारी ने अदालत के सभी न्यायाधीशों को भेजे गए हलफनामे में भारत के मुख्य न्यायाधीश रह चुके रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे। अब तक अदालतों में होने वाले यौन हिंसा के लिए किसी भी विशिष्ट कानून के अभाव में, सुप्रीम कोर्ट के 1997 के विशाखा फैसले में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में अपनाए जाने वाले कानून और प्रक्रिया को सभी अदालतों पर निर्धारित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के घोषित कानून अदालतों सहित सभी संस्थानों पर लागू होते हैं। लेकिन इसके बावजूद, अक्सर न्यायपालिका का उदासीन रवैया और समस्याजनक दृष्टिकोण इस विचार की पुष्टि करता है कि कोई भी न्यायालय या न्यायाधीश इस मामले में कभी दोषी हो ही नहीं सकता और सभी कानून से ऊपर हैं।

तस्वीर साभारः  फेमिनिज़म इन इंडिया

क्या है पूरा मामला

द प्रिन्ट में छपी खबर के अनुसार महिला जज ने साल 2022 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और प्रशासनिक न्यायाधीश (उच्च न्यायालय के न्यायाधीश) से यौन हिंसा की शिकायत की थी। लेकिन अबतक इसपर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। महिला जज ने अपने पत्र में आरोप लगाया है कि किसी ने भी उनसे यह तक नहीं पूछा है कि उनके साथ क्या हुआ और वह क्यों परेशान हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार अपने पत्र में उन्होंने कहा है कि उन्होंने जुलाई 2023 में उच्च न्यायालय की आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) से शिकायत की थी। जांच शुरू करने में ही छह महीने और एक हजार ईमेल लग गए। महिला जज के मुताबिक उनकी शिकायतों की जांच में अब तक कोई प्रगति नहीं हुई है।

कहां है समस्या

साल 2013 में, संसद ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 पारित किया। इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय में यौन उत्पीड़न के खिलाफ महिलाओं की सुरक्षा के लिए नियम बनाए। नियमों के तहत, भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक लिंग संवेदीकरण और आंतरिक शिकायत समिति (जीएसआईसीसी) का गठन करना आवश्यक है। इसका उद्देश्य लैंगिक मुद्दों पर जनता को संवेदनशील बनाना और सुप्रीम कोर्ट परिसर के भीतर यौन उत्पीड़न की शिकायतों का समाधान करना है। POSH अधिनियम स्पष्ट रूप से अपने दायरे में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार के श्रमिकों को शामिल करता है। इसके अंतर्गत यौन उत्पीड़न की रोकथाम, निषेध और निवारण के लिए संस्थागत स्तर पर एक आंतरिक समिति (आईसी) और जिला स्तर पर एक स्थानीय समिति (एलसी) के गठन को अनिवार्य है।

कामकाजी महिला अपने कामकाज के जगह से न सिर्फ सहयोग बल्कि एक सुरक्षित वातावरण भी चाहती है, जहां उसे आगे बढ़ने का मौका मिले। कार्यस्थल पर यौन हिंसा न सिर्फ मनोबल तोड़ने का काम करती है, बल्कि उसके काम करने के अवसर को ही समाप्त कर देती है।

देश के विभिन्न इलाकों की अनौपचारिक क्षेत्र की महिला श्रमिकों के साथ काम कर रही सामाजिक संस्थान मार्था फैरेल फाउंडेशन और प्रिया ने महिलाओं के कार्यस्थल पर सुरक्षा के के अधिकार की रक्षा पर, आरटीआई डेटा का उपयोग कर, पूरे भारत में POSH के अंतर्गत स्थानीय समितियों का एक अध्ययन किया। इसके अनुसार जिन 29 फीसद जिलों ने जवाब दिया कि उन्होंने एलसी का गठन किया है, उनमें से केवल 16 फीसद के पास ‘महिला अध्यक्ष’ थीं। इनमें से एक प्रतिशत के पास महिला अध्यक्ष नहीं थी और बाकी ने कोई जवाब नहीं दिया। वहीं चार जिलों झारखंड, उत्तराखंड में एक-एक और पंजाब में दो में पुरुष अध्यक्ष काम करते हुए पाए गए।

अध्ययन के अनुसार जिन 29 फीसद जिलों ने जवाब दिया कि उन्होंने एलसी का गठन किया है, उनमें से केवल 16 फीसद के पास ‘महिला अध्यक्ष’ थीं। इनमें से एक प्रतिशत के पास महिला अध्यक्ष नहीं थी और बाकी ने कोई जवाब नहीं दिया। वहीं चार जिलों झारखंड, उत्तराखंड में एक-एक और पंजाब में दो में पुरुष अध्यक्ष काम करते हुए पाए गए।

क्या कहती है डेटा और क्या है प्रणालीगत समस्याएं

राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) द्वारा जारी डेटा के अनुसार उत्तर प्रदेश में यौन उत्पीड़न और हमले की शिकायतों की संख्या सबसे अधिक है जहां साल 2019 से 2023 तक 2,069 मामले सामने आए। दिल्ली 422 शिकायतों के साथ दूसरे स्थान पर है। इसके बाद मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में 242 और 231 मामले पाए गए। साल 2019 में संसद में बताए गए एक बयान बताता है कि सरकार कार्यस्थलों पर महिलाओं के उत्पीड़न के मामलों से संबंधित कोई केंद्रीकृत डेटा नहीं रखती है। केंद्र या राज्य सरकारें सार्वजनिक रूप से डेटा संकलित और जारी नहीं करती हैं कि कितनी कंपनियां और जिले दिशानिर्देशों का अनुपालन करते हैं, और कितनी समितियां हैं। यह ये भी नहीं देखती कि दर्ज की गई शिकायतों की संख्या और इन शिकायतों का परिणाम क्या है।

ऑनलाइन शिकायत दर्ज करवाने का प्रावधान कितना कारगर

इंडियास्पेन्ड की एक रिपोर्ट अनुसार जुलाई 2019 में राज्यसभा में सरकार की प्रतिक्रिया के अनुसार, ऑनलाइन शिकायत प्रबंधन प्रणाली SHeBox को 612 शिकायतें मिली थी। इनमें केंद्र सरकार से 196, राज्य सरकारों से 103 और निजी संगठनों से 313 मामले आए थे। बता दें कि न सिर्फ यह प्रक्रिया ऑनलाइन है, जिस तक महिलाओं की पहुंच कम है, बल्कि साल-दर-साल शिकायतों को ट्रैक करने का भी कोई तरीका नहीं है। यह रिपोर्ट बताती है कि पिछले फरवरी में संसद में एक अन्य सरकारी प्रतिक्रिया में उल्लेख किया गया था कि नवंबर 2017 और फरवरी 2020 के बीच दर्ज की गई 539 शिकायतों में से लगभग 70 फीसद लंबित थीं।

विभिन्न शोधों से पता चलता है कि महिलाओं के यौन उत्पीड़न के अनुभव उनके पेशेवर, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक स्वास्थ्य में कमी से जुड़े हैं। महाराष्ट्र में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के प्रकार, सीमा और प्रभाव पर एक अध्ययन किया गया। इस अध्ययन के अनुसार इन महिलाओं में 62 प्रतिशत को कार्यस्थल पर सुरक्षा की भावना थी। लगभग 37 प्रतिशत ने बताया कि वे कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकार हुई थीं। सर्वाइवर ने बताया कि आरोपियों में सबसे अधिक 17 फीसद सहकर्मी थे और 7 फीसद तत्काल नियोक्ता थे। कार्यस्थल पर सुरक्षा की कमी या यौन हिंसा के खिलाफ शिकायत दर्ज करने के बावजूद, सुरक्षा न मिल पाना मानवाधिकार का उल्लंघन है। जरूरी है कि न सिर्फ हम कानूनी तौर पर बल्कि सामाजिक तौर पर भी कार्यस्थल को सुरक्षित बनाने के प्रयास करें।

संबंधित लेख

Skip to content