देश में जब भी स्वास्थ्य व्यवस्था की बात होती है, तो महिलाओं के योगदान को नजरंदाज करना मुश्किल होता है। लेकिन यह मूल रूप से नर्स, पैरामेडिक कर्मचारी और आशा वॉकर्स तक सीमित हो जाते हैं। आज भी न सिर्फ ग्रामीण भारत में बल्कि शहरों में भी किशोरियों और महिलाओं में अक्सर यह चाहत होती है कि उनका इलाज महिला डॉक्टर करे, या उनके स्वास्थ्य से जुड़े खास परीक्षण महिला स्वास्थ्य कर्मी करे। हालांकि इसके पीछे भी कई कारण हैं, लेकिन महिलाओं का उच्च पदों पर न होना इसमें अपनी भागीदारी निभाता है। कार्यबल में भागीदारी के बावजूद, स्वास्थ्य के क्षेत्र में महिलाएं ऊंचे पदों पर नहीं हैं।
चिकित्सा प्रशिक्षण में लैंगिक असमानता और पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और रूढ़िवादिता का मतलब है कि स्वास्थ्य देखभाल में महिलाएं कम कमाएंगी और विभिन्न अवैतनिक जिम्मेदारियों के कारण करियर में उनके आगे बढ़ने की संभावना भी कम होगी। दासरा की रिपोर्ट एन अनबैलेंस्ड स्केल: एक्सपलोरींग द फीमेल लीडरशिप गैप इन इंडियाज़ हेल्थकेर सेक्टर के अनुसार भारतीय स्वास्थ्य देखभाल के गतिशील परिदृश्य में, महिलाएं नेतृत्व से गायब हैं। खासकर कार्यकारी और बोर्ड स्तर पर, बावजूद इसके कि स्वास्थ्य सेवा कार्यबल में उनकी हिस्सेदारी आधी है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में वरिष्ठ प्रबंधन भूमिकाओं में एक जबरदस्त लैंगिक असंतुलन है।
असंतुलन से क्या हो सकती है समस्याएं
वैश्विक स्तर पर, महिलाएं स्वास्थ्य और सामाजिक देखभाल कार्यबल का 70 फीसद हिस्सा हैं। फिर भी वे दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में केवल 25 फीसद वरिष्ठ पदों और केवल 5 फीसद नेतृत्व भूमिकाओं पर बनी हुई हैं। हालांकि भारत में 29 फीसद महिला डॉक्टर हैं, 80 फीसद नर्सिंग विभाग (आयाओं सहित) में हैं, और लगभग 100 फीसद मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा वर्कर्स) हैं। लेकिन उनके पास नेतृत्व पदों पर केवल 18 फीसद हिस्सेदारी है, और वे अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में 34 फीसद कम कमाते हैं। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल की महत्वपूर्ण उपस्थिति के बावजूद, विशेष रूप से टियर-2 और टियर-3 शहरों में, स्वास्थ्य देखभाल के मामले में निजी स्वास्थ्य सेवा हावी है। दासरा की रिपोर्ट अनुसार भारत के स्वास्थ्य सेवा और विकास अनुमान उद्योग के भीतर, निजी क्षेत्र का बाजार आकार का 70 फीसद हिस्सा है।
वहीं कुल रोजगार में का यह लगभग 85 फीसद हिस्सा है जो विकास का क्षमता दर्शाता है। साल 2030 तक, लगभग 40,000 नए नेतृत्व पदों का अनुमान है, जो सभी उप-क्षेत्रों में लगभग 30 फीसद की समग्र वृद्धि को दर्शाता है। ऐसे में महिलाओं का नेतृत्व में न होना उनके आर्थिक अवसर को भी कम करता है। दासरा के रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत के स्वास्थ्य सेवा में छोटी, मध्यम और बड़ी कंपनियों में प्रवेश, मध्य स्तर और वरिष्ठ भूमिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर स्टैन्डर्डाइस्ड और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डेटा की कमी से प्रभावित है। वर्तमान में, निजी अस्पताल जो कुल स्वास्थ्य देखभाल कार्यबल का 54 प्रतिशत लोगों को नियुक्त किए हुए है, उनमें महिलाएं लगभग 25-30 फीसद नेतृत्व के पदों पर हैं। यही असमानता दवा और बायोटेक क्षेत्रों में देखा जा रहा है, जहां महिलाएं केवल 5-10 फीसद नेतृत्व के पदों पर काम कर रही हैं।
इलाके के सबसे जाने-माने और कथित अच्छे डॉक्टर के पास न जाने के पीछे एकमात्र कारण यह था कि मैंने उन्हें चिकित्सा के दौरान यौन हिंसा करते देखा था। जब मैंने अपने जान-पहचान की और सहकर्मी महिलाओं से अपनी चिंता जाहिर की, तो अधिकांश महिलाओं ने अपने या अपने किसी परिचित महिला या बच्ची के साथ भी ऐसी घटना होने की सूचना दी।
सामाजिक रूढ़िवाद और लैंगिक हिंसा की समस्या
अक्सर सामाजिक रूढ़िवाद और कई बार लैंगिक हिंसा के डर से भी महिलाएं ऐसे डॉक्टर के पास जाना चाहती हैं जहां न सिर्फ उन्हें बातचीत में झिझक महसूस न हो बल्कि उनके साथ कोई यौन हिंसा की घटना न हो। इसका एक कारण यह भी है कि अक्सर महिलाओं की परेशानियों को डॉक्टर महत्व नहीं देते। ऐसी महिलाएं जो पढ़ी-लिखी और जागरूक हैं, वह विशेष रूप से डॉक्टर से न सिर्फ अच्छा स्वास्थ्य देखभाल, बल्कि समय, निष्ठा और मानवीय दृष्टिकोण की उम्मीद करती हैं। उदाहरण के लिए, बिहार के मुंगेर जिले में रहने के दौरान मैं कई बार बीमार हुई। यह एक ऐसा जिला है, जहां आज भी अच्छी स्वास्थ्य सेवा न के बराबर है। कुछ एक स्त्री विशेषज्ञ को छोड़ गांव में लगभग सारे डॉक्टर पुरुष हैं। इनमें से कई ऐसे डॉक्टर भी हैं जिनके पास एमबीबीएस या ऐसी कोई डिग्री नहीं है।
ऐसे में साल 2017 में जब मैं पेट के भयानक दर्द से परेशान हुई, तो वहां के एक शिशु रोग विशेषज्ञ के पास गई। इसके बाद, जब फिर कुछ महीनों बाद, वैसी ही समस्या के लिए मैं उनके पास दोबारा गई, तो उन्होंने खुद कहा कि इसके लिए मुझे किसी और डॉक्टर के पास जाना चाहिए। इलाके के सबसे जाने-माने और कथित अच्छे डॉक्टर के पास न जाने के पीछे एकमात्र कारण यह था कि मैंने उन्हें चिकित्सा के दौरान यौन हिंसा करते देखा था। जब मैंने अपने जान-पहचान की और सहकर्मी महिलाओं से अपनी चिंता जाहिर की, तो अधिकांश महिलाओं ने अपने या अपने किसी परिचित महिला या बच्ची के साथ भी ऐसी घटना होने की सूचना दी। यह दुख की बात थी कि यौन हिंसा की पहचान होते हुए भी, अच्छे या महिला डॉक्टर की कमी में महिलाओं को ऐसे चिकित्सक के पास जाना पड़ता है, जहां वे जानती हैं कि उनके साथ यौन हिंसा होने वाली है।
पुरुष और महिला डॉक्टर के रवैये में अंतर
जॉन्स हॉपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं ने कई अध्ययनों का विश्लेषण किया जो इस बात पर केंद्रित थे कि डॉक्टर कैसे संवाद करते हैं। उन्होंने पाया कि महिला प्राथमिक देखभाल डॉक्टर अपने पुरुष सहकर्मियों की तुलना में मरीजों को सुनने में अधिक समय बिताती हैं। हालांकि इस प्रक्रिया में वे अपने पुरुष सहकर्मियों से पीछे भी रह गईं। अध्ययन में पाया गया कि जो डॉक्टर महिलाएं थीं, उन्होंने औसतन दो अतिरिक्त मिनट या प्रति मुलाक़ात लगभग 10 प्रतिशत अधिक समय बिताया, शेड्यूल में देरी की और दिन के अंत तक वे अपने पुरुष सहकर्मियों से एक घंटा या अधिक पीछे रहीं। वहीं 2016 में 1.5 मिलियन से अधिक अस्पताल में भर्ती रोगियों पर किये गए एक हार्वर्ड अध्ययन में पाया गया कि में जब मरीजों को महिला चिकित्सकों द्वारा इलाज किया गया, तो उनका पुरुष डॉक्टरों द्वारा देखभाल की तुलना में 30 दिन के समय के अंदर मरने या अस्पताल में भर्ती की संभावना कम थी।
कामकाजी जगह और घरों में असमानता
अमूमन डॉक्टर बनने के लिए जितने वर्ष और खर्च भारतीय शैक्षिक संस्थानों में करने की जरूरत होती है, वह महिलाओं के पढ़ाई में भारतीय परिवार न ही खर्च करना चाहता है, न ही वह समय उन्हें दिया जाता है। अक्सर मध्यम वर्ग परिवारों के लिए लड़कियों की पढ़ाई के बजाय उनकी शादी में खर्च करना ज्यादा आसान है। इसके बावजूद, यदि महिलाएं परिवार के साथ और अपने काबिलियत पर चिकित्सा के क्षेत्र में जाती भी हैं, तो यह रास्ता उनके लिए आसान नहीं होता। बेंगलुरु के ऑक्सफोर्ड मेडिकल कॉलेज के जनरल सर्जरी विभाग के महिला सर्जन पर किए गए एक शोध के मुताबिक हालांकि भारतीय महिला सर्जन अपने पेशेवर विकल्पों से संतुष्ट हैं। लेकिन वे लैंगिक भेदभाव का सामना करती हैं, जिसमें विफलता, अक्षमता और सबसे ज्यादा उनके सहयोगियों और सीनियर का उन्हें जज करना शामिल है। इसके साथ, हमारे देश की महिलाएं कामकाज में कितना भी आगे बढ़ जाएं, घरों में न तो उनके काम का सम्मान होता है, न ही उन्हें घरेलू कामों से छुटकारा मिलता है। इस शोध में शामिल महिला सर्जन में लगभग 70 फीसद ने बताया कि घर के अधिकांश कामों के लिए वे जिम्मेदार थी और 76 फीसद महिलाओं ने बताया कि अपने साथी के मदद के बावजूद, बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी उनकी थी। वहीं 78 फीसद ने बताया कि जेंडर उनके काम और उनके साथ काम पर कैसा व्यवहार किया जा रहा है, उसको प्रभावित करता है और अधिकांश ने लैंगिक भेदभाव की रिपोर्ट भी की।
साल 2021 तक, देश में अधिकांश स्वास्थ्य कार्यकर्ता महिला होने के बावजूद, भारत में अस्पताल के बोर्ड के सदस्यों में से केवल 17 प्रतिशत महिलाएं थीं। महिलाओं के सफलता और सुरक्षित काम करने में सिर्फ पढ़ाई-लिखाई ही नहीं बल्कि हजारों बाधाएं हैं। चिकित्सा सुविधाओं में चाइल्ड केयर, स्तनपान सुविधाओं की कमी, पैड-वेंडिंग मशीनों का न होना, सुरक्षित वातावरण या स्वास्थ्य सेवा केंद्र तक आने-जाने के सुरक्षित उपाए की कमी जैसे महत्वपूर्ण कारण महिलाओं की कार्यबल की भागीदारी में बाधा बनी हुई है। यह और भी महत्वपूर्ण तब हो जाता है जब स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र की नौकरियां लंबे घंटों या आपातकालीन ऑन-कॉल जिम्मेदारियों की मांग करती हैं। ऐसे में जरूरी है कि स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में न सिर्फ हम मौजूदा प्रणाली को मजबूत बनाए बल्कि महिलाओं को नेतृत्व वाले भूमिकाओं के लिए आगे बढ़ाने की कोशिश करें।