फैशन हमारी अभिव्यक्ति का एक मुख्य हिस्सा है। फैशन तक पहुंच, फैशन की समझ, फैशन से जुड़ी सोच सबकुछ राजनीतिक ही नहीं एक नारीवादी मुद्दा भी है। फैशन को लंबे समय से आत्म-अभिव्यक्ति का एक शक्तिशाली रूप माना गया है, जो व्यक्तियों को कपड़ों की पसंद के माध्यम से अपनी पहचान और विश्वास व्यक्त करने की अनुमति देता है। फैशन नारीवादियों के लिए अपनी पहचान व्यक्त करने और सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में कार्य करता है। कपड़ों की पसंद के माध्यम से, व्यक्ति पारंपरिक लैंगिक रूढ़िवादिता से मुक्त होकर सशक्तिकरण का संदेश दे सकता है। समावेशी फैशन लाइनों का उदय विविध पहचानों की बढ़ती मान्यता को दर्शाता है, जो उन लोगों के लिए मुक्ति की भावना को बढ़ावा देता है जो पारंपरिक अपेक्षाओं से परे खुद को अभिव्यक्त करना चुनते हैं।
सशक्तिकरण किसी की पोशाक को स्वतंत्र रूप से चुनने की क्षमता में निहित है। नारीवाद, अपने मूल में, किसी के शरीर और विकल्पों पर स्वायत्तता और एजेंसी की वकालत करता है। फैशन नियंत्रण पुनः प्राप्त करने का एक उपकरण बन जाता है, जिससे व्यक्तियों को अपने स्वयं के आख्यानों को परिभाषित करने और सामाजिक अपेक्षाओं को चुनौती देने की अनुमति मिलती है। इस लेख के ज़रिये हम परिधान, फैशन और राजनीतिक संबंधों को समझने की कोशिश करेंगे। इसके लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के महिला कॉलेज के कैंपस की साथियों से हुई बातचीत पर आधारित उनके अनुभवों को हमने दर्ज करने की कोशिश की है। विभिन्न संस्कृतियों से आई हुई, उभरती हुई महिलाओं के फैशन से जुड़े अनुभव अलग-अलग थे। लेकिन सबके अनुभवों में खुद को अभिव्यक्त करने से जुड़ी हुई शर्म और झिझक से लेकर खुद के मनपसंद वेशभूषा का चुनाव करना, खुद को आत्मविश्वास के साथ स्वीकार करना, दूसरों से प्रेरित होना और दूसरों को प्रेरित करने की कहानी है।
कॉलेज में जींस पहनने का पहला अनुभव
केरल के ग्रामीण क्षेत्र में पली बढ़ी 20 वर्षीय अदिथ्या बताती है, “कॉलेज में आने के बाद उनके फैशन के मामले में बहुत बड़े बदलाव देखने को मिले। मेरा जींस पहनने का पहला अनुभव भी कॉलेज आकर ही पूरा हुआ। यहां आकर मैंने जींस और टी- शर्ट पहना। इससे पहले अपने घर पर मैं कुर्ते जैसे कपड़े पहनती थी। इसलिए, यह मेरे लिए एक नए तरह का अनुभव था।”
वह आगे बताती है, “हालांकि घर वापस लौटने पर मैं दोबारा अपने पुराने पहनावे को ही अपना लेती हूं। मेरे क्षेत्र में जींस जैसे कपड़े पहनने पर लड़कियों के बारे में गलत धारणाएं बनाई जाती हैं। ऐसे विचार से घिरे रहने के कारण मेरे अंदर भी यही कंडीशनिंग थी, पहले मैं खुद भी जींस पहनना या मेकअप करने जैसे चीजों को सही नहीं समझती थी। घर के अंदर दादी को जींस जैसे कपड़े से आपत्ति थी। लेकिन कॉलेज में दाखिला लेने के बाद माँ और मौसी ने मुझे खरीदारी करते वक्त दोनों तरह के कपड़े दिलाए। कैंपस में साथियों को आत्मविश्वास के साथ संजते-संवरते देखकर खुशी होती है और खुद के लिए प्रोत्साहन भी मिलता है। मुझे लगता है कि अब मैं उस मोड़ पर हूं, वहां अपनी सहजता के अनुसार अपने कपड़ों का चयन कर सकती हूं।”
कॉलेज में मिली मनपसंद कपड़े पहनने की आजादी
दिल्ली की निवासी 20 वर्षीय चारू बताती है कि वो एक ऐसे परिवेश से आती हैं जहां घर में एक-दूसरे के फैशन के ऊपर चर्चा करना, यह देखना कि हर कोई खुद को कैसे प्रस्तुत कर रहा है, दूसरों के पहनावे और स्टाइल के ऊपर टिका-टिप्पणी करना और राय देना आम बात है। लेकिन घर की महिलाओं में प्रचलित पहनावे का तरीका बहुत ही प्रतिस्पर्धात्मक लगता था। वह कहती हैं, “मुझे वहां जुड़ाव नहीं महसूस हुआ। खुद को लेकर मन में असहजता का बहुत भाव था। इसलिए, ज्यादातर समय मैंने पढ़ाई- लिखाई पर ध्यान दिया। बचपन से आए दिन यौन हिंसा की घटनाओं के कारण एक तरह का भय सा रहता था, जिस कारण बाहर कुर्ते और कमीज में ही आती-जाती थी। कॉलेज में आकर ही फैशन और खुद को पहनावे से जुड़ी रचनात्मकता का ख्याल आया।”
वह आगे कहती है, “अपने परिवार की कॉलेज में पढ़ने वाली पहली पीढ़ी की विद्यार्थी होने के कारण घर में बहुत आश्चर्यजनक माहौल था। माँ ने बताया कि कॉलेज में सज-संवरकर जाना जरूरी होता है। चारू बताती है कि कॉलेज में उन्हें उनके कुर्ते, झुमकों और कोल्हापुरी चप्पल की वजह से खूब सराहना मिली। कई बार तो बहुत सहेलियों ने बैठाकर पूछा भी कि तुम इतने सुंदर झुमके और कुर्ते कहां से लेती हो। इसके जवाब में मैं बेधड़क बताती थी कि सरोजिनी नगर से। सहेलियों के दिए गए सुझाव को सुनकर बिंदी और चूड़ियां भी अपने पहनावे में शामिल किया। पहले मानती थी कि बिंदी विवाहित महिलाओं के लिए ही है। लेकिन अब शौक से बिंदी भी लगाती हूं।
कॉलेज में जाना लिपस्टिक मुझपर खूबसूरत लगती है
उत्तर प्रदेश की 19 वर्षीय वंदना कहती है, “घर से कॉलेज के लिए दिल्ली आने के बाद काफी कुछ बदलाव अनुभव किया। घर पर कई तरह के कपड़ों को पहनने की आजादी नहीं थी। कॉलेज में एक सुरक्षित माहौल है। यहां हर कोई अपनी पसंद के अनुसार अपने पहनावे को रख सकता है। कई चीज़े हैं जो बदली हैं। जैसे, पहले मुझे अपने शरीर को लेकर विशेष प्रकार का ध्यान रखना पड़ता था, शरीर दिखने पर अच्छा महसूस नहीं होता था। गहरी लिपस्टिक लगाने और मेकअप को मैं गलत मानती थी। अब लिपस्टिक लगाकर मेरे अंदर एक आत्मविश्वास आया है। मैं मानती हूं कि अच्छे से मेकअप करने के बाद और मन मुताबिक़ कपड़े पहनने से आत्मविश्वास बढ़ता है। किसी प्रतियोगिता में अगर मैं अच्छे से तैयार होकर जाती हूं तो मनोबल थोड़ा और बढ़ जाता है। हालांकि घर वापस लौटने पर हर प्रकार के कपड़े पहनने में असहज महसूस होता है क्योंकि कॉलेज और घर के परिवेश में काफी अंतर है।”
पहनावे के माध्यम से आत्मविश्वास की खोज
20 वर्षीय राघवी कहती है, “मैं अपने फैशन की समझ को पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं कर पाती। कई सारी चीज़े हैं जो मुझको बहुत रोकती है। कई बार लगता है कि यह विशेष कपड़ा मेरे शरीर पर नहीं चेगा जंचेगा। इसलिए अपने मन मुताबिक़ फैशन से जुड़ी अपनी रचनात्मकता को प्रस्तुत नहीं कर पाती। ऐसे बहुत कम अवसर होते हैं जब मैने खुद के अंदर आत्मविश्वास भरा महसूस करती हूं और अपनी मनचाहे तरीके से खुद को अभिव्यक्त किया है। कॉलेज में बाकी साथियों को देखकर अच्छा लगता है। थोड़ा मनोबल बढ़ता है। उनको खुद को आत्मविश्वास से ड्रेसिंग करते देखकर मुझे भी बहुत कुछ सीखने को मिलता है। कॉलेज में सब एक दूसरों को प्रोत्साहित करते रहते हैं। लेकिन कई बार सहेलियों की तारीफ पर भरोसा नहीं कर पाती। अक्सर असहज महसूस होता रहता है। कई बार फैशन से जुड़ी जानकारियों के लिए जब सहेलियां मेरी राय लेती तो बेहद अच्छा महसूस होता है।”
पहनावे में दूसरों को प्रोत्साहन देना अच्छा लगता है
केरल के ग्रामीण क्षेत्र में बड़ी हुई 20 वर्षीय निवेदिथा का कहना है, “कैंपस के सुरक्षित माहौल और सहेलियों ने मुझे मेरी फैशन से जुड़ी जिज्ञासा और रचनात्मकता के बारे में नए प्रयोग करने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया। कॉलेज के शुरुआती दिनों में कैंपस के अंदर मुझे किसी तरह की कोई भेदभाव देखने को नहीं मिला। लेकिन मैं हमेशा से कुछ नया प्रयोग करना चाहती थी। शुरू से एक पारंपरिक तरह का पहनावा होने के कारण कुछ नया प्रयोग करने से हिचकती थी। लेकिन धीरे-धीरे नए तरह के पहनावे को भी अपना, फ्रॉक पहनी, सारी के ब्लाउज के बाजू को लेकर भी कई प्रयोग किए।”
वह आगे कहती हैं, “मैं अपना नया पहनावा अपने घर पर भी जारी रखी। शुरुआत में लोगों के टिप्पणी या टोका-टोकी का डर था। लेकिन बाद में मैं पूरी तरह से सहज महसूस करनी लगी। जब हम मन मुताबिक कपड़े और मेकअप करते हैं, तब हमारे अंदर एक विशेष प्रकार का आत्मविश्वास आता है। खुद को दूसरे आयाम में भी निखारने की हिम्मत आती है। निवेदिथा कहती हैं कि मैं बाकी सहेलियों को भी अपने कपड़ों का चुनाव और फैशन करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहूंगी।”
इस तरह के अनुभवों से रूबरू होकर यही लगता है कि फैशन से जुड़ी स्वंत्रता व खुद को अभिव्यक्त करने की आजादी नारीवादी आख्यान का एक जरूरी हिस्सा है। खुद को मन चाहे ढंग से अभिव्यक्त करने के बाद एक तरह का आत्मविश्वास और हिम्मत मिलती है जिसे न सिर्फ फैशन के पहलू ही रचनात्मक होता है बल्कि बाकी अन्य क्षेत्रों में खुद के लिए आवाज उठाने , वैसी ही स्वव्यत्ता पाने की भी हिम्मत मिलती है।