यह एक विडंबना ही है कि आज देश-दुनिया बाजार के क्षेत्र में चाहे जितनी तेजी से आगे बढ़ रही हो पर हमारे भारतीय समाज में ख़ासकर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की भागीदारी नहीं होती। इसे इस तरह कह सकते हैं कि आजादी के इतने दशक बीत जाने पर भी महिलाओं को जीवन-रहन की जो आजादी मिलनी चाहिए थी वो आजतक नहीं मिल पायी। ग्रामीण समाज में महिलाओं को घर में रहने को लेकर जिसतरह का महिमामंडन होता है उसका उल्लेख उनके धार्मिक गंथ्र में भी खूब मिलता है। भारतीय ग्रामीण समाज महिलाओं को लेकर इतने पिछड़ेपन की सोच में प्रतिबंधित दिखता है तो इसका कहीं न कहीं कारण सदियों की कंडीशनिंग है।
आज पूंजी और बाजार के दखल के कारण अगर महिलाएं घर से कुछ सीमा तक निकल भी रही हैं तब भी उनको समाज में वो जगह नहीं मिली जो मिलनी चाहिए। जैसे कि वो अगर किसी स्कूल में पढ़ा रही हैं, कहीं किसी सरकारी या गैरसरकारी संस्थान में नौकरी कर रही हैं तो उनके लिए समाज में निर्धारित है कि वो घर से कार्यस्थल और कार्यस्थल से घर तक ही सीमित रहें। उनको किसी भी समाजिक सरोकारों में शामिल करने का चलन नहीं है। यहां ध्यान से देखने समझ आता है कि पूंजी और बाजार भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अनुरूप कार्य करता है। उनसे मिलने वाली आजादी महिलाओं के पक्ष में नहीं जाती बल्कि एक तरह से उनके दोहरे शोषण में काम आती है।
सार्वजनिक समारोहों में महिलाओं की गैरमौजूदगी
ग्रामीण क्षेत्रों के सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी अगर परोक्ष रूप से कहीं-कहीं है भी तो प्रत्यक्ष रूप से नहीं होती है। इसका कारण भारतीय मानस की सामन्ती धारणाएं हैं जो परंपरा के रूप में चलती आ रहती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के जो भी सार्वजनिक स्थल हैं वो चाहे बैंक हो, बाजार हो, स्कूल या ग्रामपंचायत भवन कहीं भी महिलाओं की समान भागीदारी नहीं दिखती। गांव में शादी ब्याह या सार्वजनिक भोज में भी उनकी उपस्थिति सीमित है। अब जो थोड़ा चलन हुआ है पर शादी ब्याह में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के अनुपात में बेहद कम है। सार्वजनिक भोजों में तो अब भी महिलाओं की कोई भागीदारी नहीं है। गांवों में बहुत बड़े-बड़े मृत्यु भोज और सार्वजनिक भोज होते हैं। लेकिन उन भोजों को खाने के लिए सिर्फ पुरुषों को ही आमंत्रित किया हैं। इसी तरह ग्राम पंचायत भवन में कोई मीटिंग हो या कोई कार्यक्रम वहां भी महिलाओं की गैरमौजूदगी रहती है।
सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं को देखकर अचरज
ऐसा नहीं है कि भारतीय ग्रामीण समाज स्थिर है गतिशील नहीं है। लेकिन गतिशीलता यहां स्थानीयता के दृष्टिकोण से चलती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बाजारों में, या गांव के साप्ताहिक हाट में, गवईं या क्षेत्रीय मेलों में महिलाओं की संख्या बहुत कम दिखती है। इस तरह के सार्वजनिक स्थानों पर जो महिलाएं दिखती भी हैं तो वो कामगार या कुछ निम्नवर्गीय परिवारों की महिलाएं ही दिखती हैं। भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सवर्ण या सामान्य वर्ग की स्त्रियां नहीं दिखती हैं। ग्रामीण इलाकों में ये चलन इतना आम है कि अगर किसी सार्वजनिक स्थल पर स्त्री दिख जाये तो लोग अचरज की तरह देखते हैं।
सार्वजनिक जगहों पर जाने का संकोच
गांव में स्कूल में इंटर में पढ़ने वाली बबली कहती है, “यहां सड़कों पर चाय की दुकानें हैं वहां कोई महिला नहीं जाती है। स्कूल से लौटते समय अगर कभी मन भी करता है तो हमें जाते हुए बेहद संकोच होता है क्योंकि वहां खड़े पुरुषों का समूह और यहां तक कि दुकानदार भी हमें अजीब तरह से देखते हैं कि आखिर हम ऐसे सार्वजनिक स्थलों पर क्यों आ गये हैं।” जिस तरह भारतीय परंपरागत समाज का ढांचा बना है, उसमें ज्यादातर स्त्रियां इससे कोई प्रतिवाद करती नहीं नजर आतीं। लेकिन कुछ ग्रामीण स्त्रियां इस पूरी ग्रामीण व्यवस्था से नाराज दिखती हैं। उनका कहना है कि स्त्रियों को लेकर ग्रामीण इलाकों के सार्वजनिक स्थलों पर हमेशा से अनदेखी की जाती है।
सार्वजनिक स्थलों पर भागीदारी करने के लिए हमेशा से उन्हें दोयम दर्जे का मनुष्य माना जाता है। ग्रामीण इलाकों में अगर स्त्रियों की समान भागीदारी की बात वहां की स्त्रियों से की जाए, तो उनके जो अनुभव हैं या जो वो देखती-झेलती आ रही हैं उसमें कहीं न कहीं नाराजगी दिखती है। हालांकि नाराजगी को भी वे प्रतिरोध की तरह व्यक्त नहीं कर पाती हैं। गांव के स्कूल में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मंजू देवी कहती हैं, “अनुपात में देखा जाये तो शहरों में भी सार्वजनिक जगहों पर पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं कम ही दिखती हैं। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का अनुपात बेहद कम है।”
समाज में भेदभाव और अंतर्विरोधों की बात पर परास्नातक की छात्रा शालिनी कहती है, “हमारे दादा जी के मृत्युभोज में लगभग दो हजार लोगों को खाना खिलाया गया लेकिन उनमें से एक भी स्त्री नहीं थी सब पुरूष ही थे।
सार्वजनिक जगहों पर पुरुषों को महत्व देता समाज
ग्रामीण परिवेश के सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी की बात पर स्नातक की छात्रा नेहा एक घटना का ज़िक्र करते हुए कहती है, “हमारे गांव में सामने ही एक दुर्गा देवी का मंदिर है। नवरात्रि में वहां सारी स्त्रियां एकत्रित होती हैं। वे भजन और कीर्तन करती हैं। शाम में आरती भी होती हैं। अगर भागीदारी की बात की जा रही है तो महज एक घटना से इसका अनुमान लगाया जा सकता है। मंदिर में आरती के समय पुरुष भी होते हैं। आरती के बाद जब वहां प्रसाद का वितरण होता है, उसी समय एक स्त्री कहती है कि है कि मुझे प्रसाद दे दीजिए। मुझे जल्दी घर जाना है, घर जाकर खाना भी बनाना है। प्रसाद वितरित करने वाला वह एक लड़का उन्हें इस तरह से जवाब देता है कि पहले पुरुषों को दे दिया जाए। वे लोग बैठे हैं फिर आपको प्रसाद मिलेगा।”
नेहा आगे बताती है, “उस वक्त मैं वहां बैठी थी। मुझे थोड़ा गुस्सा भी आया। मैंने उसे रोका और कहा कि पहले इन्हें प्रसाद दो, इन्हें घर जाकर खाना भी बनाना है। लेकिन उस लड़के ने मेरी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और पुरुषों की तरफ चला गया।” यहां इस तरह के व्यवहार से पता चलता है कि पूरा समाज पितृसत्तात्मक है। अगर कोई युवा और शिक्षित लड़की इस बात का थोड़ा सा विरोध करती है, तो उसकी बात की अनदेखी की जाती है। नेहा मानती है कि अगर बात महिलाओं की सामान्य भागीदारी की हो जहां कुछ जगहों पर महिलाएं जाती भी हैं, पर वहां भी पितृसत्ता का कोई न कोई बाधा आ ही जाता है।
अर्थव्यवस्था से दूर काम करती महिलाएं
इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों के बैंकों में स्कूलों में या किसी भी संस्थानों में स्त्रियों की भागीदारी बहुत कम होती है। समाज के चलन के भीतर भी स्त्रियों को लेकर बेहद अंतर्विरोध दिखते हैं। जैसे, स्त्रियों को खेतों में कार्य करने के लिए कोई प्रतिबंध नहीं है। लेकिन हाट-बाजार जाने के लिए उनको कोई सहूलियत नहीं बल्कि जो स्त्री हाट-बाजार जाती रहती हैं गांव में उसको हेय दृष्टि से देखा जाता है।
उत्तरप्रदेश के मनिहारी गांव की रामा देवी कहती है, “जैसे स्त्रियों का बाजार जाकर घर का सामना लाना कोई अपराध या बेहद शर्मनाक कार्य हो। गांव में जो स्त्री बाजार जाकर अपनी सुविधा से घर का सामान लाती है उसको लोग दबी-दबी जबान में चरित्रहीन स्त्री कहते हैं।” वह आगे बताती है कि मेरे पति मजदूर हैं काम से लौटते-लौटते उन्हें काफी रात हो जाती है। इसलिए घर का सामान लाने मैं खुद बाजार चली जाती हूं, तो गांव के लोग मुझे लेकर बातें करते हैं कि मुझे तो बाजार घूमने का चस्का है।
गांव के स्कूल में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मंजू देवी कहती हैं, “अनुपात में देखा जाये तो शहरों में भी सार्वजनिक जगहों पर पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं कम ही दिखती हैं। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का अनुपात बेहद कम है।”
सामाजिक भेदभाव और अंतर्विरोध
समाज में भेदभाव और अंतर्विरोधों की बात पर परास्नातक की छात्रा शालिनी कहती है, “हमारे दादा जी के मृत्युभोज में लगभग दो हजार लोगों को खाना खिलाया गया। लेकिन उनमें से एक भी स्त्री नहीं थी सब पुरूष ही थे। उस मृत्युभोज में मैंने देखा कि सिर्फ एक स्त्री की उपस्थिति हुई थी और लोग उनको बहुत मान-सम्मान दे रहे थे। बाद में पता चला कि वो उस क्षेत्र की महिला विधायक थीं। अब यहां उस पारंपरिक समाज में व्याप्त अवसरवादी प्रवृत्ति दिखती है। एक चलन में अंतर्विरोध दिखता है कि कैसे सत्ता और ताकत के लिए वो हर तरह के भेदभाव जातीय हो या लैंगिक सबको दरकिनार कर देते हैं। लेकिन अगर उसी जगह कोई सामान्य स्त्री वहां शामिल होना चाहे, तो उसका मजाक उड़ाया जाता है। भारतीय समाज मूल रूप से जिस तरह के गैरबराबरी के ढांचे से निर्मित है, भारतीय ग्रामीण समाज उस ढांचे का जड़ पैरोकार अभी तक बना हुआ है।
ये पितृसत्तात्मक समाज अपने विशेषाधिकार के चलन को सदियों से महिलाओं के कंधे पर लादकर चलता है। अपनी सत्ता के चाहत पर अपने विशेषाधिकार को हर तरह से उचित ठहराता है। इनके मिथक से लेकर कहावतें और मुहावरे सब स्त्रियों के अधिकारों से उनको दूर रखने की ही बात करते हैं। सामाजिक विषमता और अन्यायपूर्ण रीति-रिवाजों के कारण ग्रामीण इलाकों में सार्वजनिक स्थानों में महिलाओं की भागीदारी बेहद कम होती है। यहां स्त्रियों की मौजूदगी को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है। ग्रामीण इलाकों में बसों में ट्रेनों में या पब्लिक ट्रांसपोर्ट में महिलाओं की उपस्थिति पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम होती है। ग्रामीण क्षेत्रों के सार्वजनिक स्थानों या संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी कितनी होती है, ये बात समझने के लिए भारतीय ग्रामीण समाज के लैंगिक अवधारणा को समझना होगा क्योंकि यहां सारी व्यवस्था उन्हीं अवधारणाओं पर आधारित होती है।