आज समाज में महिलाओं के नौकरीपेशा होने से जो भी बदलाव हुए हैं उसकी बड़ी कीमत महिलाएं ही चुका रही हैं। आज शहरी निम्नमध्यवर्गीय परिवारों में या ग्रामीण इलाकों में विशेष कर हिन्दी पट्टी में महिलाओं को बाहर निकल कर काम करने की छूट मिली है। सरकारी नौकरी की तैयारी करने की ही बात हो तो वहां उनको बस अनुमति मिली है नौकरी करने की। उसके लिए या उसकी तैयारी के लिए कोई भी सुविधा या सहूलियत की गुंजाइश नहीं रहती है। घर की जिम्मेदारी से लेकर पढ़ाई और नौकरी की तैयारी के सारे श्रमों में उनकी भूमिका एक घरेलू मजदूर की तरह हो जाती है। घर से पढ़ाई कर रही स्त्री या नौकरी की तैयारी कर रही स्त्री के लिए सारे घरेलू कार्य करने हमेशा की तरह अनिवार्य ही होते हैं और अगर इसमें वो कम सक्रिय होती है या इस बात का कोई प्रतिरोध करती है तो घर में एक बड़ा तनाव का माहौल बन जाता है।
उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले में रहने वाली प्रतिमा यादव कहती है कि हमारे यहां खासकर यादव बिरादरी में महिलाओं के सरकारी नौकरी करने की चाहत परिवारों में खूब है। लेकिन तैयारी करने के लिए उस तरह की सुविधा नहीं मिलती है। वह कहती है, “मेरी शादी ग्रेजुएशन के पहले साल में ही हो गई और बताया गया कि अब से पढ़ाई का सारा खर्च ससुराल पक्ष वाले उठाएंगे। खर्च तो उठाया ससुराल वालों ने क्योंकि सब चाहते थे कि मैं सरकारी नौकरी करूं। लेकिन अपनी तरह से उन्होंने पढ़ाई करने की या बाद में तैयारी करने की कोई सहूलियत नहीं दी जिसकी ज़रूरत थी।”
शादी और पढ़ाई में तालमेल की कमी
प्रतिमा आगे बताती है कि शादी के बाद बच्चे और घर की बीच पढ़ाई का तालमेल नहीं बन पाया जिसकी आवश्यकता थी और और इसका परिणाम ये हुआ कि किसी भी परीक्षा में सफल न हो पायीं। धीरे-धीरे परिवार में तनाव बढ़ा और बाद में मैंने शहर की राह ली। आज वह एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हैं और घर पर कुछ बच्चों को ट्यूशन कराती हैं जिससे घर का खर्च मुश्किल से चलता है। वह शहर आकर खुश है लेकिन सरकारी नौकरी पाने की ललक और उसे न पाने का असंतोष उनके व्यक्तित्व में दिखता है।
अलका कहती है, “बेटी के जल्दी विवाह को लेकर उन्होंने पति से विरोध किया लेकिन उन्होंने ये दलील दी कि बहुत धनी लोगों के यहाँ बेटी का विवाह हो रहा है वहाँ जाकर बिटिया को पढ़ने की और सुविधाएं मिलेगी।”
घर की जिम्मेदारियों में पढ़ाई के प्रति रूझान की कमी
प्रतिमा कोई अकेली उदाहरण नहीं है। अगर इस पूरे परिवेश की महिलाओं की स्थिति का अध्ययन किया जाए, तो ये जाने कितनी महिलाओं के जीवन का यह सच है। उनका यही जीवन है जिसके प्रति उनके मन में कोई ठोस प्रतिरोध भी नहीं दिखता। यहां महिलाओं का जीवन शिक्षा और सहूलियत का कोई ग्राफ बने तो वो बहुत बेमेल होगा। पुरुषों को महिलाओं की अपेक्षा ये सारी सहूलियतें कहीं ज्यादा मिलती हैं। पुरुषों को पढ़ाई या तैयारी के लिए जितना समय और आर्थिक आज़ादी मिलती है महिलाओं को उस अनुपात में ये आज़ादी बहुत कम मिलती है। किसी भी विद्यार्थी या अभ्यर्थी के लिए जो सहूलियतें होती हैं जैसे अच्छी यूनिवर्सिटी या अच्छे कोचिंग संस्थान, भरपूर समय या प्रोत्साहन, महिलाओं को इनमें कुछ भी मिलना बेहद कठिन होता है। बल्कि इसके बरक्श उनके जीवन मे शादी, बच्चा, घर-परिवार सब थोप दिया जाता है।
बिहार के डुमरांव शहर की रहने वाली महिमा कहती है, “मैं पढ़ने में अच्छी थी लेकिन मेरा विवाह बहुत जल्दी हो गया क्योंकि कि घर के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे। माता-पिता को लगा था कि ससुराल पक्ष वाले मेरा सब खर्च उठाएगें तो मुझे पढ़ाई करने में सुविधा होगी लेकिन हुआ इसका उल्टा खर्च तो उन्होंने उठाया लेकिन विवाह और ससुराल पक्ष वालों की जिम्मेदारियों तले मेरी पढ़ाई का रुछान दब गया। फिर जब बाद में बच्चे हो गये तब तो पढ़ाई और नौकरी की तैयारी सब बेहद कठिन हो गया।” आगे वह कहती है, “पढ़ाई करके अच्छी नौकरी प्राप्त करने की मेरी इच्छा एकदम से खत्म नहीं हुई है मुझे हर पल एक एहसास कचोटता रहता है कि मैं जीवन में कुछ और बेहतर कर सकती थी। वहीं दूसरी तरफ पति और ससुराल पक्ष को ये लगता है कि कितनी लड़कियां सब कर लेती हैं घर परिवार बच्चा और सरकारी नौकरी भी प्राप्त कर लेती हैं लेकिन तुममें वो हुनर या जज्बा ही नहीं था।”
आज यही स्थिति ग्रामीण इलाकों से लेकर लगभग शहरी निम्नमध्यवर्गीय जीवन जीती पढ़ी लिखी महिलाओं की है। भारतीय समाज का परम्परागत ढाँचा पहले तो उनको तमाम बंधनों में अलग-अलग तरह के तनावों में जकड़ देता है और फिर ये भी अपेक्षा रखता है कि वो नौकरी करके ढेर सारा रुपया भी घर में लायें। आखिर जिस हाड़ माँस से बनी देह को घरेलू व्यवस्था आधुनिक यंत्र बनाना चाहती है वो कितना बोझ ढो लेगी इस व्यवस्था का। क्या उसका मन, उसका शरीर थकता नहीं। होता ये है कि इतनी कठिनाइयों के बावजूद ढेर सारी महिलाएं ये बोझ ढो रही हैं तो इसी से घर-परिवार और समाज ये अपेक्षा रखने लगा है कि महिलाएं बिना किसी सहूलियत के महामानव बन कर उनकी सारी ज़रूरतें पूरी करती रहें।
शादी के बाद बंद होती पढ़ाई
उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले रहने वाली अलका उम्र का एक पड़ाव पार कर चुकीं हैं। अलका की शादी इंटर पास करते ही हो गयी थी। बाद में किसी तरह ससुराल से ही गोद में बच्ची लिये अलका ने परास्नातक की पढ़ाई की। उनकी पढ़ाई पत्राचार से हुई थी। बहुत कोशिश के बाद भी घर की तमाम जिम्मेदारी के कारण वो नौकरी नहीं प्राप्त कर पायीं। लेकिन अपनी बच्ची के लिए वह एक आत्मनिर्भर जीवन का सपना देखती है। उन्होंने अपनी बेटी को बहुत सहूलियत से इंटर तक पढ़ाई कराने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी भेजा। लेकिन समाज की परम्परागत व्यवस्था से वो लड़ नहीं पायी।
ग्रेजुएशन के समय ही उनकी बेटी का विवाह कर दिया गया। अलका कहती है, “बेटी के जल्दी विवाह को लेकर उन्होंने पति से विरोध किया। लेकिन उन्होंने ये दलील दी कि बहुत धनी लोगों के यहां बेटी का विवाह हो रहा है, वहां जाकर बिटिया को पढ़ने की और सुविधाएं मिलेगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। आज बेटी भी घर में रहकर घर परिवार की जिम्मेदारी सम्भालते हुए पढ़ाई कर रही है। वहां फ़िलहाल कोई उजला भविष्य नहीं दिखता।”
आर्थिक चुनौतियों में नौकरी करने की मजबूरी
ये हो गयी दो पीढ़ी की स्त्रियों की कहानी। उनके जीवन में कुछ बाजार बदलाव के सिवा कुछ बदला ही नहीं। समाज एक तरफ परम्परा का सूत्र पकड़े रहता है, दूसरे तरफ बाजार के पीछे भी दौड़ता रहता है। स्त्रियों का नौकरी करना, उसका वही बाजार का मोह है न कि स्त्रियों के प्रति बराबरी या उनके आत्मनिर्भर होने की चेतना। स्त्रियां भी इस पूरे तंत्र को बहुत समझ नहीं पाती या मजबूरी में इसी परिस्थिति में गुजारा करती हैं। एक तो समाज की सदियों की जड़ कंडीशनिंग और दूसरा बाजार ने उनको भी बहुत ज्यादा प्रभाव में जकड़ के रखा है।
आज स्त्रियां भी घर-परिवार के लिए ज्यादा से ज्यादा बाज़ार की सुविधाएं जुटाने में लगी हैं। घर तो हमेशा से स्त्रियों के लिए प्रथम प्राथमिकता रहा है और अब तो बाजार तमाम तरह से उन्हें समझा रहा है कि घर को ज्यादा से ज्यादा संवारे तो परिवार का ज्यादा से ज्यादा ख्याल रखो। हालांकि ये बातें स्त्रियों के जेहन में पहले से जड़ हो गई हैं लेकिन बाजारी चमक-दमक में ये इच्छायें ज्यादा पवित्र, ज्यादा चमकीली दिखती हैं।
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हुए गैरबराबरी
नौकरी के जरिये आर्थिक आजादी के सपने देखती उत्तरप्रदेश बनारस जिले की रहने वाली आकांक्षा विवाहित हैं और एक बच्ची की माँ भी हैं। आकांक्षा कहती है, “इस बात पर चाहे जितना जोर दिया जाए कि लड़कियों को लड़कों की तरह पढ़ने लिखने की आजादी मिल रही है, लेकिन लड़कियों को घर में लड़कों जितनी सहूलियत बहुत कम ही मिलती है। मैं और मेरे पति एक साथ सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे हैं। हमारा घर-परिवार कहने को तो आधुनिक व प्रगतिशील विचारों का परिवार है। लेकिन वहां हमारे और हमारे पति की बीच ही कई तरह के गैरबराबरी के व्यवहार होते हैं।”
इसी बात के क्रम में वह आगे कहती है, “मैं पढ़ने में शुरू से ही बहुत तेज थी मेरे आसपास सबको लगता था कि मैं सिविल सेवा में जाऊँगी। लेकिन इसी बीच मेरी शादी हो गई और कुछ ही साल में दिखने लगा कि मैं पढ़ाई में औसत हूँ क्योंकि कि कॉलेज, कोचिंग आदि छूटे परिवार और बच्चे की जिम्मेदारी ने मेरा ध्यान पढ़ाई से बाँट लिया। अब घर से कहीं दूर जब एक्ज़ाम देने जाती हूं तो ध्यान बच्चे पर लगा रहता है।” समाज में अगर महिलाओं की स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आ पा रहा है तो इससे यही समझ में आता है कि लैंगिक भेदभाव की गहरी खाई में धंसा ये समाज क्योंकि जब पढ़ी-लिखी चेतना सपन्न महिलाओं को अपने सपनों के लिए इतना संघर्ष करना पड़ रहा है तो उन महिलाओं की जीवन-दशा कैसी हो सकती है जिनके पास शिक्षा और चेतना दोनों की ताकत नहीं होती है। गैरबराबरी और भेदभाव से बने इस समाज मे महिलाओं के संघर्ष की राह बहुत कठिन है।