प्रगतिशील और आधुनिक विचारों से बनती दुनिया में में लैंगिक विषमताओं को लेकर समाज में आमूल-चूल परिवर्तन की दरकार थी लेकिन हुआ ये कि समाज अपने परम्परागत ढाँचे में अपनी सुविधानुसार ही परिवर्तित हुआ। जिसमें एकतरफ तो वो स्त्रियों को कामकाजी बनाने की बात तो करता है लेकिन अपना परम्परागत सामन्ती ढाँचा बनाये रखता है। इसका सबसे बड़ा कारण है पितृसत्तात्मक समाज के अपने विशेषाधिकारों के छूटने के भय से ग्रसित है। समाज में लैंगिक समानता आने से केवल स्त्रियां ही नहीं बल्कि पुरुषों का भी जीवन ज्यादा बेहतर हो सकता है। लेकिन पितृसत्ता कैसे भी करके स्त्री पर अपना आधिपत्य बनाये रखना चाहती है।
आज जब स्त्रियां घर से बाहर निकल कर कार्य कर रही हैं तो समाज में काफी चीजें बदल रही हैं। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों का नौकरी करना कहीं न कहीं से उनको स्वतंत्रता देता ही है लेकिन उस नौकरी की तैयारी में उसे पुरुषों की अपेक्षा कैसे सारे अन्य संघर्ष करने पड़ते हैं। कहने का तात्पर्य ये है कि पितृसत्ता का समाज उतना ही प्रगतिशील हुआ है जितने में उसका स्वार्थ सधता रहे। नेट का एक्जाम देश की कठिन परीक्षाओं की श्रेणी में पांचवे नम्बर पर आता है। अभी कुछ दिन पहले की बात जब मैं नेट का एक्जाम देने गयी तो देखा कि आधार की पहचान के लिए बहुत सारी लड़कियों के अंगूठे नहीं लग रहे थे क्योंकि सब्जी काटते -काटते, बर्तन और कपड़े धुलते उनके अंगूठे घिस गये थे और परीक्षक उन्हें डांट रही है कि ये लड़कियां क्या ही परीक्षा देंगी। क्या ही लिखतीं-पढ़ती होंगी इनके अगूँठे इतने घिस गये हैं कि लग ही नहीं रहे हैं।
बनारस जिले के ही किसी गाँव से आरती कहती है, “परीक्षा की तैयारी के लिए घर में इतना कम समय मिलता है। परीक्षा की तैयारी के दिनों में वो बहुत कम सो पाती हैं क्योंकि रात को बहुत देर तक वो परीक्षा की तैयारी करती है और सुबह जल्दी उठना पड़ता है।”
अब कई सारी लड़कियों के अंगूठे न लगने से महिला परीक्षक खीज सी गयी जबकि इसमें परीक्षा देने आयी लड़कियों की कोई भूमिका नहीं है। पूरा समाज स्त्रियों के लिए इसी तरह बनाया गया है लड़की जब ब्याह करके ससुराल आती है तो वहां मान लिया जाता है कि अब से घरेलू सारे कार्य करने की जिम्मेदारी आयी हुई लड़की की है। इसमें भी बहुधा ये भी देखा जाता है कि लड़कियां खुद ही पढ़ाई-लिखाई से ध्यान हटाकर ससुराल में सारा कार्य अपने जिम्मे ले लेती हैं। हालांकि ये स्थिति भी सामाजिक कंडीशनिंग का दबाव होता है। गाँव में तो ये बाकायदा चलन है कि घर के भीतर का कोई भी कार्य पुरुष नहीं करेंगे। पूरे गवईं परिवेश के ये हाल है कि भले पति-पत्नी दोनों पढ़ाई या नौकरी कर रहे हैं घर के भीतर का सारा कार्य पत्नी को ही करना है। बात यहाँ एक नेट की परीक्षा की नहीं है लगभग सारी परीक्षाओं में महिला अभ्यर्थी का यही हाल है।
क्या परीक्षा की तैयारी के लिए समय है
उत्तरप्रदेश के मडियाहू से आई अभ्यर्थी अंकिता को लेकर एक्जाम हॉल में कुछ दिक्कतें आयीं हुआ ये की परीक्षा के नियम के अनुसार अंकिता के बाल का क्लचर निकलवा लिया गया तो अंकिता परेशान हो गई क्योंकि बाल बहुत लम्बे और बेतरतीब थे महिला परीक्षक आगे बढ़कर उसके बाल की चोटी बनाने की कोशिश करने लगी तो पता चला कि बाल में बहुत दिनों से कंघी ही नहीं की गई है इसलिए इतने उलझ गए हैं कि चोटी भी नहीं बन पायेगी। अभ्यर्थी लड़की अंकिता ने बताया कि उसका बच्चा छोटा है और घर में बहुत सारा काम उसको ही करने पड़ते हैं और साथ में परीक्षा की तैयारी में जरा भी समय अपने लिए नहीं मिल पाता था। अंततः उसी हालत में किसी तरह बाल समेट कर अंकिता ने नेट का एक्जाम दिया।
परीक्षा खत्म होने के बाद मैं बाहर निकल कर उस सेंटर पर दूर-दूर गवईं इलाकों से और शहरी जीवन से भी परीक्षा देने आयी। तमाम लड़कियों से परीक्षा की तैयारी और घर समाज की दशा पर बातचीत करने लगी। ज्यादातर आयी हुई लड़कियों की एक ही कहानी थी। घर में इतना काम उन्हें करना होता है कि न पढ़ने का समय मिलता है न ही इस खुद के स्वास्थ्य का ध्यान रखने का समय मिलता है। वहाँ आयी हुई कितनी सारी लड़कियों ने बताया कि उनके पति भी उनके साथ ही नेट का एक्जाम दे रहे हैं लेकिन उनको घर में परीक्षा की तैयारी की सारी सुविधाएं और सहूलियत मिलती है। ये एक सामाजिक विडंबना ही है कि घर के दोनों लोग एक ही पढ़ाई एक ही परीक्षा की तैयारी करते हैं और दोनों के संघर्ष में कितना बड़ा अंतर है। ज्यादातर लड़कियां तो इस भेदभाव को भी हँसकर बता रही थीं जिससे ये समझ में आता है कि सदियों का शोषण, अन्याय कैसे चेतना को अपने अनुकूल ढाल लेता है।
नेट का दूसरी बार एक्जाम देने आयी बनारस जिले के ही किसी गाँव से आरती कहती है, “परीक्षा की तैयारी के लिए घर में इतना कम समय मिलता है। परीक्षा की तैयारी के दिनों में वो बहुत कम सो पाती हैं क्योंकि रात को बहुत देर तक वो परीक्षा की तैयारी करती है और सुबह जल्दी उठना पड़ता है।” अब ऐसा नहीं था कि वहाँ परीक्षा देने आईं सारी लड़कियों का जीवन संघर्ष लगभग एक जैसा था लेकिन बहुत कम लड़कियां वहाँ आयी हुई थीं जिन्होंने बताया कि उनके जीवन में इस तरह के संघर्ष कम हैं। उन्हें घर-परिवार से पढ़ाई की सहूलियत और नौकरी की तैयारी की तमाम सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं। इस तरह की बात करने वाली ज्यादातर लड़कियां अविवाहित थीं और घर पर उन्हें बहुत कम घरेलू कार्य करने पड़ते हैं।
अकेले जाने की नहीं है छूट
उत्तरप्रदेश के अंबेडकर नगर रहने वाली स्नेहा इस सामाजिक भेदभाव को लेकर कहती है, “बात अगर लड़के और लड़कियों की पढ़ाई और नौकरी की तैयारी को लेकर की जाए तो आज भी बहुत तरह की असमानताएं हैं जैसे अगर आपको किसी तरह का एग्जाम देना हो और उसके लिए कहीं दूर जाना हो तो इसके लिए आज भी लड़कियों को कई बार सोचना पड़ता है कि इतनी दूर कैसे जाएं। घरवाले अकेले जाने देने के लिए आसानी से तैयार ही नहीं होते।”
स्नेहा कहती है कि यहाँ मैं ख़ुद अपना अनुभव बता रही की मुझे कुछ दिन पहले बीपीएससी का एग्जाम देने बिहार जाना था। प्रदेश से बाहर एक्जाम देने जाने के लिए घरवाले तैयार नहीं हो रहे थे। ये पहली बार था जब मुझे अपने गाँव, शहर से बाहर किसी दूसरे राज्य में परीक्षा देने के लिए जाना था। बहुत ही तनाव भरे दिन थे वे। मुझे कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा पहली बात तो घर वाले ही मना कर रहे थे कि परीक्षा देने बिहार न जाओ। वहाँ जाना ठीक नहीं है। और फिर अकेले कैसे जाओगी। वहाँ कोई रिश्तेदार नहीं है और साथ में कोई लेकर जाने वाला नहीं है।
वह आगे कहती है, “मेरी लड़ाई बहुत कठिन थी। घरवाले तमाम तरह से बस न जाने की कोशिश करते रहे। इन सब रुकावटों के बावजूद मैंने तय किया की मुझे जाना है ये मेरे जीवन का पहला ऐसा अनुभव था की मैं एक राज्य से दूसरे राज्य अकेले परीक्षा देने जा रही थी। और अंततः मैं किसी तरह सबकी नाराज़गी झेलते हुए बिहार परीक्षा देने गयी। लेकिन मेरे जेहन में डर के इतने तनाव और सफर की दिक्कतें ऐसी हावी रहीं कि मैं परीक्षा में सफल न हो सकी। लेकिन मुझे ये सोचकर अच्छा लगता है कि मैंने अकेले जाकर दूसरे राज्य में परीक्षा दी।”
दरअसल इन मुश्किलों पर बहस करते हुए सबसे अहम बात है कि स्त्रियों जीवन की नयी चुनौतियों को नये सिरे से समझना और उनसे हमें जुझना होगा। आज हम स्त्रियों को जो शिक्षा, स्वाधीनता और अभिरूचि की स्वतंत्रता मिली है उसे हमारी संघर्षरत पुरखिनों ने किस साहस और संघर्ष को हमको सौंपा है उस परिपाटी को याद करते हुए संघर्ष की उसी राह पर चलना होगा। आज जो हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी मिली है उसे स्त्री सरोकारों के सही संदर्भों से जोड़कर स्त्री को और मजबूत, सही अर्थों में शिक्षित होना है और आत्मनिर्भर होने के साथ चेतनाशील होना अनिवार्य है।
समाज में शोषित मनुष्यों की चाहे वो स्त्री हो या हाशिये के जन सबकी यही मुश्किलें हैं उनके सामने स्पर्धाओं में खड़ा ज्यादातर मनुष्य सुविधाओं से लैस होता है क्योंकि लैंगिक असमानता, जातीय भेदभाव और वर्गीय अंतर में विभाजित है। ऐसे समाज में खुद के लिए जगह बना पाना बहुत कठिन होता है। समाज में लैंगिक भेदभाव की जो अतल खाई हैं उसे पाटने के लिए जरूरी है कि स्त्रियां सशक्त और आत्मनिर्भर बनें लेकिन उसके लिए स्त्री के संघर्ष के सामने संघर्ष की कड़ी चुनौती है।
स्त्री की राह में इतने तरह के संघर्ष हैं कि जिनका अलग-अलग आकलन किया जाये तो पता चलता है कि सब पितृसत्ता की सदियों की बनी-बनायी मान्यताओं, धारणाओं की देन है। समाज में स्त्री के लिए बनी सारी रवायतें, चलन, परम्परायें सब किसी न किसी रूप में उनके अधिकार को सीमित करती हैं। बहुत लगता है कि स्त्रियां अपने अधिकारों के लिए चेतनाशील क्यों नहीं होती, आखिर कंडीशनिंग तोड़ती क्यो नहीं जबकि समाज की सारी कंडीशनिंग सत्ता तय करती है, पितृसत्ता। इसलिए हर परिस्थिति और हर मोड़ पर हमारी लड़ाई पितृसत्ता है।