इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत आखिर महिलाओं का ‘अख़बार पढ़ना’ एक आश्चर्यजनक काम क्यों है?

आखिर महिलाओं का ‘अख़बार पढ़ना’ एक आश्चर्यजनक काम क्यों है?

लोक के साहित्य में गीतों कहावतों और चुटकुलों में इस तरह की धारणा के चिन्ह मिलते हैं जिसमें स्त्रियों के पढ़ने-लिखने को लेकर तमाम तरह के मजाक और व्यंग मिलते हैं। सर्वशिक्षा अभियान के दौरान जब एक नारा काफ़ी लोकप्रिय हुआ था "पढ़ी-लिखी नारी/ घर की उजियारी, तो लोक के समाज में इसे बदलकर कहा जाने लगा "पढ़ी-लिखी नारी घर की उजारी।,

ग्रामीण जनजीवन के किसी कस्बे या गांव में आप घूमते हुए देख सकते हैं कई सारे पुरुष अपने घर के बाहर दहलीज पर बैठकर अख़बार पढ़ रहे होते हैं। उन्हीं जगहों पर आसपास आपको स्त्रियां भी दिख जाएंगी। पर कोई भी स्त्री आपको पुरुषों की तरह बैठकर अख़बार पढ़ते हुए नहीं दिखेगी। ऐसे में अगर कहीं किसी गांव, जवार या कस्बे में कोई महिला अख़बार पढ़ती है तो लोग उसे अचरज से देखते हैं। भारतीय जनमानस में शिक्षा को पुरुषों से इस तरह जोड़ दिया गया है कि महिलाओं को उसमें वो एक अजूबे की तरह देखते हैं।

प्राचीन काल में महिलाओं की शिक्षा को लेकर बहुत अलग-अलग अवधारणा मिलती है। जिन दिनों समाज में सती प्रथा का चलन था, उस समय महिलाओं को शिक्षा से दूर रहने का भी चलन था। पौराणिक कुछ ग्रंथों में स्पष्ट लिखा गया था कि स्त्रियों को शिक्षा से दूर रहना चाहिए। यहां तक भी कहा गया है कि स्त्री और शूद्र अगर वेद वाक्य सुन लें तो उनके कानों में पिघला हुआ शीशा डालना चाहिए। यही परम्परागत धार्मिक विचारों के प्रभाव से गांवों में आज भी महिलाओं की शिक्षा को लेकर बहुत निराशा दिखती है। उनके पढ़ने-लिखने को लेकर बहुत तरह के मजाक और चुटकुले बनाये जाते हैं।

भेदभाव की बात चम्पा देवी आहत होकर कहती है “उन दिनों मुझे उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था और रेडियो पर गाने सुनने का भी लेकिन गाँव की औरतें मुझे उपन्यास पढ़ते देख कहती थी कि रामायण पढ़ा करो, गन्दी किताब क्यों पढ़ती हो। मैं खिझकर रह जाती उन्हें समझाने की भी कोशिश करती लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता।”

कितना बदला है समय

आज समय बदल गया है। शिक्षा के दम पर स्त्रियां बाहर निकलकर काम कर रही हैं। यहां तक कि गांवों में भी स्त्रियां बाहर निकल कर नौकरी कर रही हैं। तब भी यहां का लोक समाज उनके अख़बार पढ़ने, समाचार सुनने को लेकर संदेह से देखता है और उनका मजाक बनाता है। यहां गांव में बचपन से रहकर मैं अक्सर देखती हूँ कि अगर कोई महिला अख़बार पढ़ रही है या टीवी या रेडियो पर समाचार देख रही है तो पुरुष मजाक बनाते हुए कहते हैं कि स्त्रियों को समझ में कुछ नहीं आता। महज शौक के लिए लोगों को दिखाने के लिए कि इनको भी देश-दुनिया की समझ है, समाचार-पत्र पढ़ती हैं, न्यूज़ चैनल देखती हैं।

स्त्रियों के अख़बार पढ़ने में क्या है समस्या

तस्वीर साभारः पूजा राठी

दरअसल पूरे लोक मानस में स्त्रियों और दलितों की शिक्षा को बहुत कमतर दृष्टि से देखा जाता रहा है। लोक के साहित्य में गीतों, कहावतों और चुटकुलों में इस तरह की धारणा के चिन्ह मिलते हैं जिसमें स्त्रियों के पढ़ने-लिखने को लेकर तमाम तरह के मजाक और व्यंग्य मिलते हैं। सर्वशिक्षा अभियान के दौरान जब एक नारा काफ़ी लोकप्रिय हुआ था ‘पढ़ी-लिखी नारी/ घर की उजियारी’, तो लोक समाज में इसे बदलकर कहा जाने लगा ‘पढ़ी-लिखी नारी घर की उजारी।’ गवईं समाज में स्त्रियों की पढ़ाई-लिखाई को संदिग्ध रूप से देखने का चलन पता नहीं कब बंद होगा। लेकिन इसकी नींव धार्मिक अवधारणाओं से ही पड़ी है।

पढ़ने पर दोषारोपण

सुल्तानपुर जिले की रहने वाली संगीता गांव के प्राइमरी विद्यालय में शिक्षामित्र हैं। संगीता कहती हैं, “मैं बस इंटर तक पढ़कर कानपुर से गांव में ब्याह कर आयी थी और घरवालों ने नौकरी के लिए गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला करवाया। जल्द ही शिक्षामित्र के पद पर मेरी नियुक्ति हो गयी। लेकिन मेरे पढ़े-लिखे होने के तंज हमेशा मिलते रहे क्योंकि मैं अखबार पढ़ती थी, घूँघट नहीं करती थी। घरवाले चाहते थे कि मैं घूँघट डाल कर विद्यालय जाऊं और वहां के पुरुष कर्मचारियों के सामने घूँघट में रहूं। हालांकि ये सब मैंने कुछ दिन किया भी लेकिन फिर मेरी चेतना को ये रूढ़ियां गवारा नहीं हो रही थी। मैंने घूँघट छोड़ दिया। तब से मेरे घर-परिवार और गांव में कोई मुझसे खुश नहीं है। सब सारा दोष मेरी पढ़ाई को देते रहे और तरह-तरह के व्यंग्य और चुटकुले मुझपर बनाए जाते रहे।”

प्राचीन काल में हमारे परम्परागत भारतीय समाज में लोगों के मन में स्त्रियों की शिक्षा को लेकर यह बात फैला दी गई थी कि स्त्रियां यदि पढ़ेगीं तो विधवा हो जाएगीं, बांझ हो जाएगीं, अनेक तरह की कुधारणाएं कि अगर स्त्री अक्षर ज्ञान सीखेगी तो बहुत बड़ा पाप करेगी। यहाँ तक कि कालांतर में तो कुछ स्त्रियां जो उस समय पढ़-लिख रही थीं, उनका चरित्र हनन करके उन्हें दबाने की कोशिश भी की जा रही थी। अगर कोई पढ़ने-लिखने वाली औरत संयोगवश विधवा हो जाती तो सारा कसूर उसकी पढ़ाई-लिखाई पर मढ़ दिया जाता था। लेकिन फिर सावित्री बाई फुले जैसी औरतें इसी जड़ समाज में पैदा होती हैं और स्त्रियों में शिक्षा की अलख जगाती हैं। उत्तर भारत के गवईं इलाकों में आज भी सावित्रीबाई फुले जैसी औरत हों तो लोग उनका अब उपहास कर सकते हैं क्योंकि स्त्रियों की शिक्षा उनकी मुखरता को आज भी गवईं समाज बहुत संकुचित दृष्टि रखता है।

उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले की रहने वाली निर्मला देवी कहती है “मेरे पति एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे वे पढ़ने-लिखने पर जोर देते थे और घर में समाचार-पत्र मँगवाते थे। शुरू-शुरू में वे मुझे पढ़कर सुनाते थे बाद में धीरे-धीरे मैंने पढ़ना-लिखना सीख लिया था तो मेरे पति मुझे अखबार पढ़कर सुनाने को कहते। लेकिन जब मैं अखबार पढ़कर सुनाने लगती तो पूरे गाँव में इस बात का मजाक बनाया गया। तरह-तरह के व्यंग किये जाते। गाँव में स्त्री-पुरुष सब मेरे अखबार पढ़ने, टीवी पर समाचार देखने को लेकर व्यंग करते यहाँ तक की अगर मैं कोई खबर की चर्चा करती तो लोग उसे गम्भीरता से न लेकर उसका मजाक उड़ाया करते।” 

“आसपास के लोगों ने खूब मजाक उड़ाया”

तस्वीर साभारः UN Women

सोनभद्र जिले की चम्पा देवी की उम्र 70 साल है। वह कहती है कि अपने बचपन से बुढ़ापे तक के सफर में गाँव-जवार में स्त्रियों की शैक्षिक आजादी को लेकर कोई बुनियादी बदलाव नहीं देखा। वह कहती है, “मेरा विवाह बचपन में हुआ था बाद में पति की आयकर विभाग में नौकरी लगने से मैं शहर में ही रहती थी लेकिन गाँव बराबर आती जाती रही। मैं पांचवीं कक्षा तक पढ़ी थी तो अखबार पढ़ लेती थी, उपन्यास और कहानियां भी पढ़ती थी और बाद के दिनों में पति के साथ क्रिकेट भी देखती थी। लेकिन जब पति के रिटायरमेंट के बाद गाँव लौटी और अपनी दिनचर्या जीने लगी तो आसपास के लोगों ने खूब मजाक उड़ाया करते थे। मेरे पति द्वार पर बैठकर अखबार पढ़ते तो लोग उन्हें सम्मान से देखते पर अगर मैं भी वहीं बैठकर अखबार पढ़ने लगती तो किसी को अच्छा नहीं लगता।”

भेदभाव की बात चम्पा देवी आहत होकर कहती है “उन दिनों मुझे उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था और रेडियो पर गाने सुनने का भी लेकिन गाँव की औरतें मुझे उपन्यास पढ़ते देख कहती थी कि रामायण पढ़ा करो, गन्दी किताब क्यों पढ़ती हो। मैं खिझकर रह जाती उन्हें समझाने की भी कोशिश करती लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता।” अगर भारतीय गाँवों की स्थिति का ठीक-ठीक अध्ययन किया जाये तो भारतीय समाज में स्त्री शिक्षा को लेकर यहां के मनुष्यों के विचार आज भी कुछ ज़्यादा नहीं बदले हैं। आज तो यहां स्त्रियां स्कूलों में पढ़ा रही हैं, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं, बैंक और डाकखाने में भी दिखती हैं लेकिन आप उन्हें सार्वजनिक जगहों पर या फिर अपने घर के बाहर बैठकर चाय पीते, अखबार पढ़ते नहीं देख सकते।

संगीता कहती है “मैं बस इंटर तक पढ़कर कानपुर से गाँव में ब्याह कर आयी थी और घरवालों ने नौकरी के लिए गाँव के प्राइमरी स्कूल में आवेदन पत्र दाखिल करवाया और जल्दी ही शिक्षामित्र के पद पर मेरी नियुक्ति हो गयी। लेकिन मेरे पढ़े-लिखे होने के तंज मुझे हमेशा मिलते रहे क्योंकि मैं अखबार पढ़ती थी, घुघट नहीं करती थी।”

दरअसल उत्तर भारत के गांवों की कंडीशनिंग बेहद जड़ है यहाँ स्त्रियों को लेकर समाज उतना ही आधुनिक होता है जितनी उसकी ज़रूरत होती है। वह स्त्री को उतना ही शिक्षित करना चाहता है, जितना उसकी आर्थिक तरक्की, परिवारिक सुख-समृद्धि के अनुकूल हो। उनके मानदंड से अलग समाज में अगर कोई स्त्री पढ़ती-लिखती है तो उसे संदेह से देखते हैं। यहाँ तक कविता, कहानी लिखती स्त्री को भी वो संदेह से देखते हैं। अपने अधिकार के लिए बोलती, लड़ती स्त्री को तो परम्परागत समाज असामाजिक, अराजक, अनैतिक सिद्ध करने की कोशिश में लग जाता है।

अख़बार पढ़ना, टीवी या रेडियो पर समाचार सुनना, सार्वजनिक जगहों पर बोलना, बाहर घूमना, हंसना, घर के बाहर रहना हर जगह पितृसत्तात्मक समाज अपना हक समझता है। इन कार्यों को किसी स्त्री को करते देख उसे वह एक असमान्य क्रिया की तरह देखता है। सदियों से जिस मनुष्य जाति पर पितृसत्ता शासन करती आयी है उसकी स्वतंत्रता और चयन उससे सहन नहीं होता। ग्रामीण इलाकों में अगर स्त्री कोई धार्मिक किताब पढ़ती है तो ठीक है लेकिन अगर अख़बार या उपन्यास या क्रिकेट देख रही है तो वे उसे कहीं न कहीं स्त्री के आनन्द और चयन से जोड़कर देखते हैं। लैंगिक असमानता से बने समाज में स्त्री का अख़बार पढ़ना इसलिए भी अचरज से देखा जाता है कि यहाँ इस तरह के सारे कार्य अखबार पढ़ना, टीवी या रेडियो पर समाचार देखना, सुनना, उपन्यास या पत्र-पत्रिका पढ़ना एकदम से पुरुषों का कार्य माना जाता है। ऐसे वातावरण में अगर उन्हें कोई स्त्री अख़बार पढ़ते हुए दिखती है तो वे उसे हैरत से देखते हैं।


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