हम जिस पितृसत्तात्मक समाज में रह रहे हैं उस समाज में शुरू से ही पुरुषों का वर्चस्व रहा है। इस समाज के लिए महिलाओं का मूल काम बस खाना बनाना और परिवार को खुश रखना ही था। उन्हें किसी भी मसले पर बोलने का अधिकार न के बराबर था। इन सबके बावजूद उस समाज से निकल कर कुछ महिलाओं ने इन मानदंडों के खिलाफ काम की और इन्हें खत्म करने की कोशिश की और सफल भी रहीं। हालांकि महिलाओं के लिए कुछ भी करना न तब आसान था न आज है। इतनी पाबंदियां झेलने के बावजूद महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपना योगदान दिया, चाहे वो साहित्य, कला, विज्ञान हो या देश की आज़ादी हो। लेकिन घर की बेड़ियों को लांघ कर कुछ भी करना काफी मुश्किल भरा रहा है। यह कहना कि इस पुरुषवादी समाज से निकल कर महिलाओं का कुछ भी काम करना, महिलाओं के प्रति समाज के नज़रिए को बदलने का प्रयास था जो अब भी जारी है।
एक निडर योद्धा: झलकारी बाई
झलकारी बाई न तो रानी थी और न ही झाँसी की सत्ता उनके हाथ में थी। जब वह छोटी थीं तब उनकी माँ का निधन हो गया था। उन्होंने अपने पिता से तलवारबाज़ी और घुड़सवारी का प्रशिक्षण लिया। भारतीय इतिहास बताता है कि झलकारी बाई बचपन से ही निडर थीं। एक बार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ तेंदुए से हो गई थी और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उसे मार डाला था। एक अन्य घटना में बताया गया है कि जब डकैतों ने एक समूह के साथ उनके गांव पर हमला किया तब झलकारी अपनी बहादुरी से पीछे नहीं हटीं और मजबूर होकर डकैतों को भागना पड़ा। उसके बाद उनकी बहादुरी को देखते हुए गाँववालों ने उनकी शादी रानी लक्ष्मीबाई के सैनिक दल के एक सैनिक से करा दी।
शादी के बाद जब रानी लक्ष्मीबाई से उनकी मुलाकात हुई, तब झलकारी बाई को देख लक्ष्मीबाई अवाक रह गईं। वह बिल्कुल लक्ष्मीबाई की तरह दिखती थीं। उनकी बहादुरी को देखकर लक्ष्मीबाई ने उन्हें अपने सैनिकदल में शामिल कर लिया, जहां उन्होंने तोप और अन्य शस्त्र चलाने की शिक्षा हासिल की। आज़ादी की लड़ाई में जब अंग्रेज़ों ने झाँसी पर हमला किया तब लक्ष्मीबाई को किले से चले जाने की सलाह दी गयी। इसके बाद झलकारी बाई लक्ष्मीबाई के कपड़े पहन सेना की कमान संभालकर युद्ध में उतर गईं। अंग्रेज़ों को पता ही नहीं चला कि वह लक्ष्मीबाई नहीं है। इस तरह से झलकारी बाई ने आज़ादी की लड़ाई में खुद को कुर्बान कर दिया।
पहली मुस्लिम शिक्षिका: फ़ातिमा शेख़
फ़ातिमा शेख़ एक कर्मठ विचारों वाली महिला थी। उस दौर में उन्होंने सारी बेड़ियों को तोड़ते हुए महिलाओं को शिक्षित करना चाहा। स्त्री शिक्षा को मुद्दा बना कर लोगों के बीच जाना शुरू किया। तथाकथित ऊँची जाति के लोग नहीं चाहते थे कि समाज में कथित निम्न मानी जाने वाली जातियों के लोग ख़ास तौर पर महिलाएं शिक्षा हासिल करे। वह मुस्लिम समुदाय और निचले तबक़े के लोगों के घर जाकर उन्हें शिक्षा का महत्व बताती। उन्हें जागरूक करती ताकि वह लोग लड़कियों को स्कूल भेजें। जिस दौर में मुस्लिम धर्म में यह माना जाता था कि लड़कियों को शिक्षा लेना धर्म के खिलाफ़ है, उस दौर में फ़ातिमा शेख़ का यह बीड़ा उठाना बहुत हिम्मत की बात थी। जब महिलाएं सामाजिक मानदंडों के खिलाफ आगे बढ़ती है, तो उनके विरोध में समाज क्या कुछ नहीं कहता है। उनके खिलाफ कई विरोध हुए लेकिन सारी मुश्किलों का सामना करते हुए वह अपने प्रयासों में लगी रही। इतिहास उन्हें भारत की पहली मुस्लिम शिक्षिका के रूप में याद रखेगा।
बेजुबानों की आवाज़ बनने वाली: ताराबाई शिंदे
‘तुम ने अपने हाथों के सब धन दौलत रखकर नारी को कोठी में दासी बनाकर, धौंस जमाकर दुनिया से दूर रखा| उसपर अधिकार जमाया। नारी के सद्गुणों को दुर्लक्षित कर अपने ही सद्गुणों के दिये तुमने जलाये। नारी को विद्याप्राप्ति के अधिकार से वंचित कर दिया। उसके आने-जाने पर रोक लगा दी। जहां भी वह जाती थी, वहीं उसे उसके समान अज्ञानी स्त्रियाँ ही मिलती थीं। फिर दुनियादारी की समझ कहाँ से सीखती वह?‘ बुलढाणा के बरार प्रांत में जन्मी ताराबाई शिंदे एक महिला अधिकार कार्यकर्ता थीं, जिन्होंने पितृसत्ता का विरोध किया था। उनका पहला प्रकाशित काम, ‘स्त्री पुरुष तुलना’, जिसका अनुवाद है, महिलाओं और पुरुषों के बीच एक तुलना, देश का पहला आधुनिक नारीवादी पाठ माना जाता है। वह स्त्री की आज़ादी तय करने का अधिकार पुरुषों के पास कैसे आया, इसपर समाज के सामने यह सवाल उठाती हैं।
पुरुष प्रधान समाज में स्त्री बेज़ुबान थी। लेकिन ताराबाई शिंदे के इस सवाल ने पुरुषों के वर्चस्व पर सवाल खड़ा कर दिया। वह विधवा महिलाओं के उत्थान में अहम किरदार निभा रही थीं। उनका कहना था कि अगर पत्नी के मरने के बाद पुरुषों को दूसरी शादी करने का अधिकार है तो महिलाओं को क्यों नहीं है? कौन सी ताकत उन्हें दोबारा विवाह करने से रोक रहा है? क्या उजला कपड़ा पहन लेने से विधवा महिलाओं की भावनाएं खत्म हो जाती हैं? ताराबाई शिंदे ने विधवाओं, सन्यासियों और लैंगिक असमानता से जुड़ी तमाम सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध उन्होंने आवाज उठाई। ताराबाई एक निसंतान विधवा महिला थीं। उनका दूसरा विवाह उस वक्त मौजूद रूढ़िवादी मानदंडों के वजह से दोबारा नहीं हो पाया।
सामाजिक कार्यकर्ता रमाबाई रानाडे
रमाबाई रानाडे एक भारतीय समाजसेवी और 19वीं शताब्दी में पहली महिला अधिकार कार्यकर्ताओं में से एक थी। वह 1863 में कुरलेकर परिवार में पैदा हुई थी। 11 वर्ष की आयु में, उनका विवाह जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे से हुआ, जो एक प्रतिष्ठित भारतीय विद्वान और सामाजिक सुधारक थे। सामाजिक असमानता के उस युग में, महिलाओं को स्कूल जाने और साक्षर बनने की इजाजत नहीं थी। रमाबाई, शादी के कुछ ही समय बाद, महादेव गोविंद रानाडे के समर्थन और प्रोत्साहन के साथ पढ़ना- लिखना सीखने लगी। रमाबाई ने खुद को शिक्षित करने को एक मिशन बना लिया, ताकि वह अपने पति के नेतृत्व वाले सक्रिय जीवन में बराबर की भागीदार बन सकें। अपने प्रयासों में उन्हें अपने विस्तृत परिवार की अन्य महिलाओं से रुकावट और शत्रुता का सामना करना पड़ा। रमाबाई के पति रानाडे ने उन्हें मराठी, इतिहास, भूगोल, गणित और अंग्रेजी लिखने और पढ़ने की नियमित शिक्षा दी। वह उन्हें सभी समाचार पत्र पढ़ने को कहता था और उसके साथ समसामयिक विषयों पर चर्चा करता था। वह उनकी समर्पित शिष्या बन गईं और धीरे-धीरे उनकी सचिव और भरोसेमंद दोस्त बन गईं।
रमाबाई ने अपना पहला सार्वजनिक भाषण नासिक हाई स्कूल में दिया था, जहाँ उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। वें जल्द ही अच्छी वक्ता बन गई। वह बहुत ही अच्छा बोल लेती थी, उनके भाषण हमेशा सरल और दिल को छू लेने वाले होते थे। रमाबाई रानाडे ने अपने पूरे जीवन महिलाओं के जीवन उत्थान के लिए काम किया। साल 1908 में, पारसी समाज सुधारक बी.एम. मालबारी और दयाराम गिदुमल महिलाओं के लिए घर स्थापित करने और भारतीय महिलाओं को नर्स बनने के लिए प्रशिक्षित करने का विचार लेकर आए। इसके लिए उन्होंने सोसायटी शुरू करने के लिए मार्गदर्शन और मदद के लिए रमाबाई की ओर रुख किया और सेवा सदन अस्तित्व में आया। उन्होंने 1904 में बॉम्बे में आयोजित भारत महिला परिषद (भारत महिला सम्मेलन) के पहले सत्र की अध्यक्षता भी की।
बाल विवाह की बेड़ियों को तोड़ने वाली: दुर्गा बाई देशमुख
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली महिला और संविधान सभा की पन्द्रह महिलाओं में से एक थीं दुर्गा बाई। इन्होंने महिलाओं की शिक्षा में अहम किरदार निभाया। इनका पूरा जीवन संघर्षपूर्ण रहा। महज आठ साल की उम्र में इनका विवाह कर दिया गया था। लेकिन जब वह पन्द्रह साल की हुईं तब उन्होंने अपनी घर-गृहस्थी संभालने की बजाय अपनी शादी तोड़ दी और खुद को विवाह से आज़ाद कर लिया। साल 1930 में जब महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की तब दुर्गाबाई ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका अहम थी।
साल 1930 से 1933 तक वह तीन बार जेल गईं। साल 1946 में जब कैबिनेट मिशन भारत आया और भारत में संविधान निर्माण की प्रक्रिया चली तब दुर्गाबाई का संविधान बनाने की प्रक्रिया में मद्रास प्रांत से परिषद के सदस्य के रूप में चुनाव हुआ। वह संविधान सभा में अध्यक्षों के पैनल में अकेली महिला थीं। आज़ादी के बाद संविधान लागू होने के बाद भी वह राजनीति में काफी सक्रिय रहीं। साल 1958 में भारत सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय नारी शिक्षा परिषद की पहली अध्यक्ष बनीं।
समाज के मुद्दों को कला के माध्यम से पेश करने वाली बेली ललिता
अपनी कला के माध्यम से लोगों को एकजुट करने वाली बेली ललिता ने महिला सशक्तिकरण और मजदूर वर्ग का हौंसला बढ़ाने के लिए काम किया। कहा जाता है कि ज़रूरत पड़ने पर बेली ललिता किसी भी मुद्दे को उस वक्त गीत बना कर पेश कर देती थीं। उनका यह तरीका लोगों को खूब पसंद आता था। इस तरह लोग उन्हें सुनने के लिए सभा में इकट्ठा हो जाते थे। वह अपने गानों के माध्यम से समाज में हो रही कुरीतियों के बारे में जानकारी देती थीं। वह एक कर्मठ क्रांतिकारी महिला थीं। साल 1999 में उनका अपहरण कर लिया गया, उन पर हमला किया गया और उनकी निर्ममता से हत्या कर दी गई।
Very nice