जाति, भारतीय समाज में एक पुराना और गहरा विषय है जिसने साहित्य को एक नए आयाम में आगे बढ़ने का मौका दिया है। साहित्य के माध्यम से जाति पर विचार करना, समाज की सामाजिक असमानता और समरसता की दिशा में महत्वपूर्ण विचारों को साझा करता है। साहित्य में जाति का विवेचन करते समय यह आवश्यक है कि हम समझें कि कैसे साहित्य ने जातिवाद को प्रोत्साहित किया और कैसे इसने इसे खत्म करने की कोशिश की है। ऐतिहासिक साहित्य में वेद, उपनिषद और पुराणों में जातिवाद के प्रमुख प्रतिष्ठानों को महसूस किया जा सकता है जबकि आधुनिक साहित्य में ख़ास तौर पर दलित साहित्य में विद्रोह और समाजिक उत्थान की राह पर चलने का प्रयास किया गया है।
साहित्य के माध्यम से हम देख सकते हैं कि कैसे जातिवाद ने समाज को विभाजित किया और अनेक समस्याओं का कारण बना। यही साहित्य ने समझाया है कि व्यक्ति की क्षमताओं और योग्यताओं पर आधारित उनकी पहचान करना महत्वपूर्ण है, न कि उनकी जाति के आधार पर। आधुनिक साहित्य में, दलित साहित्य और सामाजिक विद्रोही रचनाएं जातिवाद के खिलाफ उठाई गई वो आवाज़ है जिन्होंने समाज को सकारात्मक दिशा में बदलने का प्रयास किया है। साहित्य के माध्यम से जाति के असमानता को बताने वाले उत्कृष्ट कविताएं और कहानियां लोगों की जागरूकता बढ़ाती हैं। यह जातिवाद के खिलाफ आंदोलनों का समर्थन करता है और लोगों को एकजुट होकर इस सामाजिक बुराई के ख़िलाफ़ उठने का काम करता है।
जयप्रकाश कर्दम द्वारा रचित “छप्पर” हिन्दी दलित साहित्य के प्रारंभिक उपन्यासों में से एक माना जाता है जिसकी रचना 1994 में हुई थी। कई आलोचक इसे हिन्दी दलित साहित्य का पहला उपन्यास मानते हैं। यह उपन्यास आंबेडकर और बौद्ध धर्म के सिद्धांतों से प्रेरित है और दलित चेतना से परिपूर्ण है। इसमें मानवीय भावनाओं और एहसासों का संवेदनशील संबंध है जो ब्राह्मणवाद के उन मुखौटे को उखेड़ने की कोशिश करता हैं जो समाज को खोखला बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। मुख्य पात्र चंदन और उसके पिता सुक्खा ब्राह्मणवाद की साजिशों का सामना करते हैं। चंदन के नेतृत्व में समाज में सामाजिक परिवर्तन के लिए की गई आंदोलनों की प्रतिक्रिया समाजभर में व्याप्त हो जाती है। इससे लोग वास्तविकता को पहचानते लगते हैं और जन्म के आधार पर व्यक्ति को श्रेष्ठ या हीन मानने की भावना उनमें कम होने लगती है। जागरूकता के साथ यह भावना पैदा होने लगती है कि व्यक्ति जन्म से नहीं, बल्कि अपने गुण और योग्यता के आधार पर ही श्रेष्ठ और हीन माना जाता है। इस संदेश को लेखक उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की हैं।
छप्पर की कहानी मातापुर गाँव से शुरू होती है जिसमें सुक्खा नामक एक दलित परिवार का केंद्र है। सुक्खा और रमिया बहुत गरीब हैं और उनकी पूरी आशा उनके इकलौते बेटे चन्दन पर है। सुक्खा स्वयं अनपढ़ है, लेकिन उन्होंने शिक्षा का महत्व समझा है और चाहता है कि चन्दन पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने। उसने चन्दन को शहर में पढ़ाई के लिए भेजा है लेकिन गाँव के तथाकथित सवर्णों को यह बात पसंद नहीं आती है। उन्होंने सुक्खा से अपने बेटे को शहर से वापस बुलाने का आग्रह किया है, लेकिन वह इस पर ध्यान नहीं देता है। इससे उसे अपने गाँव के तथाकथित सवर्ण जाति के लोगों का बहिष्कार भी सहना पड़ता है। सुक्खा जानता है कि शिक्षा ही एकमात्र रास्ता है जिससे हाशिये के जीवन की स्थिति से बाहर निकला जा सकता है। चन्दन शहर जाता है और वहाँ भी वह देखता है कि दलितों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। उसे यह भी दिखाई देता है कि जे जे कॉलोनी में दलित और मजदूर भी अपने अधिकारों से वंचित हैं। चन्दन अपनी पढ़ाई के साथ-साथ इन अन्य लोगों को भी जागरूक करने का लक्ष्य बनाता है।
इस उपन्यास में, चन्दन एक केंद्रीय पात्र है और दलित साहित्य की पहली शर्त है जिसमें दलित चेतना का आंबेडकरवाद से प्रेरित अभिव्यक्ति हो। डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रेरित सूत्र “शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो” मौलिक सिद्धांत है। चन्दन का किरदार शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का मूल मानता है और इसलिए वह दलित बच्चों को सिखाने के लिए स्कूल खोलता है और सभी दलितों से अपने बच्चों को पढ़ाने की बात करता है। इस कार्य में उसका मकान मालिक हरिया भी मदद करता है जो स्वयं एक दलित है। हरिया की बेटी कमला भी चन्दन की सहायक बनती है और उसके साथ इस कार्य में शामिल होती है। कमला एक बलात्कार सर्वाइवर दलित महिला है, जिसे न्याय नहीं मिलता है। वह चन्दन के स्कूल में अपने बच्चे का नाम लिखवाने आती है और बाप के नाम की जगह अपना नाम बताती है। उसे यह प्रश्न उठाने पर मजबूर किया जाता है कि क्या बच्चे के बाप का नाम अनिवार्य है और क्या केवल माँ का नाम किसी बच्चे की पहचान के लिए पर्याप्त नहीं है? इस उपन्यास में, एक दलित स्त्री द्वारा समाज में सामना करने वाली कठिनाईयों और उसके संघर्ष का प्रतिनिधित्व कमला करती है।
हरिया, कमला और कई अन्यों के सहायता से चन्दन ने आरंभ किए गए कार्य से धीरे-धीरे एक आंदोलन बन जाता है। इस आंदोलन से दलितों के बीच उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ती है और वे अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं। यह बदलाव सामंती और ब्राह्मणवादी मानसिकता को बढ़ाने वाले ठाकुर हरनाम सिंह, काणा पंडित और अन्यों को चिंतित करता है। वे इस आंदोलन को कुचलने का षड्यंत्र रचते हैं, परंतु उपन्यास में यह भी दिखाया गया है कि सभी तथाकथित सवर्ण जाति के लोग एक समान नहीं होते हैं। इस उपन्यास में, एक अन्य स्त्री पात्र और ठाकुर हरनाम सिंह की एकलौती बेटी रजनी दलितों की शिक्षा और समानता की पक्षधर है। वह अपने पिता द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों का विरोध करती है और चन्दन द्वारा किए जा रहे कार्यों में हिस्सा लेती है। उसे दिखाता है कि रजनी पढ़े-लिखे उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो दलितों के प्रति सहानुभूति का भाव रखता है और समाज में हर स्तर पर समानता का समर्थन करता है।
उपन्यास का अंत एक बहुत ही सिनेमैटिक, काल्पनिक और आदर्शात्मक रूप से है। चन्दन, रजनी और कमला सभी एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। कमला, रजनी और चन्दन की खुशी के लिए, कमला अपने प्रेम का बलिदान दे देती है। चन्दन पर हुए हमले में उसे बचाने में, उसे मारा जाता है। ठाकुर हरनाम सिंह का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वे अपनी बेटी रजनी का विवाह दलित युवक चन्दन से करवाने के लिए तैयार हो जाते हैं। वह अपनी सम्पूर्ण जमीन गाँव के दलितों में बाँट देते हैं। इससे एक प्रकार की यूटोपिया की रचना होती है, जिससे उपन्यासकार ने भविष्य में बनने वाले समाज की रूपरेखा खींची है।
कथाकार जयप्रकाश कर्दम ने इस उपन्यास के माध्यम से हिंदी दलित साहित्य में अपनी सशक्त दलित चेतना को प्रस्तुत किया है जिससे उन्हें अत्यधिक पूर्ण लोकप्रियता मिली है। इस कहानी में वह बताते हैं कि दलितों को सदियों से अत्याचार, शोषण, बलात्कार और भेदभाव का सामना करना पड़ा है और इसका कारण उनकी जाति है। यह उपन्यास वर्चस्ववादी मानसिकता और उसकी बर्बरता के खिलाफ खड़ा होने की दलित व्यक्ति की इच्छा को दर्शाता है और उसकी मुक्ति की कड़ी मेहनत को भी जीवंत करता है।
इस उपन्यास का मुख्य केंद्र बिंदु वहाँ है जहाँ जातिवादी मुद्दे, जातियों के द्वारा किए जाने वाले अन्याय से बाहर निकलकर एक सामाजिक विमर्श का रूप लेते हैं। चंदन का लक्ष्य सिर्फ जातिवाद के साथ मुकाबला करना नहीं है, बल्कि सामाजिक एकता, सौहार्द और मोहब्बत को स्थापित करना भी है। वह गांव के वातावरण में पला बढ़ा है और शहर में उच्च शिक्षा प्राप्त करता है, लेकिन वह अपने गांव से नहीं कटता। उसका संघर्ष दोनों ओर से है, जो न्याय की प्राप्ति पर आधारित है। इस तरह से इस पुस्तक के माध्यम से दलित आलोचना की वैज्ञानिक धारा और तेवर की प्रखर संस्कृति को देखा जा सकता है।